ताइवान जलडमरूमध्य और दक्षिण चीन सागर के मामले में सयुंक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच युद्ध की नौबत ला दी है। लद्दाख और सिक्किम में इंपीरिटी आर्मी (पीएडीए) ने अपनी ‘अग्रिम नीति’ में तेजी लाई है, इन दोनों सीमा रेखा को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने एक नई दिशा दी थी।
उन्होंने इस विश्वास पर अमल किया था कि दूसरे पक्ष को फौज द्वारा ‘आक्रामक गश्ती’ के माध्यम से भूमि की समाप्ति पर काबू पाने की कभी इच्छा नहीं की जाएगी। भारतीय अर्थव्यवस्था में 2016 के अंत से धीमा हो जाने तथा ॠऌद रावलपिंडी की हरकतें ने चेंगदू में जनरलों को इस बात के लिए प्रेरित किया होगा कि अगली नीति अपनाने से दोनों की नीति में कोई भी दो-तीन तरह का झटका नहीं होगा। बी एन. मुलिक ने कल्पना की थी कि माओ की चीन कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के साथ की कठिनाइयों और आर्थिक दुखदायी चीन को उस समय अस्थायी स्थिति में पीएलए को उस समय कुछ फीट जमीन पर निबटने की रणनीति का जवाब देने से रोका जायेगा। उनका कहना गलत था। अब लद्दाख और सिक्किम में क्या हो रहा है? इसके बाद पीएलए नेतृत्व आश्चर्यचकित हो सकता है। भारत की सीमा के दो हिस्सों में चार से पांच किलोमीटर तक गहरा धक्का अस्वीकार्य है और इसके विपरीत डोकलाम के चलते दोनों तरफ संघर्ष हो सकता है। चीनी साइड के द्वारा दूसरी कहानी की (कुछ जानबूझकर कहेंगे) त्रुटियों में अपना विश्वास रखे हुए हैं। इस नेटवर्क ने अब तक भारत और अमरीका के बीच एक मजबूत रक्षा और सुरक्षा समझ को रोकने में सफलता पाई है, जो चीन की बराबरी करने वाली दूसरी ही ताकत है। इस अपरिहार्य गठबंधन में प्रगति के प्रमुख तत्व नीदरलैंड की नौकरशाही बाधाओं के कारण फंस गए हैं। शी जिनपिंग को जो सबसे ज्यादा मदद मिल सकती है, वह है भारत को अमेरिका के साथ खास सैनिक गठबंधन से रोकना। पहले पाकिस्तान ने बीजिंग और वाशिंगटन दोनों के साथ उस समय से घनिष्ठ संबंध बनाने में सफलता पाई जब दोनों देशों की जनता इसके विरोध में थीं। सन् 1972 में अमेरिका और चीन ने वास्तविक सहयोगी बन जाने के बाद रावलपिंडी अत्यंत प्रसन्न हुआ था। सौभाग्य से भारत के लिए उस लम्बे समय से चली आ रही पीएलए की रावलपिंडी को पहले भारत संघ से और बाद में भारत के अन्य भागों से कश्मीर को अलग करने में सफलता नहीं मिली थी। यह डीपी धर का मास्टरस्ट्रोक था। उन्होंने भारत और सोवियत रूस के बीच की संधि के माध्यम से सुनिश्चित किया कि चीन (हेनरी के समर्थन में तीव्र प्रोत्साहन के बावजूद) 1971 के संयुक्त आॅपरेशन में से मुक्तिवाहिनी और भारतीय सशस्त्र सेनाओं को नरसंहार से पूर्व बंगालियों को आजाद कराने के लिए छोड़ा। इस बार चीन के साथ टकराव के खिलाफ ऐसे ही कदम की जरूरत है। हालांकि इस बार वाशिंगटन की बजाय मोस्को है। एक एकात्मक राज्य के रूप में पाकिस्तान अपनी स्थिरता को फिर से प्राप्त नहीं कर सकता। पश्टुन समुदाय को ड़ूरंड़ रेखा द्वारा उस संधि के अनुसार कृत्रिम और क्रूर विभाजन का शिकार होना पड़ रहा है, जिसने बहुत पहले ही अपनी समाप्ति