भारत में राष्ट्रवाद को लेकर एक बहस चल रही है। पर यह कौन सा राष्ट्रवाद है यह तय नहीं है। यह राष्ट्रवाद, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों का राष्ट्रवाद है या सावरकर और जिन्ना का धर्म आधारित द्विराष्ट्रवाद वाला राष्ट्रवाद इस पर बहस चला करती है। राष्ट्र क्या है, राष्ट्रवाद की विचारधारा क्या है, और उसकी व्याख्या तथा मीमांसा क्या हो इस पर भी लंबी बहसें चलती रहती हैं। पर देश मे एक प्रवित्ति जोर पकड़ रही है कि जो खुद को राष्ट्रवादी नहीं कहते या नहीं स्वीकार करते हैं, या राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अलग अवधारणा रखते हैं वे देशभक्त ही नहीं माने जाएंगे। भारत मे राष्ट्रवाद की अवधारणा पर बहुत से विद्वान और विचारकों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं, और राष्ट्रवाद को अपनी-अपनी तरह से समझा और समझाया है। पर मुझे इन सबमें सबसे अधिक अलग रवीन्द्रनाथ टैगोर की राष्ट्रवाद पर अवधारणा पसंद आई। आज के विमर्श में टैगोर की राष्ट्रवाद संबंधी विचार प्रस्तुत कर रहा हूं।
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व के थे। बंगाल के कुछ बेहद सम्पन्न लोगों में उनका परिवार आता था। उनके बड़े भाई सत्येंद्र नाथ टैगोर, देश के प्रथम हिंदुस्तानी आईसीएस थे। वे 1864 बैच के आईसीएस थे। अपने माता-पिता की आठ संतानों में एक टैगोर बांग्ला साहित्य और संगीत के शिखर पुरुषों में से एक थे। हम उन्हें उनके कविता संग्रह गीतांजलि पर मिले नोबल पुरस्कार से अधिक जानते हैं पर टैगोर ने गोरा, नौका डूबी जैसे बेहद लोकप्रिय और खूबसूरत उपन्यास भी लिखे हैं। रवींद्र संगीत के नाम से बांग्ला का सबसे लोकप्रिय संगीत भी उन्ही की यश गाथा कहता है। देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर टैगोर के विचार देशभक्ति और राष्ट्रवाद की परंपरागत परिभाषा से कुछ हट कर हैं। 1908 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबला बोस की राष्ट्रवाद पर अपनी आलोचना का जवाब देते हुए टैगोर ने कहा था, देशभक्ति मेरे लिए मेरा अंतिम आध्यात्मिक आश्रय नहीं हो सकता है। मैं हीरे की कीमत में, शीशा नहीं खरीद सकता हूं। जब तक मेरा जीवन है मैं देशभक्ति को मनुष्यता के ऊपर देशभक्ति की जीत हावी नहीं होने दूंगा। यह पत्र 1997 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक टैगोर के चुने हुए पत्र में संग्रहीत है। जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत हावी नहीं होने दूंगा।
यह बयान अगर आज कोई भी देता, या खुद टैगोर ही जीवित रहते और कह देते, तो उन्हें तुरंत आजादी की लड़ाई में खामोश रहने वाले तबके के समर्थक नवदेशभक्त पाकिस्तान भेजने का फरमान जारी कर देते। लेकिन टैगोर ने यह बात खुल कर कही थी। उन्होंने भारतीय समाज, संस्कृति और परंपरा में खुल कर कहने की प्रथा का ही अनुसरण किया था। सौ साल पहले कही गई उनकी बात पर बौद्धिक बहस तो हुई, पर उन्हें कोसा नहीं गया, वे निंदित नहीं हुए और उनका मजाक नहीं उड़ाया गया। गुलाम भारत और ब्रिटिश उपनिवेश की किसी भी संवैधानिक अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार जैसी किसी चीज के न होते हुए भी भारतीय परंपरा में अपनी बात कहने और तर्क वितर्क करने की जो स्वाभाविक परंपरा आदि काल से हमें प्राप्त, है और वर्तमान अभिव्यक्ति की अवधारणा जैसी पाश्चात्य अवधारणा के बहुत पहले से भारतीय जन मानस में व्याप्त है के अनुसार उन्होंने अपनी बात कही थी । नोबेल पुरस्कार विजेता और प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक बेहद विचारोत्तेजक पुस्तक लिखी है ‘द आरगुमेंटेटिव इंडियन’।
यह पुस्तक उनके द्वारा समय-समय पर लिखे गए, लेखों का एक संकलन है । इसमे उन्होंने भारतीय तर्क पद्धति और तर्क परंपरा का इतिहास खंगालने की कोशिश की है। अमर्त्य सेन ने इस किताब में टैगोर से संबंधित एक अध्याय टैगोर और उनका भारत में टैगोर के राष्ट्रीयता और देशभक्ति से जुड़ी बातें और उनके विचार बताये हैं, जो उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता और पादरी सी एफ एंड्रूज के हवाले से समय समय पर कहे गए हैं। भारत के संदर्भ में टैगोर ने लिखा है, भारत की समस्या राजनैतिक नहीं सामाजिक है।
