पर्यावरण के लिए प्लास्टिक कचरा एक चुनौती के रूप में उभर रहा है। अब तक बने सारे कानून और नियम सिर्फ किताबी साबित हो रहे हैं। पारिस्थितिकी असंतुलन को हम नहीं समझ पा रहे हैं। प्लास्टिक कचरे का बढ़ता अंबार मानवीय सभ्यता के लिए सबसे बड़े संकट के रूप में उभर रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, प्लास्टिक नष्ट होने में 500 से 1000 साल तक लग जाते हैं। दुनिया में हर साल 80 से 120 अरब डॉलर का प्लास्टिक बर्बाद होता है, जिसकी वजह से प्लास्टिक उद्योग पर रिसाइकिल कर पुन: प्लास्टिक तैयार करने का दबाब अधिक रहता है, जबकि 40 फीसदी प्लास्टिक का उपयोग सिर्फ एक बार के उपयोग के लिए किया जाता है।
महानगरों से निकलता प्लास्टिक कचरा जहां पर्यावरण का गला घोंटने पर उतारु हैं, वहीं इंसानी सभ्यता और जीवन के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है। दिल्ली में दो साल पूर्व एक घटना सामने आई जब प्लास्टिक और सामान्य कचरे ने पहाड़ की शक्ल ले लिया। जिसके गिरने से पूर्वी दिल्ली के तीन लोगों की मौत हो गई थी। प्रदूषण के खिलाफ छिड़ी जंग को अभी तक जमींन नहीं मिल पाई। वह मंचीय और भाषण बाजी तक सिमट गया। दिल्ली और देश के दूसरे महानगरों के साथ गांवों में बढ़ते प्लास्टिक कचरे का निदान कैसे होगा, इस पर कोई बहस नहीं दिखती है। राज्यों की अदालतों और सरकारों की तरफ से प्लास्टिक संस्कृति पर विराम लगाने के लिए कई फैसले और दिशा निर्देश आए, लेकिन इसका कोई फायदा होता नहीं दिखा। दूसरी तरह आधुनिक जीवन शैली और गायब होती झोला संस्कृति इसकी सबसे बड़ा कारक है।
भारत में प्लास्टिक का प्रवेश लगभग 60 के दशक में हुआ। संभावना यह भी जताई गई थी कि इसी तरह उपयोग बढ़ता रहा तो जल्द ही यह 22 हजार टन तक पहुंच जाएगा। भारत में जिन इकाईयों के पास यह दोबारा रिसाइकिल के लिए जाता है, वहां प्रतिदिन 1,000 टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है। जिसका 75 फीसदी भाग कम मूल्य की चप्पलों के निर्माण में खपता है। 1991 में भारत में इसका उत्पादन नौ लाख टन था। आर्थिक उदारीकरण की वजह से प्लास्टिक को अधिक बढ़ावा मिल रहा है। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, समुद्र में प्लास्टिक कचरे के रूप में 5,000 अरब टुकड़े तैर रहे हैं। अधिक वक्त बीतने के बाद यह टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक में तब्दील हो गए हैं। जीव विज्ञानियों के अनुसार, समुद्र तल पर तैरने वाला यह भाग कुल प्लास्टिक का सिर्फ एक फीसदी है, जबकि 99 फीसदी समुद्री जीवों के पेट में है या फिर समुद्र तल में छुपा है। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगी। दुनिया के 40 देशों में प्लास्टिक पर पूर्णरुप से प्रतिबंध है। जिन देशों में प्लास्टिक पूर्ण प्रतिबंध है, उनमें फ्रांस, चीन, इटली और रवांडा, केन्या जैसे मुल्क शामिल हैं, लेकिन भारत में इस पर लचीला रुख अपनाया जा रहा है। जबकि यूरोपीय आयोग का प्रस्ताव था कि यूरोप में हर साल प्लास्टिक का उपयोग कम किया जाए। यूरोपीय समूह के देशों में हर साल आठ लाख टन प्लास्टिक बैग यानी थैले का उपयोग होता है। जबकि इनका उपयोग सिर्फ एक बार किया जाता है। 2010 में यहां के लोगों ने प्रति व्यक्ति औसत 191 प्लास्टिक थैले का उपयोग किया। इस बारे में यूरोपीय आयोग का विचार था कि इसमें केवल छह प्रतिशत को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाया जाता है। यहां हर साल चार अरब से अधिक प्लास्टिक बैग फेंक दिए जाते हैं। भारत भी प्लास्टिक के उपयोग से पीछे नहीं है। देश में हर साल तकरीबन 56 लाख टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन होता है, जिसमें से लगभग 9205 टन प्लास्टिक को रिसाइकिल कर दोबारा उपयोग में लाया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, देश के चार मातृ नगरों, दिल्ली में हर रोज 690 टन जबकि चेन्नई में 429 और कोलकाता में 426 टन के साथ मुंबई में 408 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा फेंका जाता है। वैज्ञानिकों के विचार में प्लास्टिक का बढ़ता यह कचरा प्रशांत महासागर में प्लास्टिक सूप की शक्ल ले रहा है। अमेरिका जैसे विकसित देश में कागज के बैग बेहद लोकप्रिय हैं। वास्तव में प्लास्टिक हमारे लिए उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक की स्थितियों में खतरनाक है। इसका निर्माण पेटोलियम से प्राप्त रसायनों से होता है। पर्यावरणीय लिहाज से यह किसी भी स्थिति में इंसानी सभ्यता के लिए बड़ा खतरा है।
