बुधवार को उत्तर प्रदेश के ज़िला गौतमबुद्ध नगर के ज़ेवर इलाक़े से लौटते हुए, मैंने एक गाँव नुमा क़स्बे से कुछ सब्ज़ियाँ, फल और आनाज ख़रीदे। मज़े की बात, कि एकदम ताजी लौकी मुझे दस रुपए किलो मिली। तोरई, बैंगन भी यही भाव। देसी टमाटर 15 रुपए किलो और आलू 40 रुपए पसेरी यानी कुल आठ रुपए किलो। गेहूं 20 रुपए, दालें 50 रुपए और चना 40 रुपए किलो। ज्वार और मक्का 20-20 रुपए किलो। अब यही चीजें मैं दिल्ली या एनसीआर में ख़रीदता तो तीन से चार गुना ऊपर क़ीमत देनी पड़ती। यह हाल तब है, जब छोटा व्यापारी किसान से उसकी उपज ख़रीद कर शहर लाता है। लेकिन जब रिलायंस फ़्रेश, गोदरेज, मोर, ईज़ी डे आदि बड़े कारपोरेट घराने माल ख़रीद कर शहरी उपभोक्ताओं को बेचेंगे, तब इनका भाव क्या होगा, किसी को नहीं पता। इनके पास भंडारण की क्षमता है, इनके पास ट्रांसपोर्ट है और चीजों को फ़्रीज़र में रखने के सभी साधन।सरकार की नई कृषि नीतियों की सबसे बड़ी मार आम उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगी। जो लोग इसे किसान के ख़िलाफ़ ही समझ रहे हों, वे मुँह धो रखें। यूँ भी किसान का सबसे करीबी रिश्तेदार व्यापारी नहीं बल्कि वह उपभोक्ता है, जो उसकी उपज से अपना पेट भरता है। उसी ने किसान को अन्नदाता का नाम दिया है। व्यापारी तो किसान और उपभोक्ता के बीच की कड़ी है। मगर नए कृषि क़ानूनों ने यह रिश्ता समाप्त कर दिया है। अब किसान कच्चे माल का उत्पादक होगा, कारपोरेट उसके इस माल से पैक्ड प्रोडक्ट तैयार करेगा और वह उपभोक्ता को बेचेगा। अब किसान अन्नदाता नहीं रहेगा न उपभोक्ता के साथ उसका कोई भावनात्मक रिश्ता रहेगा। उपभोक्ता भूल जाएगा, कि गेहूं कब बोया जाता है अथवा अरहर कब पकती है। सरसों पेड़ पर उगती है, या उसका पौधा होता है? हमारा यह कृषि प्रधान भारत देश योरोप के देशों की तरह पत्थरों का देश समझा जाएगा अथवा चकाचौंध कर रहे कारपोरेट हाउसेज का। सरसों के पौधों से लहलहाते और पकी हुए गेहूं की बालियों को देख कर “अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है!” गाने वाले कवि अब मौन साध लेंगे। किसान संगठन भी अब मायूस हो जाएँगे या बाहर हो जाएँगे। किसान का नाता शहरी जीवन से एकदम समाप्त हो जाएगा। “उत्तम खेती मध्यम बान, निषिध चाकरी भीख निदान!” जैसे कहावतें भी अब भूल जाएँगे। अब किसान दूर कहीं फसल बोएगा और सुदूर शहर में बैठा उपभोक्ता उसको ख़रीदेगा। इस फसल की क़ीमत और उसकी उपलब्धता कारपोरेट तय करेगा। कुछ फसलें ग़ायब हो जाएँगी।
नई कृषि नीति न सिर्फ़ किसान से उसकी उपज छीनेगी, वरन कृषि की विविधता भी नष्ट कर देगी। अभी तक हम कम से कम दस तरह के आनाज और बीस तरह की दालें तथा तमाम क़िस्म के तेलों के बारे में जानते व समझते थे। हम आनाज माँगेंगे तो गेहूं का आटा मिलेगा, दाल माँगने पर अरहर और तेल माँगने पर किसी बड़ी कम्पनी का किसी भी बीज का तेल पकड़ा दिया जाएगा। चावल के नाम पर बासमती मिलेगा। गेहूं, चना, जौ, बाजरा, मक्का, ज्वार आदि का आटा अब अतीत की बात हो जाएगी।यह भी हो सकता है, कि आटा अब नंबर के आधार पर बिके। जैसे ए-62 या बी-68 के नाम से। दाल का नाम पी-44 हो और चावल 1124 के नाम से। तब आने वाली पीढ़ियाँ कैसे ज़ान पाएँगी, कि गेहूं का आकार कैसा होता है या चने का कैसा? ज्वार, बाजरा, मक्का और जौ में फ़र्क़ क्या है? अरहर के अलावा मूँग, उड़द, मसूर, काबुली चना, राजमा अथवा लोबिया व मटर भी दाल की तरह प्रयोग में लाई जाती हैं। या लोग भूल जाएँगे कि एक-एक दाल के अपने कई तरह के भेद हैं। जैसे उड़द काली भी होती है और हरी भी। इसी तरह मसूर लाल और भूरी दोनों तरह की होती है। चने की दाल भी खाई जाती है और आटा भी। चने से लड्डू भी बनते हैं और नमकीन भी। पेट ख़राब होने पर चना रामबाण है। अरहर में धुली मूँग मिला देने से अरहर की एसिडीटी ख़त्म हो जाती है। कौन बताएगा, कि मूँग की दाल रात को भी खाई जा सकती है। ये जो नानी-दादी के नुस्ख़े थे, लोग भूल जाएँगे। लोगों को फसलों की उपयोगिता और उसके औषधीय गुण विस्मृत हो जाएँगे।
