1947 में भारत आज़ाद तो हुआ पर दो भागों में बंट कर। एक भाग धार्मिक आधार पर इस्लामी मुल्क बना, दूसरा भाग जिसने स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और भारतीय संस्कृति की आत्मा सर्वधर्म समभाव के मार्ग को चुना एक उदार और पंथनिरपेक्ष देश बना रहा। बंटवारे की बात जब चल रही थी तो शायद ही किसी को यह अंदाजा था कि देश धर्म के आधार पर, दुनिया का सबसे बड़ा हिंसक विस्थापन अपनी पहली आज़ाद सुबह को देखेगा। लेकिन हमने देखा। लाखों की हत्या, आगजनी, हिंसा, बर्बरता और करोड़ो का विस्थापन। इसे नियति का खेल कहें, या हमारे महान नेताओं का बौनापन, या अंग्रेजों की कुटिल चाल का सफल होना या सबकुछ मिलाजुलाकर कहें तो, यह वह सुबह नहीं थी, जिसकी उम्मीद हमने की थी। पर सुबह आयी और धीरे धीरे वह तमाम भी हो गयी। हमने अपनी राह पकड़ी और पाकिस्तान ने अपनी।
यह बात बिल्कुल सही है कि 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में और 1971 के बाद बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न हुआ है। पाकिस्तान में शुरुआत में यह उत्पीड़न, हिंदू, सिख और ईसाइयों का हुआ, फिर बाद में उत्पीड़ित जमात में, अहमदिया, शिया आदि गैर सुन्नी फिरके के इस्लामी मतावलंबी भी शामिल हो गए। यह उत्पीड़न धर्म के नाम हुआ है। इसका कारण धर्मांधता और धार्मिक कट्टरता रही है। 1971 के समय जब बांग्लादेश युद्ध हुआ तो बांग्लादेश से लाखों की संख्या में शरणार्थी भारत मे आये। इसमे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। 1971 में हुआ उत्पीड़न धर्म आधारित भी था और पाकिस्तान के दमन का परिणाम भी। इसी उत्पीड़न के दर्द से स्वतंत्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। जब बांग्लादेश बना तो सबसे पहले उसे एक स्वतंत्र देश के रूप मे मान्यता, भारत ने दी और फिर भूटान ने। बाद में रूस सहित 8 अन्य देश भी सामने आए और बांग्लादेश को एक सार्वभौम देश मान लिया गया। बाद में तो सभी देशों ने बांग्लादेश को मान्यता दे दी। अंत मे पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश को स्वतंत्र तथा संप्रभु राष्ट्र मान लिया । इस प्रकार धर्म राष्ट्र का आधार बन सकता है, यह सिद्धांत खंडित हो गया। सावरकर और जिन्ना के सिद्धांतों का यह सुखद अंत था।
आज़ादी के बाद जब भारत का संविधान बना तो नागरिकता के विंदु का भी उसमे समावेश किया गया। संविधान के अनुच्छेद 11 के अंतर्गत संसद को यह अधिकार दिया गया कि संसद नागरिकता के संबंध में मापदंड तय करे और एक विस्तृत कानून बनाये। क्योंकि देश बंट चुका था। दोनों ही देशों में धार्मिक आधार पर आबादी का विस्थापन जारी था। दंगे भी भड़क रहे थे। भारत सरकार शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य मे लगी थी। यह बेहद कठिन समय था। इसी अधिकार के अंतर्गत, संसद ने एक नागरिकता कानून, 1955 पारित किया। इस अधिनियम में यह बताया गया है कि 26 जनवरी, 1950 के बाद से भारत का नागरिक कौन होगा? कैसे उनकी नागरिकता समाप्त की जा सकती है।
नागरिकता अधिनियम, 1955 के अंतर्गत भारत का नागरिक होने की कुछ शर्तें हैं. इस कानून में नागरिकता के आधार तय किए गये हैैं। 1955 के नागरिकता अधिनियम में, जन्म को भारत की नागरिकता का आधार बताते हुए कहा गया कि
