लद्दाख के अग्रवर्ती क्षेत्रों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तथा घरेलू मोर्चे में अनेक संदेश भेजे हैं।सैनिकों और अधिकारियों के साथ मोदी की मुलकातें, जो गलवान घाटी के आसपास के नवीनतम भारतीय-चीन विवाद के रंगमंच से ज्यादा दूर नहीं थी, का उद्देश्य चीनी से बातचीत करना था कि भारत अपने विस्तारवादी साहसिक कार्यों को कभी सहन नहीं करेगा और अपनी सारी ताकत के साथ अपने क्षेत्र में आतंक की रक्षा और उन्हें खदेड़ देगा।
प्रधान मंत्री द्वारा युद्ध के मैदान से चीन को दी जाने वाली स्पष्ट चेतावनी से पता चलता है कि इस क्षेत्र में और भी कई देशों का ध्यान इस क्षेत्र में आ रहा है जहाँ चीनी के सामने इसी तरह की समस्याएं हैं। दूसरे शब्दों में, मोदी ने पहल की है, ताकि चीन विरोधी मोर्चा के लिए किसी भी, जिसे जापान, वियतनाम, मलेशिया और ताइवान सहित प्रभावित देशों द्वारा बनाया जा सके, एकजुट होने का मुद्दा बन सके।प्रधानमंत्री के आक्रामक भाषण ने चीन के नाम से जिक्र नहीं किया फिर भी विस्तार की बात करते समय उसकी अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट हो गई।
इसके बजाय उन्होंने विकास की कार्यसूची में आगे बढ़ने की आवश्यकता पर बल दिया।हालंकि मोदी ने अपनी खास शैली में ही अपने क्षेत्र के साथ अपनी पहचान करने का मौका भी दिया, जिसमें उनका राष्ट्रवाद पर भरोसा भी है। साथ ही साथ यह भी संकेत मिलता है कि जब तक चीन जल्दबाजी के बाद उन क्षेत्रों से, जो उनके नहीं थे, अलग हट जाय। कई विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को चीन को यह समज्ह लेने के लिए कड़े कदम उठाना होगा कि वे अपनी कुटिल ड़िजाइन जारी नहीं रख सकते। मोदी, ठीक है, ऐसा किया है।सशस्त्र बलों के प्रति अपने संबोधन के मुखर रुख ने भारत की शत्रु का सामना करने की तैयारियों को व्यक्त किया है और इस अत्यंत संवेदनशील माहौल में इसके महत्व को कम करना एक मूर्खता होगी।कई विश्लेषकों का मत है कि सरकार को इस तरह की प्रतिक्रिया कुछ सप्ताह पहले लेनी चाहिए थी जब चीन ने गैलवान घाटी क्षेत्र में हमारे इलाके में घुसपैठ की थी और भारत के सभी क्षेत्रों पर विवाद खड़ा कर दिया था।हालांकि, थोड़ी देर बाद यह प्रतिक्रिया अपने उद्देश्य को पूरा करेगी। अनेक सिनोलॉजिस्ट मानते हैं कि राष्ट्रपति जिनपिंगने माओ के व्यक्तित्व के आसपास खुद को गढ़ा था। और इस तरह वह ‘बंदूक की बैरल से निकलने वाली शक्ति’ का पक्का समर्थक था।माओ की उस तरह जैसे 1950 और 1960 के दशक में जनता का ध्यान तिब्बत और भारत के प्रभुसत्ता संपन्न क्षेत्र में प्रवेश करके उसके असफल प्रयोगों से हटा दिया था, वैसे ही राष्ट्रपति जिनपिंग भी ऐसी ही चालें अपना रहे हैं।
उन्हें मालूम है कि चीन में अनेक महत्वाकांक्षी नेता जीवन भर रहने की घोषणा से बेहद गद्देदार हैं। हो सकता है कि चीनी प्रतिष्ठान के ऊंचे तबके में ही एक जोरदार ताकत चल रही हो। भारतीयों को मोदी से बहुत उम्मीदें हैं और शायद वे संघर्ष-क्षेत्र की निकटता को स्पष्ट करके उन तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं।उनके आलोचकों का कहना है कि प्रधानमंत्री का लद्दाख यात्रा सिर्फ तस्वीर का अवसर था और उससे आगे कोई मायने नहीं रखता था।वे देखते हैं कि वे नागरिकों को ऐसी भारी-भारी गलतफहमी से केंद्र में लने की कोशिश कर रहे हैं, जो पिछले 19 साल की हालत से जुड़ी है।
इस तरह सिर्फ राष्ट्रवाद और आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर एकमात्र मुद्दा नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री का इस समीक्षा का समय सही नहीं है, क़्योंकि अपने विस्तारवादी पड़ोसी से भारत पूरे पैमाने पर लड़ई शुरू कर रहा था। इस समय, पूर्ण एकता प्रदर्शित करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में कांग्रेस को अन्य विपक्षी दलों का अनुसरण करना चाहिए जिन्होंने सामूहिक रूप से चीन के मुद्दे पर सरकार की वापसी का फैसला किया।गैर-जिम्मेदार बयानों की जरूरत नहीं है और अगर सरकार लड़खड़ाती है तो उसे बाद में शुरू करने के पर्याप्त अवसर मिलेंगे। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के स्थान पर मोदी की अग्रिम क्षेत्रों की यात्रा, जो मूलत: शुक्रवार को वहां रहने वाले माने जाते थे, राजनीतिक हलकों में भी व्याख्या करने को तैयार है। राजनाथ सिंह के आकार में भारी गिरावट ही हैं, जिनकी वजह से कैबिनेट में फेरबदल की योजना अगले कुछ दिनों में हो सकता है। सच तो यह है कि अमित शाह उनके स्थान पर आंतरिक सुरक्षा प्रभाग को एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में अलग करने के लिए गृह मंत्रालय का विभाजन कर सकते हैं।
प्रधानमंत्री को अफवाहों का बहिष्कार करना चाहिए, जिनसे यह पता चलता है कि जब जून के मध्य में चीन के साथ टकराव होता तो रक्षा मंत्रालय के कई ऐसे महत्वपूर्ण अधिकारियों को, जिन्हें लूप में रहना चाहिए था, महत्वपूर्ण गतिविधियों की जानकारी नहीं थी। यह विचार बिलकुल निराधार मालूम पड़ता है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों के दौरों को तोड़ता रहा है, इसलिए इसके लिए एक मजबूत और तगड़ा खंडन आवश्यक है।सही बात यह है कि जहां तक देश की सुरक्षा, एकता तथा संप्रभुता का संबंध है, पूरे देश को राजनीतिक मतभेदों की परवाह किए बिना एक के रूप में खड़ा होना चाहिए।
यह अतीत में भी अभ्यास किया गया है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चीन से निपटते समय सीमा विवाद को व्यापार और व्यापार से अलग करने का कोई प्रयास न हो।यदि चीन ने समर्पण न किया हो तो उसका राजनैतिक, सैन्य दृष्टि से और आर्थिक रूप से सही उत्तर दिया जाना चाहिए।
(लेखक द संडे गार्डियन के प्रबंध संपादक हैंं।)
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