प्लास्टिक कचरे का दोबारा उत्पादन आसानी से संभव नहीं होता है क्योंकि इनके जलाने से जहां जहरीली गैस निकलती है। वहीं यह मिट्टी में पहुंच भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट करता है। दूसरी तरफ, मवेशियों के पेट में जान से नुकसान जानलेवा साबित होता है। प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कठोर फैसले लेने होंगे। तभी हम महानगरों में बनते प्लास्टिक यानी कचरों के पहाड़ को रोक सकते हैं। वक्त रहते हम नहीं चेते, तो हमारा पर्यावरण पूरी तरफ प्रदूषित हो जाएगा। दिल्ली तो दुनिया में प्रदूषण को लेकर पहले से बदनाम है। हमारे जीवन में बढ़ता प्लास्टिक का उपयोग इंसानी सभ्यता को निगलने पर आमादा है। बढ़ते प्रदूषण से सिर्फ दिल्ली ही नहीं भारत के जितने महानगर हैं सभी में यह स्थिति है।
उपभोक्तावाद की संस्कृति ने गांव-गिराव को भी अपना निशाना बनाया है। यहां भी प्लास्टिक संस्कृति हावी हो गई है। बाजार से वस्तुओं की खरीददारी के बाद प्लास्टिक के थैले पहली पसंद बन गए हैं। कोई भी व्यक्ति हाथ में झोला लेकर बाजार खरीदारी करने नहीं जा रहा है। यहां तक चाय, दूध, खाद्य तेल और दूसरे तरह के तरल पदार्थ, जो दैनिक जीवन में उपयोग होते हैं, उन्हें भी प्लास्टिक में बेहद शौक से लिया जाने लगा है, जबकि खाने-पीने की गर्म वस्तुओं में प्लास्टिक के संपर्क में आने से रासायनिक क्रिया होती है, जो सेहत के लिए अहितकर है। सुविधाजनक संस्कृति हमें अंधा बना रही है, जिसका नतीजा है इंसान तमाम बीमारियों से जूझ रहा है, लेकिन वैश्वीकरण के चलते बाजार और उपभोक्ता व भौतिकवाद का चलन हमारी सामाजिक व्यवस्था, सेहत के साथ-साथ आर्थिक तंत्र को भी ध्वस्त कर रहा है। एक दूषित संस्कृति की वजह से सारी स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकारी स्तर पर प्लास्टिक कचरे के निस्तारण के लिए ठोस प्रबंधन की जरुरत है।
महानगरों से निकलता प्लास्टिक कचरा जहां पर्यावरण का गला घोंटने पर उतारु हैं, वहीं इंसानी सभ्यता और जीवन के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है। दिल्ली में दो साल पूर्व एक घटना सामने आई जब प्लास्टिक और सामान्य कचरे ने पहाड़ की शक्ल ले लिया। जिसके गिरने से पूर्वी दिल्ली के तीन लोगों की मौत हो गई थी। प्रदूषण के खिलाफ छिड़ी जंग को अभी तक जमींन नहीं मिल पाई। वह मंचीय और भाषण बाजी तक सिमट गया। दिल्ली और देश के दूसरे महानगरों के साथ गांवों में बढ़ते प्लास्टिक कचरे का निदान कैसे होगा, इस पर कोई बहस नहीं दिखती है। राज्यों की अदालतों और सरकारों की तरफ से प्लास्टिक संस्कृति पर विराम लगाने के लिए कई फैसले और दिशा निर्देश आए, लेकिन इसका कोई फायदा होता नहीं दिखा। दूसरी तरह आधुनिक जीवन शैली और गायब होती झोला संस्कृति इसकी सबसे बड़ा कारक है।
भारत में प्लास्टिक का प्रवेश लगभग 60 के दशक में हुआ। संभावना यह भी जताई गई थी कि इसी तरह उपयोग बढ़ता रहा तो जल्द ही यह 22 हजार टन तक पहुंच जाएगा। भारत में जिन इकाईयों के पास यह दोबारा रिसाइकिल के लिए जाता है, वहां प्रतिदिन 1,000 टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है। जिसका 75 फीसदी भाग कम मूल्य की चप्पलों के निर्माण में खपता है। 1991 में भारत में इसका उत्पादन नौ लाख टन था। आर्थिक उदारीकरण की वजह से प्लास्टिक को अधिक बढ़ावा मिल रहा है। