पुलिस सुधार पर इधर बहस फिर तेज हो गयी है और इसी क्रम में रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी, जेएफ रिबेरो ने पुलिस के अपने साथियों को एक लंबा और भावुक पत्र लिखा है। उन्होंने पुलिस के नेतृत्व से अपेक्षा की है कि, उनका अब यह दायित्व है कि, वे पुलिस बल को विधिपूर्वक विधि का शासन लागू करने के लिये आगे आये। उनकी चिंता पुलिस में बढ़ती अनावश्यक राजनीतिक दखलंदाजी को लेकर है। आज स्थिति यह हो गयी है कि, यह दखलंदाजी कानून व्यवस्था के प्रशासनिक कार्यो से हट कर पुलिस के जांच और मुकदमो की विवेचना तक पहुंच गयी है। पुलिस की तफतीशें, एक न्यायिक प्रक्रिया की तरह होती हैं जो सीआरपीसी के अनुसार की जाती हैं और कदम कदम पर न्यायालय को इसकी जानकारी दी जाती है। इसलिए साक्ष्य और सत्य का अन्वेषण ही इसका आधार होना चाहिए, न कि कोई राजनीतिक दिशा निर्देश। लेकिन कोई भी जांच एजेंसी राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त नहीं है, विशेषकर उन मामलों में जिनमे या तो कोई बड़ा राजनेता लिप्त होता है। थाना पुलिस द्वारा की जा रही विवेचनाओं की तो बात ही अलग है, सीबीआई, ईडी, और बेहद प्रोफेशनल समझी जाने वाली दिल्ली पुलिस के द्वारा की गयी विवेचनाओं पर न केवल पीड़ित और भुक्तभोगी अंगुली उठा रहे है बल्कि मीडिया, अदालत और अब तो संवैधानिक संस्थायें भी उठा रही है। सन्दर्भ है, फरवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगो की जांच और उस पर सवाल खड़े करती हुई दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की रिपोर्ट, जो पिछले दिनों ही सरकार को सौंपी गयी है।
फ़रवरी 24, 2020 को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा पर थे तो दिल्ली के उत्तरी पूर्वी भाग में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। हालांकि इन दंगों से डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा का कोई संबंध नहीं था, पर किसी अति विशिष्ट विदेशी अतिथि के भारत आगमन पर इस प्रकार के दंगों का भड़क जाना और वह भी राजधानी में, सरकार और दिल्ली पुलिस के लिये एक बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। इन दंगों में भारी मात्रा में जान माल का नुकसान हुआ। यह भारत का सम्भवतः पहला साम्प्रदायिक दंगा है जिसे नियंत्रित करने के लिये देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, को सड़क पर उतर कर दिल्ली की गलियों में पैदल घूमना पड़ा। इस अप्रत्याशित कदम से दंगे के स्वरूप, सरकार की चिंता और भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है।
दंगो में जो जनधनहानि हुयी, उसका विवरण दिल्ली पुलिस ने एक हलफनामा देकर दिल्ली हाईकोर्ट को बताया है। उसके अनुसार, इन दंगों में, कुल मृतको की संख्या 52 हैं जिंसमे 40 मुस्लिम और 12 हिन्दू हैं। इसी प्रकार घायलों की कुल संख्या, 473 है जिंसमे, 257 मुस्लिम और 216 हिंदू हैं। संपत्ति के नुकसान का जो आंकड़ा दिल्ली पुलिस ने हलफनामा में दिया है, उसके अनुसार, कुल 185 घर बर्बाद हुए हैं जिनमे से 50 घर, मुस्लिम समुदाय के और 14 घर हिंदुओं के हैं। लेकिन इस हलफनामा में खजूरी खास और करावल नगर में हुए नुकसान का साम्प्रदायिक आधार पर ब्रेक अप नहीं दिया गया। इसी प्रकार इन दंगों में उक्त हलफनामे के अनुसार, बर्बाद होने वाली 53.4 % दुकानें मुसलमानों की औऱ 14 % हिन्दूओं की है। शेष का उल्लेख नहीं है। साम्प्रदायिक दंगों का कारण धार्मिक कट्टरता होती है तो निश्चय ही उपासना स्थल निशाने पर आते हैं। दिल्ली दंगो में कुल 13 मस्जिदों और 6 मंदिरों को नुकसान पहुंचा है। आप को यह साम्प्रदायिक ब्रेक अप हैरान कर सकता है पर जब मृतकों, घायलों और संपत्ति के नुकसान का विवरण मांगा जाता है तो इसी प्रकार से विवरण पुलिस द्वारा तैयार किया जाता है और सरकार या अदालत या किसी जांच आयोग को भेजा जाता है।