” अगर 26 जनवरी, 1950 के बाद किसी का जन्म भारत में हुआ है तो उसे भारत का नागरिक माना जाएगा । “
लेकिन इस नियम के बाद यह समस्या आ गयी कि माता पिता के बारे में कोई नियम या मानक नहीं किये गए थे। जन्म से नागरिकता के सिद्धांत के अनुसार, अगर किसी विदेशी का बच्चा भी भारत में पैदा होता, तो उसे अपने आप संवैधानिक तौर पर भारत की नागरिकता मिल जाती। फिर इस ऐक्ट में 1986 में संशोधन हुआ ।1986 के इस संशोधन में बताया गया कि 26 जनवरी, 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ शख्स भारत का नागरिक होगा लेकिन उसके माता-पिता दोनों का या उनमें से किसी एक का भारतीय नागरिक होना ज़रूरी है।
मूल अधिनियम में, यह भी कहा गया था कि
” 26 जनवरी, 1950 के बाद से विदेश में पैदा हुआ वो व्यक्ति भी भारत का नागरिक होगा जिसके पिता भारत के नागरिक होंगे “
लेकिन यह संशोधन लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण था क्योंकि पिता का उल्लेख तो था, पर माता का उल्लेख नहीं था। इसलिए 1992 में पुनः इस एक्ट में संशोधन हुआ और यह प्रावधान जुड़ा कि ‘ 26 जनवरी, 1950 के बाद से विदेश में पैदा हुआ वह व्यक्ति भारत का नागरिक माना जाएगा जिसके पिता या माता दोनों या दोनों में कोई एक भी भारत का नागरिक हो। “
इसके बाद एक संशोधन और हुआ. जिसमें जोड़ा गया कि नागरिकता तभी मिलेगी जब पैदा होने के साल भर के अंदर बच्चे को उस देश की भारतीय एम्बेसी में रजिस्टर कराया गया हो.
पंजीकरण के आधार पर भी भारत के नागरिक होने का अधिकार मिलने का नियम इस एक्ट में है. जैसे अगर किसी शख्स ने भारत के नागरिक से शादी की तो उसे भारत की नागरिकता मिलेगी. लेकिन इसके लिए शर्त ये थी कि जिस नागरिक से शादी हो रही है वो 7 साल से भारत में रह रहा हो.
साल 2003 में इस कानून में फिर संशोधन हुआ। जिसमें कहा गया कि,
” 26 जनवरी, 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ व्यक्ति भारत का नागरिक होगा लेकिन उसके माता और पिता दोनों भारत के नागरिक होने चाहिए, या माता-पिता में से एक भारत का नागरिक हो और दूसरा अवैध प्रवासी न हो. प्रवास के सारे क़ानूनी कागज़ात उसके पास होने चाहिए । “
नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत कोई भी अवैध प्रवासी भारत का नागरिक नहीं हो सकता है। इस एक्ट के तहत उन लोगों को अवैध प्रवासी माना जाएगा जो या तो बिना ज़रूरी कागज़ों के भारत में रह रहे हैं, या वीज़ा की अवधि ख़त्म होने के बाद भी भारत में रह रहे हैं। अवैध तौर पर रह रहे प्रवासी को द फॉरेनर्स एक्ट 1946 और द पासपोर्ट एक्ट 1920 के अनुसार, या तो जेल भेजा जा सकता है या उनके मूल देश डिपोर्ट किया जा सकता है।
इसी प्रकार नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता समाप्त करने के नियम भी तय किए गए थे। जैसे,
● स्वैच्छिक त्याग. यानी कोई, अपने आप ही, अपनी नागरिकता छोड़ दें.
● टर्मिनेशन. माने किसी की नागरिकता बर्ख़ास्त कर दी जाए। अगर किसी ने किसी अन्य देश की नागरिकता ले ली तो भारत की नागरिकता स्वतः खत्म हो जाएगी.
