Increase sociality, reduce negativity; सामाजिकता को बढ़ाओ, नकारात्मकता को घटाओ

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कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या भले बढ़ रही हो, लेकिन कोरोना की मारक क्षमता लगातार घट रही है। शुरू-शुरू में लोगों को लगा था, कि यह मानव-निर्मित बीमारी है, और इसका वायरस कृत्रिम है। दुनियां भर में छा जाने की मंशा पाले कुछ अमीर मुल्कों ने इसका सृजन किया है। लेकिन धीरे-धीरे पता चला, कि लगातार प्रकृति के कुपित होने की वजह से यह वीषाणु स्वत: निर्मित होकर फैला। यह स्नेह (फैट) के घेरे में बंद एक वीषाणु है, जो किसी न किसी कैरियर के माध्यम से आपके शरीर में प्रवेश करता है, और डीएनए पर हमला करता है। इसके बाद यह मनुष्य के श्वसन तंत्र को ठप कर देता है, जिससे संक्रमित मनुष्य की जान जाने की आशंका बढ़ती है। किंतु यह भी शुरू से ही चिकित्सकों और जीव-विज्ञानियों ने स्पष्ट कर दिया था, कि इस वीषाणु के संक्रमण से मृत्यु दर बहुत कम है। दो से तीन परसेंट के बीच। वह भी वही काल के शिकार अधिक बनते हैं, जिन्हें पहले से ही कोई गम्भीर बीमारी हो। जैसे कि हृदय रोग, किडनी या लीवर में दोष अथवा जिन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप वगैरह हो। इसके लिए एहतियात जरूरी था, पैनिक नहीं।
लेकिन लॉकडाउन ने लोगों को बुरी तरह भयभीत कर दिया। और अफरा-तफरी फैल गई। याद करिए, मार्च के दूसरे सप्ताह से ही लोग तीन-तीन महीने का राशन-पानी इकट्ठा करने लग गए थे। और जब 22 मार्च को जनता कर्फयू लगा, तो सभी को यकीन हो गया, कि सरकार और भी कड़े कदम उठाने वाली है। इसलिए 23 और 24 मार्च को और भी ज्यादा खरीदारी हुई। आटा, दाल, चावल, मसाले आदि जिस भी कीमत पर मिले उस कीमत पर। आलू-प्याज भी बोरियां भर-भर कर खरीदी गईं। दूध तक दस से 15 लीटर तक खरीद कर फ्रीजर में भर दिए गए। लेकिन उसी समय एक ऐसा क्लास भी था, जो न तो महंगी कीमत पर यह सामान खरीद सकता था और न स्टोर करने की उसकी क्षमता थी। तब समाज के कुछ लोग आगे आए, और उन्होंने अपने भंडार खोल दिए। जब 25 मार्च से लॉकडाउन शुरू हुआ, तब से हजारों लोगों के अंदर करुणा भी जगी। और उन्होंने इन निराश्रितों तथा भूखे लोगों को दोनों वक्त भोजन उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। इनकी स्वयं की आर्थिक स्थिति कोई देश के टॉप व्यवसायियों जैसी नहीं थी, लेकिन उनके इस सदप्रयास में लोग जुड़ते रहे और सिलसिला चल निकला।
कानपुर में एक उद्यमी हैं, शरद मिश्र, मूल रूप से कन्नौज के रहने वाले हैं। उन्होंने कन्नौज में 500 लोगों के लिए रोज भोजन का प्रबंध किया और इससे कुछ अधिक लोगों के लिए दोनों समय भोजन का इंतजाम कानपुर शहर में किया। भटक रहे प्रवासी मजदूरों को असंख्य जोड़ी जूते, चप्पल बंटवाए। उन्होंने प्रधानमंत्री केयर फंड में भी साढ़े 13 लाख का अनुदान किया है। हालांकि यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, पर यह भी दिलचस्प है, कि वे कांग्रेस के नेता हैं। इसी तरह कानपुर के ही गोविंद नगर क्षेत्र में आटो-पार्ट्स व्यापारी सुनील दीक्षित ह्यगुड्डू भैयाह्व ने भी 25 मार्च से भंडारा खोल रखा है। कोई भी गरीब या त्रस्त व्यक्ति उनके पास आया, उन्होंने फौरन उसके और उसके परिवार के लिए भोजन-पानी का प्रबंध किया। उन्होंने सनातन धर्म नवयुवक मंडल बनाकर पुलिस और जिला प्रशासन का सहयोग लिया, तथा हर जरूरतमंद की मदद की। गुरुग्राम (गुड़गांव) के आनंद मिश्रा ने दवाएं बांटी और प्रवासी मजदूरों को उनके घर जाने के लिए ट्रेन किराए का इंतजाम किया। एक दिन उनका फोन आया, कि शुक्ला जी, मैंने सुना है, कि जुशांदा से आदमी की रोग प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ती है। मैं इस जुशांदा का फ्री वितरण करना चाहता हूं। इसके लिए आप अलीगढ़ से बाल जीवन घुट्टी वालों का नम्बर दीजिए। बाल जीवन घुट्टी के सौरभ अग्रवाल का जुशांदा हमदर्द के मुकाबले सस्ता है। उन्होंने सौरभ जी से बात की। जब सौरभ जी को पता चला, तो उन्होंने और भी कम कीमत में उनको जुशांदा के हजारों पैकेट उपलब्ध कराए।