दिल्ली दंगे की पृष्ठभूमि का कारण, जो दिल्ली पुलिस ने बताए हैं वह बड़ा दिलचस्प है। दिल्ली पुलिस के अनुसार, नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी को लेकर मुस्लिम समुदाय में असंतोष था और यह दंगा उसी असंतोष का परिणाम था। दिल्ली पुलिस की इस थियरी में, फ़रवरी में हुए, उत्तर पूर्व दिल्ली के दंगों को, शाहीन बाद के सीएए और एनआरसी विरोधी शांतिपूर्ण आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की गई है। जबकि दोनो ही स्थान एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर हैं। लेकिन दंगो के ठीक पहले उत्तर पूर्व दिल्ली के एक इलाके में सड़क पर सीएए विरोधी धरना देने की कोशिश ज़रूर की गई थी और उसे लेकर एक भाजपा नेता ने उत्तेजक बयान भी दिया था और अड़तालीस घँटे का अल्टीमेटम देते हुए अपने भाषण में कहा था कि, अगर प्रदर्शनकारी नही हटे तो,उन्हें वे खुद हटा देंगे। उक्त भाषण दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अफसर के सामने हुआ था और दिल्ली पुलिस के उक्त बड़े अफसर ने उस भड़काऊ बयान पर कोई भी वैधानिक कार्यवाही नही की और उसके बाद ही दंगे भड़क गए। उक्त भाजपा नेता के भड़काऊ बयान और उस पर पुलिस की चुप्पी पर सवाल भी खूब उठे और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर रहे, आईपीएस अधिकारी अजय राज शर्मा सहित अनेक रिटायर्ड पुलिस अफसरों ने निंदा की।
दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल केवल सोशल मीडिया और मुख्य धारा की मीडिया में ही नहीं उठा बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इसका संज्ञान लिया और दिल्ली पुलिस को असहज करने वाले अनेक कानूनी और प्रशासनिक सवाल उठाए तथा टिप्पणियां भी की। दिल्ली हिंसा मामले में सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि, ‘दिल्ली में दूसरा ‘1984’ को नहीं होने देंगे।’. इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगायी थी, और अदालत ने, बीजेपी नेताओं का वह वीडियो भी देखा सुना था जिंसमे केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर को गोली मारो और, भाजपा नेता कपिल मिश्र का, पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में, देख लेने वाला भाषण रिकॉर्ड किया गया था। दंगो में हुयी हिंसा पर सख्त टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि, ” हम अभी भी 1984 के पीड़ितों के मुआवजे के मामलों से निपट रहे हैं, ऐसा दोबारा नहीं होना चाहिए। नौकरशाही के मीनमेख में जाने के बजाय लोगों की मदद होनी चाहिए। इस माहौल में यह बहुत ही नाजुक काम है, लेकिन अब संवाद को विनम्रता के साथ बनाये रखा जाना चाहिए।”
लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के सक्रिय होते ही, जस्टिस मुरलीधर जिनकी बेंच में इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई चल रही थी को, रातोंरात दिल्ली उच्च न्यायालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया। सरकार ने जस्टिस एस मुरलीधर के तबादले की अधिसूचना तत्काल प्रभाव से जारी कर दी । हालांकि यह तबादला कॉलेजियम की सिफारिश पर 12 फरवरी को ही किया जा चुका था पर जिस दिन यानी 26 फरवरी को यह सारी तल्ख टिप्पणियां अदालत में हुयी और दूसरे ही दिन, पुलिस से अनुपालन आख्या दाखिल करने की बात न्यायालय ने कही तो, उसी रात जस्टिस मुरलीधर के तबादले का नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया। ऊपर से देखें तो यह तबादला एक रूटीन तबादला लगता है लेकिन अगर दिल्ली दंगो की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुरलीधर के सॉलिसिटर जनरल से हुयी अदालती वार्तालाप को पढ़े तो यह तबादला न्यायपालिका को, सरकार द्वारा अर्दब में लेने की एक शर्मनाक कोशिश ही समझी जाएगी।
