1978 में उत्तर प्रदेश की फतेहपुर लोकसभा सीट का उपचुनाव था। वहां पर कांग्रेस से प्रेमदत्त तिवारी चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस के लिए यह प्रतिष्ठा का चुनाव था क्योंकि 1977 की जनता लहर अपने साथ पूरी कांग्रेस को बहा ले गई थी। कांग्रेस रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीटें भी हार चुकी थी। इसलिए इंदिरा गांधी ने इस सीट पर पूरी ताकत लगा रखी थी।आसपास कई जिलों की कांग्रेस कमेटियों के पदाधिकारी वहां डेरा डाले थे। एक दिन बिन्दकी से जनसभा को संबोधित करने के बाद इंदिरा गांधी जब कानपुर की तरफ लौट रही थीं उस समय कानपुर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष नरेशचन्द्र चतुवेर्दी उनके साथ उन्हीं की कार में थे। वे कुछ अनमने-से कार में बैठे थे और उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। इंदिरा गांधी ने उनके उदास चेहरे को देखकर पूछा- क्या हो गया नरेश जी, उदास क्यों हो? पहले तो नरेश जी कुछ नहीं बोले, फिर उनके बार-बार जोर देने पर कहा कि मेरी शाल वहीं बिन्दकी में छूट गई है। पश्मीने की शाल थी। इंदिरा गांधी ने अपना काफिला रुकवाया और वापस बिन्दकी चलने का आदेश दिया। बिन्दकी काफी पीछे रह गया था मगर इंदिरा गांधी का आदेश कौन टाले। सब बिन्दकी पहुंचे। लेकिन वहां कहीं कोई शाल नहीं थी. नरेश जी परेशान, तब तक उनके ड्राइवर ने आकर बताया कि दादा शाल तो मैंने पहले ही गाड़ी में रख ली थी।
नरेशचन्द्र चतुवेर्दी यह किस्सा बताते हुए कहते थे कि हम सब डर गए कि अब इंदिरा गांधी बड़ी क्लास लेंगी पर वे कुछ नहीं बोलीं। बस इतना ही कहा कि नरेश जी शाल मिल गई! चलो अब कानपुर चलें। इंदिरा गांधी उस समय भले प्रधानमंत्री न रही हों पर उनका कद और व्यक्तित्त्व बहुत बड़ा था। लेकिन उनके स्वभाव में उतनी ही सहजता भी। यह ठीक है कि पश्मीने की शाल उस समय भी पांच हजार से कम की नहीं रहि होगी। आज के हिसाब से कम से कम दो लाख की. लेकिन मात्र इतनी कीमत के लिए इंदिरा गांधी द्वारा अपना काफिला रुकवा दिया जाना तथा वापस बिन्दकी जाना भी बड़ी बात थी। लेकिन यह शायद इंदिरा गांधी ही कर सकती थीं। इंदिरा गांधी की इस सहजता को। मैंने खुद काफी करीब से देखा है। और वह भी इन्हीं नरेश चन्द्र चतुवेर्दी के घर। दरअसल इंदिरा गांधी देश में जब भी कहीं जातीं तब वे किसी पांच सितारा होटल की बजाय सरकारी सर्किट हाउस अथवा पीडब्लूडी या सिंचाई विभाग के गेस्ट हाउस में ही ठहरतीं और अगर वहां भी खुदा-न-खास्ता जगह न मिले तो किसी कांग्रेस पदाधिकारी के घर पर रुकतीं। 1978 में ही बेलछी (बिहार का वह गांव जहां सवर्ण दबंगों ने कई दलितों के घर फूंक दिए थे और उन्हें मार दिया था) से लौटते हुए इंदिरा गांधी कानपुर आईंंं। किसी वजह से उन्हें सर्किट हाउस नहीं मिला तो वे शहर कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष नरेशचन्द्र चतुवेर्दी के घर पर ही रुकींं। वे उनके अशोक नगर स्थित मकान के तिमंजिले पर रुकी हुई थीं। एक सामान्य-सा मध्यवर्गीय मकान का एक कमरा, जिसमें बस तख्त पड़ा था और उसी पर रुई का एक गद्दा। इंदिरा जी उसी पर बज्रासन की मुद्रा में बैठी थीं। तीसरी दुनिया की सबसे ताकतवर और सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता का यह अंदाज लुभाने वाला था। जैसा कि सब कर रहे थे मैने भी उनके चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। उन्होंने नाम पूछा और कहा- क्या करते हो? मैने कहा पढ़ाई खत्म कर पत्र-पत्रिकाओं में लिखना-पढ़ा शुरू किया है। वे खुश हुईं और बोलीं कि जीवन में दो बातें याद रखना कभी भेदभाव न करना, न धर्म के नाम पर न जाति के नाम पर न अमीर-गरीब के नाम पर और यह भी कि गरीब के लिए ज्यादा लिखना। मैने उनकी बात गांठ बांध ली।
यह भी दिलचस्प है कि जीवन में मैं कभी भी जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई या चरण सिंह अथवा डॉक्टर मनमोहन सिंह से नहीं मिला। लेकिन जिन प्रधानमंत्रियों के साथ भोजन किया उनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, एचडी देवगौड़ा, इंदर गुजराल और अटलबिहारी बाजपेयी हैं। इनमें से हर किसी के साथ मेरी मुलाकात बतौर पत्रकार नहीं बल्कि बतौर इंसान हुई है। इंदिरा गांधी के अंदर इन सभी से अधिक सादगी और ईमानदारी थी। वे जो कहती थीं उसे अमल में लाती थीं। वे गरीबों की मसीहा थीं और उनकी हर योजना के केंद्र में गरीब होता था और गरीब को ही ध्यान में रखकर बनाई जाती थी। मैने जब इस घटना के बाद 1983 में इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक जनसत्ता में बतौर पत्रकार कैरियर की शुरूआत की तब तक इंदिरा गांधी पुन: प्रधानमंत्री हो चुकी थीं। उस वक़्त मैं दिल्ली की लोदी कालोनी में रहता था. एक दिन सुबह-सुबह पैदल ही प्रधानमंत्री आवास एक सफदरजंग पहुंच गया। दर्शनार्थियों की लाइन लगी थी। मेरा नंबर आया तो मैने बताया कि मैं यहां जनसत्ता में उप संपादक बन कर आया हूं और आप से कानपुर में नरेश जी के आवास पर मिला था। खुश हुईं और कहा नाश्ता कर के जाना। बाद में उनके साथ फोटो भी खिंचाई एकदम उनके पास खड़े होकर। बस वह आखिरी मुलाकात थी। उसके बाद इंदिरा जी से कभी नहीं मिल सका. आपरेशन ब्लू स्टार के बाद से ही उनकी सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी और आम आदमी का उनके समीप जाना मुश्किल हो गया था। फिर उनके उन अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी जिन अंगरक्षकों पर इंदिरा जी को कतई शक नहीं था। उनकी हत्या के बाद तो किसी भी व्यक्ति का प्रधानमंत्री से मिलना तो दूर अब सामान्य और भले आदमियों को तो पुलिस वाले प्रधानमंत्री आवास की सड़क तक पर नहीं चलने देते।
हम भूल ही गए थे कि इंदिरा गांधी के अलावा कोई पीएम बन भी सकता है। उन्होंने प्रीवीपर्स समाप्त किया और हजारों-हजार राजे रजवाड़ों, ठाकरों तथा सामंती मानसिकता वाले लोगों को अपना दुश्मन बनाया पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने खड़ा हो सके। उन्होंने एक झटके में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और सारे जमे-जमाए मंझोले किस्म के पूंजीपति ढेर कर दिए। उन्होंने पंजाब से भिडरांवाले का आतंक जड़ से खत्म कर दिया. और बता दिया कि इंदिरा गांधी के लिए सारे धर्मावलंबी समान हैं। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया और इसी का प्रतिफलन था कि गांवों में पिछड़ी जातियों को उपज का वाजिब मूल्य मिला तथा वे स्वयं अपनी उपज शहर जाकर बेचने लगे। यह इंदिरा जी का ही कमाल था जो पिछड़ी जातियां पैसे के मामले में इतनी संपन्न हो गईं कि नौकरियों में आरक्षण की मांग करने लगीं तथा उसे पाया भी। आज दलित अगर सत्ता तक पहुंच पाए तो इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ अभियान के तहत ही। यह इंदिरा गांधी की ही देन है कि जिन श्री नरेंद्र मोदी ने चाय बेचकर अपना बचपन गुजारा वे आज देश के प्रधानमंत्री हैं। क्योंकि गरीब आदमियों को वाणी देने का काम इंदिरा जी ने किया था। इंदिरा जी को देखने के लिए लोग व्यग्र हो जाते थे। वे हार कर भी हीरो रहीं और जीतने के बाद तो खैर हीरो थी हीं।
इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी लगाया जाना एक ऐसी घटना है जिसके चलते उन्हें लोकतंत्र का शत्रु और निरंकुश तानाशाह मान लिया जाता है। मगर उस इमरजेंसी के पीछे विश्व के नक़्शे पर सुपर पावर के तौर पर अमेरिका का एकाधिकार बढ़ते जाना भी था। सोवियत संघ कमजोर पड़ रहा था और अमेरिका एशिया के निर्गुट देशों को अपने पाले में लाने को व्यग्र था। छोटे देशों पर तो उसने सीधे सैन्य कार्रवाई की थी लेकिन भारत को दबाना आसान नहीं था। 1971 में पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान टूट कर बांग्ला देश बन जाने से दक्षिण एशिया में अमेरिकी जड़ें कमजोर पड़ रही थीं। चूंकि बांग्ला देश को बनवाने में भारत की भूमिका को अमेरिका समझ रहा था इसलिए उसने हिन्द महासागर में अपना सातवां बेड़ा उतार दिया। तब सोवियत संघ भारत के समर्थन में खुल कर सामने आ गया और अमेरिका को मुंह की खानी पड़ी। इंदिरा गांधी के रहते भारत अमेरिका के काबू में आने से रहा उलटे भारत के विपक्षी दल भी 1971 की इंदिरा गांधी के अर्दब में थे. यहां तक कि प्रमुख विपक्षी दल जनसंघ के प्रखर नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को शक्ति की देवी दुर्गा का साक्षात रूप बता दिया था। ऐसे में इंदिरा गांधी के घर से संजय गांधी का उदय और परिवार में विघटन तथा एक माँ के रूप में इंदिरा गांधी का जो रूप सामने आया उसके चलते ेंश में इमरजेंसी लगी। इंदिरा गांधी के सारे करीबी लोग उनसे छिटकने लगे थे. ऐसे में हालत को न समझ पाना ही इमरजेंसी का कारण बना। लेकिन इससे न तो लोकतंत्र में उनकी निष्ठा खत्म हो जाने का प्रमाण मिलता है न उनके तानाशाह बन जाने का. संभवत: हालात को भांपने में वे अवश्य नाकाम रहीं।अगर वे अमेरिकी कूटनीति को समझ पातीं तथा भारत में सुपर पावर की दखल तथा खेल को समझतीं तो शायद वे इमरजेंसी न लगातीं।
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