दरअसल जब आप समाज कल्याण के लिए कोई निस्वार्थ काम करते हैं, तो आपकी मदद करने में हजारों हाथ आगे आते हैं। एक बार और आनंद जी ने मुझे फोन किया था, कि गुड़गांव में कुछ माल्दा (पश्चिम बंगाल) के मजदूर हैं, वे अपने घर जाना चाहते हैं। उनके लिए ट्रेन किराए का इंतजाम हम लोगों ने कर दिया है। मगर ट्रेन कोलकाता तक ही जाएगी, आगे वे कैसे जाएंगे? मैंने उन्हें लोकसभा में नेता विरोधी दल अधीर रंजन चौधरी से बात करने को कहा। वहां श्री चौधरी के निजी सहायक तारक मेहता ने उनकी पूरी मदद की और वे मजदूर माल्दा पहुंच गए। बीच में संकट आया, तो पूर्व मंत्री दीपा दासमुंशी ने उनकी खूब मदद की। अर्थात आप आगे बढ़ो, तो और लोग भी आगे आएंगे। गुड़गांव में ही वाटिका थाने के एसएचओ जसवंत सिंह की करुणा देखिए, उन्होंने अपने क्षेत्र में घरेलू काम करने वाली महरियों की पीड़ा को समझा। और हर महरी के घर पर अपनी जेब के पैसे से खरीद कर राशन-पानी का प्रबंध किया। यही इस देश और इस समाज की खासियत है। लोगों के अंदर करुणा है, भातृभाव है। बस कोई आगे बढ़े। कुछ बिरले लोग आगे बढ़ते हैं। बाकी हाथ मदद को आते हैं।
हमारे देश की यही विशेषता उसे हर आपदा-बिपदा से लड़ने में सहायक बनती है। यह पारस्परिकता अटूट है। अगर हम इस कोरोना की जंग में जीतेंगे, तो सोशल डिस्टैंसिंग से नहीं, बल्कि इसे सोशल चेन से। ध्यान रहे, हमें फिजिÞकल डिस्टैंसिंग बरतनी है, किंतु सोशल चेन को और मजबूत बनाना है। तब ही हम देर-सेबर इस कोरोना को बाहर कर पाएँगे। शायद इसीलिए जितनी तेजी से कोरोना फैल रहा है, उतनी ही तेजी से इसका इलाज भी हो रहा है। क्योंकि धीरे-धीरे लोग समझ गए हैं, कि इसका अकेला इलाज फिजिकल दूरी है, सामाजिक दूरी नहीं है। यदि हम बचाव के पुख़्ता इंतजाम करने के बाद घर से निकलते हैं, तो कोरोना हमें छू भी नहीं पाएगा। हम निरुद्देश्य कहीं घूमें-फिरें नहीं। किसी से न तो हाथापाई करें न फालतू में स्पर्श करने की कोशिश करें। अनावशयक रूप से भीड़-भाड़ न करें। जब यह दूरी हम बनाए रहेंगे तब हमारी सामाजिकता भी यथावत रहेगी और फिजिकल दूरी भी बनी रहेगी। अर्थात कोरोना से हमें बहुत कुछ सीखना है। उसकी सीख ही हमें कोरोना से दूर रखेगी।
इसके अतिरिक्त हमें यह भी ध्यान रखना होगा, कि हमें हमारी प्रकृति को बचा कर रखना है। प्रकृति को नाराज कर हम बीमारियों से आपदाओं से नहीं बच सकते। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं, कि जब से कोरोना काल आया है, आठ बार देश में भूकम्प आ चुका है। दासियों सड़क दुर्घटनाएं हुई हैं। दो बार सुनामी जैसे तूफान आए हैं। अंफन से कोलकाता में तबाही मची तो निसर्ग से मुंबई में। उधर दिल्ली भूकंप से त्राहिमाम किए है। यह संकेत है, कि प्रकृति को बचाओ। उसका उतना ही दोहन करो, कि वह कुपित नहीं हो। हरे-भरे जंगलों को काट देना, सड़कों और उद्योगों के नाम पर अन्नपूर्णा धरती को बंजर कर देना। हरित क्रांति के नाम पर पेस्टिसाइड्स का अंधाधुंध इस्तेमाल संकेत करता है, कि हम स्वयं विनाश को न्योत रहे हैं। इस कोरोना के जाने के बाद कोई और कोरोना नहीं आ जाएगा, इसकी क्या गारंटी! इसलिए सामाजिकता को बचाओ, प्रकृति को बचाओ और उसकी जैव-विविधता को भी। पिछले दिनों केरल के मल्लापुरम में जिस तरह एक हथिनी को विस्फोटक भरा अनानास खिला कर मार दिया गया, वह बताता है, कि हमारा समाज धीरे-धीरे क्रूरता और निरंकुशता की तरफ बढ़त जा रहा है। ऐसे मामलों में सरकार को दोषियों को पकड़ कर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। तब ही हम खुद को बचा पाएंगे और अपने आसपास के माहौल को भी।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)