दिल्ली के इस दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के नुकसान और उनके उत्पीड़न की अनेक खबरें अखबारों और अन्य माध्यमों से सामने आयी और दिल्ली पुलिस की भूमिका इन दंगों में एक कानून व्यवस्था बनाये रखने वाली विधिक एजेंसी के बजाय सरकार या सत्तारूढ़ दल के इशारे पर काम करने वाली पुलिस की तरह दिखी। दिल्ली दंगो की अलग से जांच कर के तथ्यों के पड़ताल करने के लिए दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने एक नौ सदस्यीय कमेटी का गठन किया। इस कमेटी के चेयरमैन, सुप्रीम कोर्ट के वकील एमआर शमशाद, औऱ गुरमिंदर सिंह मथारू, तहमीना अरोड़ा, तनवीर क़ाज़ी, प्रोफ़ेसर हसीना हाशिया, अबु बकर सब्बाक़, सलीम बेग, देविका प्रसाद तथा अदिति दत्ता, सदस्य थे। इस तथ्यान्वेषी कमेटी का अपनी जांच के बारे में, कहना है कि ‘उसने दंगों की जगह पर जाकर पीड़ितों के परिवारों से बात की, उन धार्मिक स्थलों का भी दौरा किया जिनकों दंगों में नुक़सान पहुँचाया गया था।’ कमेटी ने दिल्ली पुलिस का भी पक्ष जानने की कोशिश की और उनसे भी लिखित रूप से अपना पक्ष रखने के लिये कहा, लेकिन दिल्ली पुलिस ने न तो अपना पक्ष रखा और न ही कोई उत्तर दिया। यह उदाहरण इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये पर्याप्त है कि दिल्ली दंगो में पुलिस की भूमिका एक प्रोफेशनल पुलिस बल के अनुरुप नहीं थी।
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की इस रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर, 2019 में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) बनने के बाद देशभर में इसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होने लगे। दिल्ली में भी कई जगहों पर सीएए के विरोध में प्रदर्शन होने लगे थे । दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के कई नेताओं ने सीएए विरोधियों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने के लिए भाषण दिए। यह उल्लेख, मंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा नेता कपिल मिश्र द्वारा दिये गए भड़काऊ भाषणों के संदर्भ से जुड़ा है। रिपोर्ट में ऐसे कई भाषणों का उल्लेख स्थान स्थान पर किया गया है। रिपोर्ट में, हिंदू दक्षिणपंथी गुटों के ज़रिए सीएए के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को डराने धमकाने के लिए उनपर हमले किए जाने का उल्लेख किया गया है। ऐसे हमले हुए भी थे। जैसे, 30 जनवरी को जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रदर्शनकारियों पर रामभक्त गोपाल नामक एक युवक ने और एक फ़रवरी को कपिल गुर्जर नामक एक युवक ने शाहीन बाग़ में प्रदर्शनकारियों पर गोली चला कर शांतिपूर्ण प्रदर्शन को भड़काने की कोशिश की।
इसी क्रम में, 23 फ़रवरी को बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के मौजपुर में दिए गए भाषण के फ़ौरन बाद दंगे भड़कने का उल्लेख है । मौजपुर के दिए गए कपिल मिश्र के इस भाषण में, जाफ़राबाद में सीएए के विरोध में बैठे प्रदर्शनकारियों को, बलपूर्वक हटाने की बात उनके द्वारा की गयी थी और यह वही उत्तेजक भाषण था, जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस मुरलीधर ने, इसका वीडियो देख कर, दिल्ली पुलिस को इसका संज्ञान लेने का निर्देश दिया था। कपिल मिश्र का यह भाषण, दिल्ली पुलिस के डीसीपी वेद प्रकाश सूर्या की मौजूदगी में हुआ था।
दंगो के बारे में घटनाओं का रिपोर्ट में विस्तार से वर्णन किया गया है। उनमे से कुछ का उल्लेख करना समीचीन होगा।
