सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। राजनेताओं की तरफ से गांधी परिवार की गणेश परिक्रमा पार्टी को ले डूबेगी। जिसकी वजह से कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र का खात्मा हो चला है। दिल्ली जैसे राज्य में पार्टी अपना जनाधार खो चुकी है। हाल में दिल्ली के आए चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की छिछालेदर करा दिया जबकि कांग्रेस और उसका शीर्ष नेतृत्व भाजपा की हार से खुश होता रहा। कांग्रेस और सोनिया गांधी ने बदली स्थितियों और पराजय के कारणों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। जबकि वह दिल्ली में रह कर पूरे देश में पार्टी को चलाती हैं। कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व इस समस्या के लिए खुद जिम्मेदार और जबाबदेह है। क्योंकि दस जनपथ पार्टी की कमान अपने हाथ से कभी नहीं देने जाना चाहता है। सोनिया गांधी को अच्छी तरह मालूम है कि अगर कांग्रेस जैसे दल से गांधी परिवार का नियंत्रण खत्म हुआ तो उसे अपने पारीवारिक अस्तित्व के लिए संघर्ष करना होगा। कांग्रेस में आज भी उन नेताओं की लंबी फेहरिश्त है जो गांधी परिवार के बेहद करीबी होने के नाते राज्यों में सत्ता की मलाई काटी। लेकिन तमाम राजनेता योग्य होने के बाद भी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए क्योंकि उन पर दस जनपथ का हाथ नहीं रहा। बदली परिस्थितियों में खत्म होती कांग्रेस कोई सबक नहीं लेना चाहती है। जिसकी वजह से उसका पतन हो रहा है। हालांकि कांग्रेस यह भी जमीनी सच्चाई है कि गांधी परिवार के इतर का कोई भी पार्टी अध्यक्ष वर्तमान दौर में पार्टी की एकता को बनाए नहीं रख सकता है। वैसे ऐसी बात भी नहीं है कि गांधी परिवार के अलग कोई दूसरा व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष नहीं हुआ है। कई बार दूसरे लोगों को भी पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया है। कांग्रेस में बढ़ती कलह और गुटबाजी को देखते हुए कोई दूसरा अध्यक्ष डूबती कांग्रेस को संभाल नहीं पाएगा। लेकिन एक बात तो तय है कि युवा सोचवाले नेता केंद्रीय नेतृत्व के लिए चुनौती बन रहे हैं। क्योंकि ऐसे राजनेताओं में भक्तवादी सोच नहीं होती है। पार्टी में विचारवादी सोच रखना चाहते हैं। वह कांग्रेस को एक निर्धारित छबि से बाहर निकालना चाहते हैं। कांग्रेस की राष्टीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को मध्यप्रदेश और राजस्थान में ज्योंतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट को राज्य के मुख्यमंत्री की कमान सौंपनी चाहिए थी। लेकिन हाईकमान चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाए। इसकी वजह भी होगी। क्योंकि कमलनाथ और अशोक गहलोत की छबि के आगे दोनों नेता कहीं भी नहीं ठहरते। लेकिन दोनों के पास नई सोच और भरपूर उर्जा है। प्रयोग के तौर पर एक बार पार्टी को यह प्रयोग अपनाना चाहिए था। केंद्रीय नेतृत्व को लगता था कि दोनों राज्यों में युवा नेताओं के हाथ कमान जाने के बाद गुटबाजी अधिक प्रखर हो सकती है, जिसे संभाला सिंधिया और पायलट के बूते की बात नहीं होती। दूसरी बात गांधी परिवार को कमलनाथ और गहलोत जैसे विश्वसनीय सिपहसालार भी नहीं मिल पाते। क्योंकि कमलनाथ इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाते हैं। इसी तरह अशोक गहलोत की भी है। हांलाकि जिम्मेदारी संभालते और युवाओं को अधिक से अधिक जोड़ते। जिसकी वजह से दोनों राज्य के मुख्यमंत्रियों के सामने कभी-कभी दोनों युवा चेहरे विपक्ष की भूमिका अदा करते हुए दिखते हैं। मध्यप्रदेश में हाल में मुख्यमंत्री और सिंधिया के मध्य छिड़ा शीतयुद्ध किसी से छुपा नहीं है। जबकि राजस्थान में बच्चों की मौत के मामले में सचिन पायलट अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं। इस तरह दोनों राज्यों में आतंरिक गुटबाजी और कलह जिस तरह सिखर पर आती दिखती हैं उससे यह नहीं लगता है कि यहां कांग्रेस और बेहतर प्रदर्शन करेगी। फिलहाल कांग्रेस को हरहाल में आतंरिक लोकतंत्र को मजबूत बनाना होगा। मध्यप्रदेश जैसे हालात से उबरना होगा। उसे दिल्ली की हार का हल निकालना होगा। अगर ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होती हैं तो आने वाला दिन कांग्रेस और उसके भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा।
प्रभुनाथ शुक्ल
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)