तिथि को बीत चुका था। पेशावर को राजधानी बनाकर और अफगानिस्तान के बाकी हिस्सों में काबुल के साथ गठजोड़ बनाने की जरूरत है। पाकिस्तान के सिंध में ॠऌद का दमन, बलूचिस्तान और पश्तुस्तान का अंत होना चाहिए और यह सुनिश्चित करने में मदद के लिए भारत को ऐसी दमित राष्ट्रीयताओं की मदद करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय मिली-जुली मिली मदद की जरूरत है, जो पाकिस्तान की सेना द्वारा दमन से छुटकारा पाने में मदद करे, भारत उससे अलग थलग रहकर काम नहीं कर रहा है। इसके अलवा, नई दिल्ली को एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय गठबंधन का अंग बनाना होगा जो पाकिस्तान में चली आ रही औपनिवेशिक उपनिवेशवाद का विरोध करने के लिए एकजुट हो जाए। इस तरह के गठबंधन को भारत-प्रशांत क्षेत्र के जल पर अपनी प्रमुखता को सुनिश्चित करना होगा, क़्योंकि यह स्तंभकार प्रारंभ से ही प्रशांत महासागर और हिंद महासागरों की संपूर्णता को प्रकट करता है। चतुर्भुज अलाइ (टोक्यो, दिल्ली, कैनबर और वाशिंगटन) एक नए भारत में अपना सहयोग कर सकते हैं।
21 वीं सदी के भारत में भारत-प्रशांत के सभी लोकतंत्रों तथा विरोधी शक्तियों के हस्तक्षेप के खतरे के सम्मुख संबद्ध शक्तियों की सुरक्षा की गारंटी होगी। इससे भारत-प्रशांत महासागर के भीतर व्यापार और समुद्री यात्रा की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी। ये सहमति चार राजधानियों में से किसी एक में नहीं हो सकती, बल्कि श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में जिस देश को अपनी सामरिक संभाव्यता के मद्देनजर भारत-प्रशांत सुरक्षा ग्रिड में लने की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी को इस बारे में विजय पानी चाहिए और अब ऐसे चतुर्भुज गठजोड़ को साकार करने की जरूरत है, जो सिर्फ तस्वीर बनाने से ही नहीं बचा है। इसके बाद अलाइ को भारत-प्रशांत चार्टर की घोषणा करनी चाहिए, जो 21 वीं सदी में अटलांटिक चार्टर की भूमिका अदा करेगा।इनका उद्देश्य छोटे राज्यों की रक्षा करना और दोनों महाशक्तियों को एक दूसरे के विरूद्ध युद्ध में जाने से रोकना है। महाशक्तियों के बीच युद्ध का आकस्मिक खतरा कभी मास्को और वाशिंगटन के बीच था, लेकिन अब यह वाशिंगटन और बीजिंग के बीच है। हिमालय के पार ताइवान जलपोत और दक्षिण चीन समुद्र में तनाव के बीज बोया जा रहा है जिसे ऐसे संघर्ष में विकसित नहीं होने दिया जाना चाहिए जिसमें दो वर्तमान महाशक्ति-चीन और अमरीका और दो भावी महाशक्तियों, रूस और भारत शामिल होंगे। यह स्पष्ट है कि रूस चीन की ओर है और इसके चलते राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पूर्व चुनावों के अटलांटिस्ट्स के छेड़छाड़ में भारत-प्रशांत महासागर से भारत-प्रशांत बनने की प्राथमिकताएं बदल दी हैं। अगर यह भी तय है कि ऐसे टकराव में भारत अमेरिकी पक्ष का होगा तो चीन और भारत के बीच टकराव होगा या अमेरिका और चीन के बीच लड़ाई को टाला जा सकता है।
(लेखक द संडे गार्डियन के संपादकीय निदेशक हैं। )
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