● अगर नागरिक किसी तरह के राष्ट्र विरोधी काम में लिप्त पाया जाता है, जैसे, किसी दुश्मन देश के लिए जासूसी कोई कर रहा हों या युद्ध में देश के ख़िलाफ़ काम कर रहा हो, तो उसकी नागरिकता रद्द की जा सकती है।
अब नागरिकता कानून 1955 में 2019 के संशोधन के पारित होने के बाद अब अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के अल्पसंख्यक बिना किसी वैध दस्तावेज के भारत में रहने के हकदार हो जाएंगे। पहले ऐसा होने के लिए उन्हें भारत में 12 साल शरणार्थी के तौर पर गुज़ारना होता था। लेकिन नए बिल के अनुसार, वह बस 7 साल में ही इसके लिए अर्ह हो जाएंगे। सरल शब्दों में कहें तो सरकार इस बिल के द्वारा ‘अवैध प्रवासियों’ की परिभाषा बदलने की तैयारी कर रही है। इस बिल को पहली बार लोकसभा में 15 जुलाई, 2016 को पेश किया गया था। लेकिन राज्यसभा में इसे पेश नहीं किया गया था।
कानून में जिन अल्पसंख्यक समुदाय का ज़िक्र है उसमें, पाकिस्तान, बांग्लादेश और आफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोग अल्पसंख्यक हैं। 4 जनवरी, 2019 को सिलचर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस बिल को पास कराने की बात की थी। क्योंकि असम में ऐसे लोगो की अच्छी खासी संख्या है, जो बांग्लादेश से आए हैं और धर्म से हिंदू हैं. अब उन्हें भारत में रहने का संवैधानिक हक मिल जाएगा। देश भर में, इस कानून के सम्बंध में, तर्क वितर्क हो रहा है, लेकिन विरोध में आवाज़ें ज़्यादा मुखर हो रही हैं। सरकार का कहना है कि
” जिन लोगों का धार्मिक आधार पर उत्पीड़न हो रहा है, संपत्तियां ज़ब्त की जा रही हैं, पूजा-पाठ पर हमले किए जा रहे हैं, महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है उन्हें सहज सरल तरीक़े से नागरिकता देना ही इस संशोधन का उद्देश्य है। इसे सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखना बंद किया जाना चाहिए। घुसपैठिए, घुसपैठिए होते हैं, उनमें जो लोग उत्पीड़न के कारण आते हैं, उनमें अंतर करना हमारा नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य बनता है। “
नागरिकता संशोधन बिल जब पेश हो ही रहा था तो, पूरे नॉर्थ-ईस्ट में भारी विरोध हो रहा है।असम के किसान नेता अखिल गोगोई जो अब यूएपीए के अंतर्गत निरुद्ध हैं, ने जब बिल पेश हो रहा था तो कहा था,
“भारत का संविधान हमारे सांसदों को भारतीय नागरिकों के हक में काम करने का अधिकार देता है लेकिन मौजूदा सरकार बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों के नागरिकों को यहां लाकर बसाने के लिए यह बिल लेकर आई है। भले ही इस बिल से असम के लोगों का जीवन खतरे में क्यों न पड़ जाए। यह बिल पूरी तरह से असंवैधानिक है और हम इसका विरोध करते है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में लिखा हुआ है कि धर्म के आधार पर किसी को नागरिकता नहीं दी जा सकती. भाजपा इस विधेयक के ज़रिए हिंदूत्व का एजेंडा मज़बूत करना चाहती है.”