कृषि उपजों से हमारा पेट ही नहीं भरता है, बल्कि इन आनाज, दाल व तिलहन खाने से हम निरोग भी रहते हैं, तथा हृष्ट-पुष्ट बनते हैं।पर यह तब ही सम्भव है, जब हमें यह पता हो, कि किस मौसम में और दिन के किस समय हमें क्या खाना है। जैसे शाम को ठंडा दही या छाछ वायुकारक (गैसियस) है। और सुबह नाश्ते में दाल, चावल नहीं खाना चाहिए। जाड़े के मौसम में दही और मट्ठा नुक़सान कर सकता है, तथा लू के मौसम में पूरियाँ। इसके अलावा भारत चूँकि एक उष्ण कटिबंधीय देश है, इसलिए यहाँ पर खान-पान में विविधता है। हमारी कहावतों और हज़ारों वर्ष से जो नुस्ख़े हमें पता चले हैं। उनमें हर महीने के लिहाज़ से खान-पान का निषेध भी निर्धारित है। जैसे मैदानी इलाक़ों में चैत्र (अप्रैल) में गुड़ खाने की मनाही है। तो इसके बाद बैशाख में तेल और जेठ (जून) में अनावश्यक रूप से पैदल घूमने का निषेध है। आषाढ़ के महीने में बेल न खाएँ और सावन में हरी पत्तेदार सब्ज़ी, भादों (अगस्त) से मट्ठा लेना बंद कर दें। क्वार (सितम्बर) में करेला नुक़सानदेह है तो कार्तिक में दही। अगहन के महीने में जीरा और पूस में धनिया खाने की मनाही है। माघ में मिश्री न खाएँ और फागुन में चना खाने पर रोक है। इन सब निषेध का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है, लेकिन यह अनुभव-जन्य विद्या है। नानी और दादी के नुस्ख़े हैं। अब खुद चिकित्सक भी इस अनुभव को मानते हैं। इससे स्पष्ट है, कि किसान की उपयोगिता सिर्फ़ उसके अन्नदाता रहने तक ही नहीं सीमित है, बल्कि वह सबसे बड़ा चिकित्सक है। किसी भी परंपरागत किसान परिवार में उपज की ये विशेषताएँ सबको पता होती हैं। कब कौन-सी वस्तु खाई जाए और कब उसे बिल्कुल न खाएँ। उसकी यही विशेषता उसे बाक़ी दुनियाँ के किसानों से अलग करती है। यहाँ किसान अपनी उपज को बेचने वाला व्यापारी नहीं, बल्कि पूरे देश के लोगों को स्वस्थ रखने वाला अन्नदाता है।
लेकिन अब नई किसान नीति किसान को उसकी उपज को बरतने वाले लोगों से दूर कर देगी। हालाँकि इसके प्रयास बहुत पहले से चल रहे थे। बस उसे अमली जामा अब पहनाया गया है। किसान का अपने उपभोक्ता से दूर हो जाना दुखद है। यद्यपि पहले भी किसान सीधे अपने उपभोक्ता से नहीं जुड़ा था। किंतु गाँव या पास के क़स्बे का अढ़तिया बीच की कड़ी बना हुआ था और इन दोनों को नियंत्रित करती थी, सरकार की नीतियाँ। यानी एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य वह नियंत्रक था, जो व्यापारी या अढ़तिए को यह छूट नहीं देता था, जो किसान की उपज मनमाने दाम पर ख़रीद ले। इसके लिए ही हर ज़िले में कृषि मंडियाँ भी थीं। वहाँ उपभोक्ता या ज़रूरतमंद व्यक्ति भी किसान की उपज को ख़रीद सकता था। अब सरकार लाख दवा करे कि एमएसपी बनी रहेगी, किंतु अब राज्य का कृषि विभाग उसकी ख़रीद को लेकर उत्सुक नहीं रहेगा। और तब आएँगी वे कारपोरेट कम्पनियाँ, जो किसान का यह कच्चा माल अपनी शर्तों पर ख़रीदेंगी फिर कहीं भी ये इस माल को ले जाकर उसे बेचेंगी, तथा अनाप-शनाप मुनाफ़ा कमाएँगी। जबकि वे इस कच्चे माल को बाज़ार के अनुरूप तैयार करने के लिए कोई बहुत मेहनत नहीं करेंगी, बस पैकिंग करेंगी। वे ट्रांसपोर्ट को नियंत्रित कर लेंगी और किसान की उपज के बिक्री मूल्य को भी, जो ख़रीद मूल्य से कई गुना अधिक होगा।
एमएसप पर ज़ोर न रहने से किसान तो पिसेगा ही, शहरी ख़रीददार भी भारी महंगाई की चपेट में आएगा। क्योंकि अब खाद्यान्न की क़ीमत पर भी कोई अंकुश नहीं रहेगा। अभी देखिए, सरकार गेहूं का समर्थन मूल्य 1900 रुपए क्विंटल रखती है। किंतु दिल्ली या अन्य बड़े शहरों में गेहूं की न्यूनतम क़ीमत 35 रुपए किलो है। यानी ख़रीद मूल्य का दुगना। अभी तो यह सुविधा है, कि उपभोक्ता की सीधी पहुँच भी किसान तक है, किंतु जब किसान इस फ़्रेम से बाहर हो जाएगा, तो कृषि जिंसों की क़ीमत कहाँ तक जाएगी, कुछ पता नहीं। इस तरह यह नई किसान नीति न सिर्फ़ किसान को चोट पहुँचाएगी, बल्कि आम उपभोक्ताओं को भी महंगाई के चंगुल में जकड़ लेगी।