आईपीएस में ये सोच कर आया था कि जातिगत झगड़े में उलझे अपने इलाके को ठीक करूँगा। माहौल भले आदमी के रहने लायक बनाऊँगा। बाद में पता चला कि मुझे कहाँ क्या करना है इसका फैसला कहीं और से होगा, कोई और करेगा। सो इलाके का भला क्या करेंगे, आईपीएस के चक्कर में घर-बार, परिवार ही छूट गया। कैडर अलॉट्मेंट एक अबूझ प्रक्रिया है। किसको किधर भेजना है ये रोस्टर से तय होता है। घर से हजारों किलोमीटर दूर हरियाणा पहुँच गए। आँख अभी खुली ही थी कि दिमाग भी खुल गया। बड़े-बड़े घाघ बैठे थे। लोगों के झगड़े सुलझाने का काम तो कभी-कभी कृपा के तौर पर मिलती थी। ज्यादा समय तो अफसरों की जी-हुजूरी और दफ़्तर में मुंशीगिरी में निकलता था। वो भी पक्का नहीं कि कब तक। जीवन मेले में तारामाची पर बैठने जैसा हो गया। थोड़ा साँस लेने की गरज से भारत सरकार जाने की सोची। दिमाग लड़ाया कि पुलिस-पुलिस बहुत खेल लिया, कही और चलते हैं। कुछ और करते हैं। इसी फेर में ईडी पहुँच गए। इस समय तो बड़ा शोर है। तब ये ढहती इमारत थी। फेरा कानून में मनमर्ज़ी की सुविधा छिन जाने से अधिकारी-कर्मचारी बड़े दुखी थे। खोई चौधर दोबारा वापस लाने के जुगाड़ में मनी लॉंडरिंग एक्ट बन रहा था। उसी के रंग-रोगन में जुट गए। जो भी हो, चार साल अच्छे बीते। अव्वल तो ये पक्का था कि उधर ही रहना है। दूसरा, कुर्सी के चक्कर में दोस्ती का दम्भ भरने वाले ऐसे गायब हो गए जैसे कि गधे के सिर से सींग। तीसरे, वहाँ के अफसर लोहा सिंह दरोगा टाइप के नहीं थे जो लखना डकैत को पकड़ लेने की कहानी सुना-सुना कर पकाते। सब पर समय रहते काम पूरा करने का दबाव होता।
सारे अलग-अलग सर्विस से थे। कुछ समय इकट्ठे रह अपने-अपने रास्ते निकल लेना था। सो गलबहियों का ज्यादा स्कोप नहीं था। एक-दूसरे से हड़के ही रहते थे। खैर, देखते-देखते चार साल निकल गए। मनी लॉंडरिंग एक्ट चल पड़ा। पहला केस मेरे ही हिस्से आया। ड्रग-तस्करी में पकड़े गए एक पंजाबी मूल के कनाडियन नागरिक का था। उसकी सम्पत्ति जब्त करनी थी ये बोलकर कि ये ड्रग्स के धंधे की कमाई है। सोचा कोई नार्को टाइप का डॉन होगा। पकड़ा गया तो मरा चूहा निकला। सम्पत्ति भी कोई अकूत नहीं थी। बेटा हाल में ही गैंग-वार में मारा गया था। समझ में नहीं आ रहा था कि इसे उपलब्धि माने कि मानवीय त्रासदी खैर जब हरियाणा वापस लौटे तो महीने भर किसी ने पूछा ही नहीं। फिर एक दिन एसपी वेलफेयर लगा दिये गए। काम मृतक पुलिस के परिवारों को चिट्ठी लिखना, कभी दाह-संस्कार में शामिल होना था। ऐसा करने की मेरी कोई उम्र नहीं थी। अधेड़-बूढ़े और जुगाड़ वाले अपराधियों से लड़ने का काम देख रहे थे। इसके पहले कि मैं दार्शनिक भाव को प्राप्त होता, मेरी समयबद्ध पदोन्नति हो गई। क्राइम ब्रांच में डीआईजी