- दंगाइयों की हथियारबंद भीड़ ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाक़ों में लोगों पर हमले किए,उनके घरों और दुकानों को आग लगा दी. इस दौरान भीड़ जय श्रीराम , हर-हर मोदी , ( सहित अनेक उत्तेजनात्मक नारे जिनका यहां उल्लेख करना उचित नही होगा ) और आज तुम्हें आज़ादी देंगे जैसे नारे लगा रही थी।
- मुसलमानों की दुकानों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया जिसमें स्थानीय युवक भी थे और कुछ लोग बाहर से लाए गए थे। अगर दुकान के मालिक हिंदू हैं और मुसलमान ने किराए पर दुकान ले रखी थी तो उस दुकान को आग नहीं लगाई गई थी,लेकिन दुकान के अंदर का सामान लूट लिया गया था।
- पीड़ितों से बातचीत के बाद लगता है कि ये दंगे अपने आप नहीं भड़के बल्कि ये पूरी तरह सुनियोजित और संगठित थे और लोगों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया था।
- रिपोर्ट के अनुसार11 मस्जिद, पाँच मदरसे, एक दरगाह और एक क़ब्रिस्तान को नुक़सान पहुँचाया गया।. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में किसी भी ग़ैर-मुस्लिम धर्म-स्थल को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया था।
इस प्रकार के कई उदाहरण, साक्ष्यों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के हवाले से उक्त रिपोर्ट में दिए गए हैं।
इस फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका को पक्षपातपूर्ण बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस कई जगहों पर जहां उसे, सक्रिय होकर सख्ती से दंगा और हिंसक घटनाओं को नियंत्रित करना चाहिए था, वहां पुलिस, तमाशाई बनी रही या फिर दंगाइयों को अंदर अंदर, शह देती रही। रिपोर्ट में लिए गए चश्मदीदों के कथनों के अनुसार अगर किसी एक स्थान पर, किसी एक पुलिसकर्मी ने दंगाइयों को रोकने की कोशिश भी की तो उसके साथी अन्य पुलिसकर्मियों ने उसे रोक दिया, और दंगे के दौरान घोर प्रशासनिक निष्क्रियता और आपराधिक सहयोग का कार्य किया जो, एक पुलिस बल के सदस्य के लिए, न केवल अनुचित है बल्कि विधिविरुद्ध भी है। दंगे की पीड़ितों के अनुसार पुलिस ने, दंगे से जुड़ी अनेक आपराधिक मामलों में एफ़आईआर लिखने से भी इनकार कर दिया और कई बार संदिग्ध का नाम हटाने के लिए आवेदनकर्ता को बाध्य किया और तब पुलिस द्वारा एफ़आईआर लिखी गयी। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि, कई जगहों पर पुलिसवालों ने दंगाइयों को हमले के बाद ख़ुद सुरक्षित निकाल कर ले गए और कई जगह तो कुछ पुलिस वाले हमले में खुद ही शामिल रहे।
महिलाओं को निशाना बनाने के अनेक साक्ष्य, कमेटी को मिले हैं, जिनका उल्लेख किया गया है। महिला दंगा पीड़ितों के अनुसार कई जगहों पर उनके नक़ाब और हिजाब उतारे गए और उन्हें इसके लिये शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। पुलिस का निशाना, दरअसल सीएए और एनआरसी का विरोध करने वाली महिलाएं रही हैं। दंगाई और पुलिस, दोनो ने अपना निशाना, इस मुद्दे पर, शांतिपूर्ण धरने पर बैठी महिलाओं को बनाया और इस दौरान, महिलाओं ने अपने बयानों में कई पुरुष पुलिसकर्मी द्वारा महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की खुल कर शिकायत की। यहां तक कि कुछ महिलाओं ने अपने बयानों में पुलिस के ऊपर बलात्कार करने और एसिड फेंक देने की धमकी के आरोप लगाए। अब इन आरोपों में कितनी सत्यता है यह तो तभी स्पष्ट होगा जब एक एक मामले की गंभीरता से जांच हो।