इस कानूूून पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि
” यह कानून भारत के संविधान के मूल सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। भारत और पाकिस्तान जब दो देश बने थे तो पाकिस्तान मुसलमानों का देश बना था लेकिन हिंदुस्तान की कल्पना यह थी कि यह सभी धर्मों, जाति के लोगों के लिए बराबरी का देश होगा। “
इस कानून पर अंतरराष्ट्रीय जगत में भी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुयी है। पाकिस्तान और बांग्लादेश द्वारा की गयी आपत्तियों को दरकिनार भी कर दें तो संयुक्त राष्ट्र संगठन की आपत्ति को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय ने इस कानून पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा है कि,
” इस कानून की प्रकृति ही ‘मूल रूप से भेदभावपूर्ण’ है। नए नागरिकता कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का प्रावधान है। “
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय के प्रवक्ता जेरेमी लॉरेंस ने जेनेवा में कहा,
“‘हम भारत के नए नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 को लेकर चिंतित हैं, जिसकी प्रकृति ही मूल रूप से भेदभावपूर्ण है। “
उन्होंने आगे कहा,
” संशोधित कानून भारत के संविधान में निहित कानून के समक्ष समानता की प्रतिबद्धता को और अंतराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार नियम तथा नस्लीय भेदभाव उन्मूलन संधि में भारत के दायित्वों को कमतर करता दिखता है, जिनमें भारत एक पक्ष है जो नस्ल, जाति या धार्मिक आधार पर भेदभाव करने की मनाही करता है। “
यूएनओ के लॉरेंस ने आगे कहा कि
” भारत में नागरिकता प्रदान करने के व्यापक कानून अभी भी हैं, लेकिन ये संशोधन नागरिकता हासिल करने के लिए लोगों पर भेदभावपूर्ण असर डालेगा। प्रवास की स्थिति को देखे बिना, सभी प्रवासी सम्मान, संरक्षण और अपने मानवाधिकारों की पूर्ति के हकदार हैं। मात्र 12 महीने पहले ही भारत ने ‘ग्लोबल कॉम्पैक्ट फॉर सेफ, रेगुलर एंड ऑरडरली माइग्रेशन’ का समर्थन किया था। इसके तहत राज्य बचनबद्ध है कि वह सुरक्षा की स्थिति में प्रवासियों की जरूरतों पर प्रतिक्रिया देगा, मनमानी हिरासत और सामूहिक रूप से देश निकाले से बचेगा और सुनिश्चित करेगा कि प्रवासियों से संबंधित व्यवस्था मानवाधिकार आधारित हो। यह मजबूत राष्ट्रीय शरण प्रणाली के जरिए होना चाहिए था जो समानता और भेदभाव नहीं करने पर आधारित है। यह उन सभी लोगों पर लागू होना चाहिए जिन्हें वास्तव में उत्पीड़न और अन्य मानवाधिकारों के हनन से संरक्षण की जरूरत है और इसमें नस्ल, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता और अन्य का भेद नहीं होना चाहिए। हम समझते हैं कि भारत का उच्चतम न्यायालय नए कानून की समीक्षा करेगा और उम्मीद करते हैं कि भारत कानून की अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के साथ अनुकूलता पर सावधानीपूर्वक विचार करेगा। “
अब जरा इस कानून की पड़ताल संविधान के आलोक में करते हैं। नागरिकता कानून में यह संशोधन इजरायली होम लैंड की अवधारणा पर आधारित है। 1948 में इजरायल का जन्म यहूदियों के होमलैंड के रूप में हुआ था। इस संशोधन का आधार धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय का उत्पीड़न है। लेकिन सभी अल्पसंख्यक समुदायों का उल्लेख करते हुए मुस्लिम समाज को अलग कर दिया गया है। यह तर्क दिया गया है कि, वे तीनों देश जहां अल्पसंख्यक उत्पीडन होता है उनका राजधर्म इस्लाम है, और हिंदू, बौद्ध जैन सिख ईसाई पारसी का वहां उत्पीड़न होता है। उत्पीड़न तो शिया, अहमदिया आदि अल्पसंख्यक समुदायों का भी इन तीन देशों में होता है। उत्पीड़न तो नास्तिकों का सबसे अधिक होता है। अगर भारतीय धर्मो को शरण देने की भी बात है तो ईसाइयो को यह सुविधा क्यों दी जा रही है ? यह प्राविधान ही मुस्लिम विरोधी और स्वेच्छाचारी है, जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है।