लग गया। ये कोई मुंबई टाइप की एजेन्सी नहीं थी। यहाँ तो जिÞलों से केस ट्रान्स्फर होकर आते थे। मामला या तो किसी रसूखदार की मदद का होता या जिन मामलों में शोर-शराबा होता था तो लॉली पोप दे दी जाती थी कि मामला क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया है। एक कहने मात्र को एंटी-टेररिजम सेल भी था। मैंने सबको चिट्ठी लिखी कि अपने इलाके की खबर रखें। ज्यादा इंटेलिजेन्स के चक्कर में सैटलाईट को ना ताकते रहें। तब के एक प्रभावशाली अधिकारी को मेरी अंग्रेजी बड़ी पसंद आयी। बोले स्पोर्ट्स डायरेक्टर लगोगे? मैंने कभी सोचा नहीं था कि आतंकवाद-निरोधी चिट्ठी इस तरह की मार करेगी। वैसे, आतंकवाद से दुनिया त्रस्त है। लेकिन इस चक्कर में दुनिया-भर के नए रोजगार भी पैदा हुए हैं। जहां भी जाओ, सुरक्षा कर्मियों की फौज आपका स्वागत करेगी। आपकी सघन तलाशी होगी। मेटल डिटेक्टर आपके ऊपर-नीचे फेरा जाएगा। फिर एक मेटल डिटेक्टर रूपी सिंहद्वार से आपको गुजारा जाएगा। अगर हाई अलर्ट हो तो बारूद सूंघने वाला कुत्ता भी आप पर छोड़ दिया जाएगा। किसी ने सोचा नहीं था कि ये दिन भी आएगा। कहीं चमकदार जगह में घुसने के लिए अमीरों को गरीबों से एन.ओ.सी. लेनी पड़ेगी और इस बारे में लिखी चिट्ठी मुझे स्पोर्ट्स डायरेक्टर लगवा देगी। जब स्पोर्ट्स में आए तो यहाँ का नजारा ही कुछ और था। सबने अपनी-अपनी एसोसीएशन-फेडरेशन रूपी दुकान खोल रखी थी। ठग टाइप के लोग काबिज थे। जिन किन्ही को खेलों में कुछ करना था उन्हें इस पुल के नीचे से गुजरना पड़ता था। नामी खिलाड़ी धक्के खाए फिरते थे। सरकार ने कुछ मौज में उछाल दिया तो ठीक नहीं तो मारे फिरते थे। मैंने एक नीति की बात की। जब बनाने बैठे तो सरकार के बड़े-पुराने लोग घुस आए। वही घिसा-पिटा राग बजाने लगे। मैंने अंगद पाँव जमा दिया कि स्पोर्ट्स विभाग का पहला काम लोगों को खेलों के माध्यम से शारीरिक गतिविधियों के लिए प्रेरित करना है। फिर इस बात की व्यवस्था कि आर्थिक और सामाजिक रूप से दबे-कुचले भी खेलने का शौक पाल पाएँ, बड़े खिलाड़ी बनने का सपना देख पाएँ। तीसरे कि बड़े मेडल जीत आए खिलाड़ियों को पैसे दे दें, अफसर बना दें जिससे कि बाकी लोग भी खेलों की तरफ मुँह करें। लोगों ने बड़ा साथ दिया। सरकारी कर्मचारी बुरे नहीं हैं। अन्य की तरह उन्हें भी निश्चित दिशा और उधर लगे रहने की प्रेरणा चाहिए। अगर आपकी बात उनके समझ में आ गई और उन्होंने इसको अपना लिया तो अपना प्रयास सफल समझो। नहीं तो सिर धुनते रहो। अगर कोड़े-चाबुक से भला होना होता तो राजे-महाराजे और तानाशाह अब भी जमे रहते। धरती कब का स्वर्ग बन चुकी होती।
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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