अल्पसंख्यक आयोग की नौ सदस्यीय जांच कमेटी ने, दंगो में घोषित मुआवज़े के लिए लिखे गए 700 प्रार्थनापत्रों का अध्ययन किया। अपने अध्ययन के बाद, कमेटी ने पाया कि अधिकतर मामलों में क्षतिग्रस्त जगह का दौरा भी नहीं किया गया है, और जिन मामलों में जान माल के नुकसान को, सही पाया गया है, उनमें भी बहुत कम धनराशि, अंतरिम सहायता के रुप मे दी गई है। दंगों के तुरन्त बाद कई लोग घर छोड़ कर चले गए हैं, इसलिए बहुत से लोग, मुआवज़े के लिए आवेदन नहीं कर सके हैं। मुआवज़े में भी सरकारी अधिकारी के मरने पर उनके परिवार वालों को एक करोड़ की रक़म दी गई जबकि आम नागरिकों की मौत पर केवल 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया गया। मुआवजे का कोई तार्किक आधार तय नहीं किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है फिर भी दंगों में पीड़ितों को केंद्र सरकार की ओर से, दंगा पीड़ितों की कोई मदद नहीं की गई।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है यह एक तथ्यान्वेषी जांच कमेटी थी, जिसका उद्देश्य, दंगो के कारणों की पड़ताल और जनता तथा पुलिस की भूमिकाओं की जांच करना था। यह कोई अधिकार सम्पन्न न्यायिक जांच आयोग या दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत कोई विवेचना एजेंसी नहीं है जो अपराधों की विवेचना करे और गिरफ्तारी, तलाशी, और जब्ती के मूलभूत वैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए, दोषी पाए गए लोगों के खिलाफ न्यायालय में वाद दायर करे। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफ़ारिशें भी की है । जैसे,
- सरकार या अदालत से अनुरोध किया जाए कि हाईकोर्ट के किसी अवकाशप्राप्त जज की अध्यक्षता में एक पाँच सदस्यीय जांच कमेटी बनााई जाए।
- जज की अध्यक्षता वाली कमेटी,दंगो के दौरान, एफ़आईआर नहीं लिखने, चार्जशीट की मॉनिटरिंग, गवाहों की सुरक्षा, दिल्ली पुलिस की भूमिका और उनके ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई जैसे मामलों में जांच कर के अपना निर्णय दे।
- अभियोजक की बहाली,मुआवज़ा, क्षतिग्रस्त धार्मिक स्थलों की मोरम्मत जैसे मामलों में भी कई सुझाव दिए हैं.
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग एक संवैधानिक संस्था है। उसे अपने एक्ट के अनुसार दंगों में शामिल होने या अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाने वाले दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी के लिये भी वैधानिक कदम उठाना चाहिए। हालांकि दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किए गए एक हलफ़नामे में कहा है कि
” अब तक उन्हें ऐसे कोई सबूत नहीं मिले हैं जिनके आधार पर ये कहा जा सके कि बीजेपी नेता कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर ने किसी भी तरह लोगों को ‘भड़काया हो या दिल्ली में दंगे करने के लिए उकसाया हो।”
लेकिन, आयोग की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी ने हलफनामे के तथ्यों के विपरीत साक्ष्य पाए है। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में दिल्ली पुलिस की सराहना की और यह भी कहा कि यह दंगा सुनियोजित रूप से भड़काया गया है। उन्होंने सदन में यह भी कहा कि उत्तरप्रदेश से 300 दंगाई आये थे और उन्होने यह दंगा भड़काया है। लेकिन पुलिस ने उन 300 लोगो मे जिनका उल्लेख गृहमंत्री ने सदन में किया था में से कितनों की पहचान की ओर कितनों को उनमे से गिरफ्तार किया, यह आज तक ज्ञात नहीं हो सका।
दिल्ली पुलिस ने यह हलफ़नामा एक याचिका के जवाब में हाईकोर्ट में पेश किया है। इस याचिका में उन नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने की बात कही गई है, जिन्होंने जनवरी-फ़रवरी में विवादित भाषण दिया था। हलफ़नामे को पेश करते हुए डिप्टी कमिश्नर (क़ानून विभाग) राजेश देव ने यह भी कहा है, कि अगर इन कथित भड़ाकाऊ भाषणों और दंगों के बीच कोई लिंक आगे मिलेगा तो उचित एफ़आईआर दर्ज़ की जाएगी। दिल्ली पुलिस की तरफ़ से दंगों को लेकर दर्ज कुल 751 अपराधिक मामलों का ज़िक्र करते हुए कोर्ट में कहा गया कि शुरुआती जाँच में ये पता चला है कि ये दंगे ‘त्वरित हिंसा’ नहीं थे बल्कि बेहद सुनियोजित तरीक़े से सोच समझ कर ‘समाजिक सामंजस्य बिगाड़ा’ गया.