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, समुद्र में प्लास्टिक कचरे के रूप में 5,000 अरब टुकड़े तैर रहे हैं। अधिक वक्त बीतने के बाद यह टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक में तब्दील हो गए हैं। जीव विज्ञानियों के अनुसार, समुद्र तल पर तैरने वाला यह भाग कुल प्लास्टिक का सिर्फ एक फीसदी है, जबकि 99 फीसदी समुद्री जीवों के पेट में है या फिर समुद्र तल में छुपा है। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगी। दुनिया के 40 देशों में प्लास्टिक पर पूर्णरुप से प्रतिबंध है। जिन देशों में प्लास्टिक पूर्ण प्रतिबंध है, उनमें फ्रांस, चीन, इटली और रवांडा, केन्या जैसे मुल्क शामिल हैं, लेकिन भारत में इस पर लचीला रुख अपनाया जा रहा है। जबकि यूरोपीय आयोग का प्रस्ताव था कि यूरोप में हर साल प्लास्टिक का उपयोग कम किया जाए। यूरोपीय समूह के देशों में हर साल आठ लाख टन प्लास्टिक बैग यानी थैले का उपयोग होता है। जबकि इनका उपयोग सिर्फ एक बार किया जाता है। 2010 में यहां के लोगों ने प्रति व्यक्ति औसत 191 प्लास्टिक थैले का उपयोग किया। इस बारे में यूरोपीय आयोग का विचार था कि इसमें केवल छह प्रतिशत को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाया जाता है। यहां हर साल चार अरब से अधिक प्लास्टिक बैग फेंक दिए जाते हैं। भारत भी प्लास्टिक के उपयोग से पीछे नहीं है। देश में हर साल तकरीबन 56 लाख टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन होता है, जिसमें से लगभग 9205 टन प्लास्टिक को रिसाइकिल कर दोबारा उपयोग में लाया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, देश के चार मातृ नगरों, दिल्ली में हर रोज 690 टन जबकि चेन्नई में 429 और कोलकाता में 426 टन के साथ मुंबई में 408 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा फेंका जाता है। वैज्ञानिकों के विचार में प्लास्टिक का बढ़ता यह कचरा प्रशांत महासागर में प्लास्टिक सूप की शक्ल ले रहा है। अमेरिका जैसे विकसित देश में कागज के बैग बेहद लोकप्रिय हैं। वास्तव में प्लास्टिक हमारे लिए उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक की स्थितियों में खतरनाक है। इसका निर्माण पेटोलियम से प्राप्त रसायनों से होता है। पर्यावरणीय लिहाज से यह किसी भी स्थिति में इंसानी सभ्यता के लिए बड़ा खतरा है।
प्लास्टिक कचरे का दोबारा उत्पादन आसानी से संभव नहीं होता है क्योंकि इनके जलाने से जहां जहरीली गैस निकलती है। वहीं यह मिट्टी में पहुंच भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट करता है। दूसरी तरफ, मवेशियों के पेट में जान से नुकसान जानलेवा साबित होता है। प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कठोर फैसले लेने होंगे। तभी हम महानगरों में बनते प्लास्टिक यानी कचरों के पहाड़ को रोक सकते हैं। वक्त रहते हम नहीं चेते, तो हमारा पर्यावरण पूरी तरफ प्रदूषित हो जाएगा। दिल्ली तो दुनिया में प्रदूषण को लेकर पहले से बदनाम है। हमारे जीवन में बढ़ता प्लास्टिक का उपयोग इंसानी सभ्यता को निगलने पर आमादा है। बढ़ते प्रदूषण से सिर्फ दिल्ली ही नहीं भारत के जितने महानगर हैं सभी में यह स्थिति है।
उपभोक्तावाद की संस्कृति ने गांव-गिराव को भी अपना निशाना बनाया है। यहां भी प्लास्टिक संस्कृति हावी हो गई है। बाजार से वस्तुओं की खरीददारी के बाद प्लास्टिक के थैले पहली पसंद बन गए हैं। कोई भी व्यक्ति हाथ में झोला लेकर बाजार खरीदारी करने नहीं जा रहा है। यहां तक चाय, दूध, खाद्य तेल और दूसरे तरह के तरल पदार्थ, जो दैनिक जीवन में उपयोग होते हैं, उन्हें भी प्लास्टिक में बेहद शौक से लिया जाने लगा है, जबकि खाने-पीने की गर्म वस्तुओं में प्लास्टिक के संपर्क में आने से रासायनिक क्रिया होती है, जो सेहत के लिए अहितकर है। सुविधाजनक संस्कृति हमें अंधा बना रही है, जिसका नतीजा है इंसान तमाम बीमारियों से जूझ रहा है, लेकिन वैश्वीकरण के चलते बाजार और उपभोक्ता व भौतिकवाद का चलन हमारी सामाजिक व्यवस्था, सेहत के साथ-साथ आर्थिक तंत्र को भी ध्वस्त कर रहा है। एक दूषित संस्कृति की वजह से सारी स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकारी स्तर पर प्लास्टिक कचरे के निस्तारण के लिए ठोस प्रबंधन की जरुरत है।