किसी भी देश की नागरिकता उस देश के नागरिकों को जोड़ती है न कि, उसे धर्म और संप्रदाय के आधार पर विभाजित करती है। संविधान के अनुच्छेद 14 में नागरिकता देते समय या किसी भी नियम कानून को बनाते समय, तार्किक वर्गीकरण की बात की गयी है न कि स्वेच्छाचारी वर्गीकरण की। नए संशोधित कानून में जहां उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदायों में मुस्लिम को बाहर कर दिया है वह तार्किक वर्गीकरण नहीं बल्कि स्वेच्छाचारी वर्गीकरण का एक उदाहरण है। अनुच्छेद 14 की व्याख्या करते हुए 1973 में ईपी रोयप्पा ने कहा था कि, ” समानता एक गतिशील अवधारणा है जो हर दशा और परिस्थितियों में महत्वपूर्ण और विद्यमान रहती है। यह अपनी सैद्धान्तिक अवधारणा के अनुसार, ,न तो खंडित की जा सकती है और न हीं तोड़ी मरोड़ी जा सकती है। सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो, समानता, स्वेच्छाचारिता के बिल्कुल अलग खड़ी होती है। यदि कोई कार्य स्वेच्छाचारिता के भाव से किया जाता है तो, वह समानता के सिद्धांत के विपरीत ही होता है। जो अनुच्छेद 14 की मूल भावना के विपरीत है।
संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार कुछ अधिकार, हमे भारत के नागरिक होने के कारण मिले हैं, लेकिन अनुच्छेद 14 जो मौलिक अधिकारों के प्रारंभ में ही है के अंतर्गत प्रदत्त समानता का अधिकार, और अनुच्छेद, 21 के अंतर्गत प्रदत जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा से जीने का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट की एक व्याख्या के अनुसार, न केवल हम नागरिकों को प्राप्त है बल्कि उन सबको प्राप्त है जो इस देश मे रह रहे है, भले ही वे नागरिक न हों। चकमा शरणार्थियों की भी एक बड़ी समस्या से देश जूझ चुका है। चकमा एक जनजाति है जिसका उत्पीड़न बांग्लादेश में धर्म के आधार पर हुआ था। बहत से चकमा शरणार्थी उत्पीड़न से बचने के लिये भारत आये। उनके मानवाधिकार हनन के सवाल पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने, 1996 में अरुणाचल प्रदेश की सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसकीं सुनवायी करते हुए कहा था कि, बिना दस्तावेज के आये इन लोगों को भी, भले ही वे भारतीय नागरिक नहीं हैं तो भी, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीने और स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होगा।
समय समय पर भारत से घुसपैठ करके आने वालों को बांग्लादेश भेजा भी गया है। आज भी बांग्लादेश ने अपने नागरिकों को वापस लेने की बात की है। राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने 2005 से अब तक बांग्लादेश भेजे जाने वाले घुसपैठियों का विवरण दिया है। उस विवरण के अनुसार, यूपीए के कार्यकाल में कुल 82,728 बांग्लादेश के नागरिक जिन्होंने घुसपैठ किया था, वापस बांग्लादेश भेजे गए। इसी प्रकार एनडीए के कार्यकाल में, कुल 1822 घुसपैठियों को वापस बांग्लादेश भेजा गया है । यह वापसी भी तभी बांग्लादेश स्वीकार करता है जब उसे प्रमाण सहित यह बता दिया जाय कि यह बांग्लादेश का ही नागरिक है, अन्यथा दुनिया का कोई देश वापसी स्वीकार नहीं करता है। सरकार को इस दिशा में भी कदम उठाना चाहिये।
उचित तो यही है कि किसी भी घुसपैठिये को चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, नागरिकता नहीं देनी चाहिये। 1985 में जो असम समझौता हुआ है उसे माना जाना चाहिये। आज यदि सेलेक्टिव आधार पर नागरिकता दी और ली जाने लगेगी तो, घुसपैठ का एक अंतहीन सिलसिला चल निकलेगा। फिर यह समस्या हर कुछ सालों के अंतराल में आएगी और जो भी सरकार तब होगी अपने अपने राजनीतिक एजेंडे से नागरिकता देने लगेगी। वर्ष 1971 एक असामान्य परिस्थितियों का समय था। उसी असामान्यता को हल करने के लिए नियम बने । लेकिन, असामान्य परिस्थितियों के लिये बनाये गए नियम, सामान्य परिस्थितियों में लागू नहीं किये जा सकते हैं। सीएबी का विरोध इसलिए है कि यह कानून धर्म के आधार पर भेद करता है जो असंवैधानिक है। जहां तक नागरिकता देने का प्रश्न है नागरिकता अधिनियम 1955 के अंतर्गत सरकार को किसी भी नागरिक को नागरिकता देने का अधिकार है। पहले की सरकारों ने कुछ लोगों को नागरिकता दी भी है। पर इस तरह केवल, धार्मिक आधार पर नागरिकता कानून को संशोधित करना भविष्य के लिये खतरनाक हो सकता है।
( विजय शंकर सिंह )
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)