दिल्ली पुलिस ने इसी महीने के शुरू में अदालत में अपनी प्रारंभिक जांच रिपोर्ट में कहा है कि पूर्वी दिल्ली के दंगों के लिए सऊदी अरब और देश के अलग-अलग हिस्सों से मोटी रकम आई थी। पुलिस ने यह भी कहा ये दंगे अचानक नहीं भड़के थे, बल्कि दिल्ली में अधिक से अधिक जान-माल की हानि के लिए पहले से तैयारी की गई थी। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने अदालत से आग्रह किया कि उन्हें इन दंगों की जड़ों तक पहुंचने और आरोप पत्र दाखिल करने के लिए वक़्त दिया जाए। आरोपियों में, आम आदमी पार्टी से निलंबित निगम पार्षद ताहिर हुसैन, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र नेता मीरान हैदर और गुलिफ्सा खातून के नाम शामिल हैं। आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन पर आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की दंगों के दौरान हत्या मामले में अभियुक्त बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने ताहिर हुसैन के ख़िलाफ़ दाख़िल चार्जशीट में कहा है कि अंकित शर्मा के शव पर बरामदगी के समय 51 ज़ख़्म मिले थे, जैसे उनपर किसी धारदार हथियार से हमला किया गया हो, जिससे लगता है कि पूरा मामला किसी बड़ी साज़िश का नतीजा थी।
दिल्ली पुलिस इन दंगों को एक सुनियोजित साज़िश तो बता रही है पर, जब अल्पसंख्यक आयोग की जांच कमेटी ने दिल्ली पुलिस से इस मामले में, उनका पक्ष जानने के लिये संपर्क किया और दिल्ली पुलिस ने उनके किसी भी सवाल या पत्र का उत्तर नहीं दिया। दिल्ली पुलिस पहले भी अपने ऊपर लगाए गए आरोपों से इनकार कर चुकी है और गृह मंत्री अमित शाह संसद में कह चुके हैं कि दिल्ली दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस ने अच्छा काम किया।लेकिन अल्पसंख्यक आयोग द्वारा दंगों की जाँच के लिए गठित कमेटी का कहना है कि,
” दिल्ली के उत्तर-पूर्वी ज़िले में फ़रवरी में हुए दंगे सुनियोजित, संगठित लगते हैं, यह दंगे, अल्पसंख्यक समुदाय को और निशाना बनाकर किए गए थे। “
यह रिपोर्ट अनेक सुबूतों से जो स्थान स्थान पर जाकर, पीड़ित और चक्षुदर्शी व्यक्तियों के बयान और उनके द्वारा बताए गए विवरणों पर आधारित है। दिल्ली दंगो की जांच कर रहे एसआइटी को इस रिपोर्ट में उल्लिखित साक्ष्यों की भी पड़ताल करनी चाहिए। लेकिन जांच कमेटी के किसी पत्र का उत्तर न देना और जांच में किसी सहयोग देने के बजाय दूर दूर रहना, कहीं न कहीं दिल्ली पुलिस के पक्ष को संदिग्ध ही करता है। सरकार ने दिल्ली पुलिस की दंगो में उनकी भूमिका की सराहना की है और क्लिन चिट दी है। पर यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस के प्रोफेशनलिज़्म पर एक अलग ही तस्वीर दिखा रही है। उचित यही होगा कि इस जांच रिपोर्ट में वर्णित दृष्टांतो और प्रस्तुत सुबूतों की अलग से विस्तृत जांच किसी अन्य एजेंसी से करा लिया जाय। पर क्या केंद्र सरकार ऐसा करेगी ?
अंत मे दिल्ली के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने इन दंगों की चार्जशीट पर जो कहा, उसे पढ़ लें। ।
” जाँच पड़ताल और गवाहों के बयान से मालूम होता है कि ….मुसलमानों से बदला लेने के लिए, इस तरह के प्रचार के बेइंतहाई अहमकपन को समझने में असफल, उस इलाक़े के कुछ नौजवानों ने अपने समुदाय की रक्षा करने के नाम पर एक वहाट्सऐप ग्रुप बनाया। इन लोगों ने अपनी व्यक्तिमत्ता गँवा दी और एक भीड़ के दिमाग़ की तरह काम करने लगे। ‘जय श्री राम’ और ‘हर हर महादेव’ ने, जो पवित्र नारे हैं और जय का उद्घोष माने जाते हैं, इनके दिमाग़ कुंद कर दिए और उनके रचनात्मक स्वभाव को जैसे लकवा मार गया।….और तब भीड़ दंगाइयों में बदल गई….।’
चीफ़ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट पुरुषोत्तम पाठक ने फ़रवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान मारे गए आमिर ख़ान की हत्या के 11 अभियुक्तों के ख़िलाफ़ दायर की गई चार्जशीट का संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की।
( विजय शंकर सिंह )