यहां राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है। हकीकत तो ये है कि यहां पर पश्चिमी देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद की बात करें तो वह कैसे प्रसारित होगा? भारत को राष्ट्र की संकरी मान्यता छोड़कर अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। टैगोर ने हमेशा नेशन स्टेट (राष्ट्र-राज्य) संकल्पना की आलोचना की है। उन्होंने उसे यह शुद्ध यूरोप की देन है ऐसा कहा है। अपने 1917 के नेशनलिज्म इन इंडिया नामक निबंध में उन्होंने साफ तौर पर लिखा है कि राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता प्राप्त करने का यांत्रिक प्रयास इतना ही है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलत: विज्ञापन तथा अन्य माध्यमों का लाभ उठाकर राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं। शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने राष्ट्रों मे पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन के साथ खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है।
ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी आधार पर राष्ट्रवाद की आलोचना की है। उनके अनुसार, राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का एैसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता तथा आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह पाता है। दुर्बल एवं असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास यह राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इस से उपजा साम्राज्यवाद अंतत: मानवता का संहारक बनता है। राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि पर कोई नियंत्रण स्वंभव नहीं, इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं। उसकी इस अनियांत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं। राष्ट्रों का पारस्परिक संघर्ष जब विश्वव्यापी युद्ध का रूप धारण कर लेता है, तब उसकी संहारकता के सामने सब कुछ नष्ट हो जाता है। यह निर्माण का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है।
संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोध में वे आगे लिखते हैं कि राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता यह मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा है। ऐसा राष्ट्रवाद युद्धोन्मादवर्धक एवं समाजविरोधी ही होगा। क्योंकि राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य द्वारा सत्ता की शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता है। उनके इसी पुस्तक के अनुसार, व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति समर्पित कर देना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। राष्ट्र के नाम पर मानव संहार तथा मानवीय संगठनों का संचालन उन के लिए असहनीय था। उन के विचार में राष्ट्रवाद का सब से बड़ा खतरा यह है कि मानव की सहिष्णुता तथा उसमें स्थित नैतिकताजन्य परमार्थ की भावना राष्ट्र की स्वार्थपरायण नीति के चलते समाप्त हो जाएंगे। ऐसे अप्राकृतिक एवं अमानवीय विचार को राजनैतिक जीवन का आधार बनाने से सर्वनाश ही होगा। इसलिए टैगोर ने राष्ट्र की धारणा को भारत के लिए ही नहीं, अपितु विश्वव्यापी स्तर पर अमान्य करने का आग्रह रखा था।
वे मानते थे कि भारत को राष्ट्र की संकरी मान्यता को छोड़ अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। आर्थिक रूप से भारत भले ही पिछड़ा हो, मानवीय मूल्यों में पिछड़ापन उसमें नहीं होना चाहिए। निर्धन भारत भी विश्व का मार्ग दर्शन कर मानवीय एकता में आदर्श को प्राप्त कर सकता है। यह भी एक संयोग ही है कि जिस राष्ट्रवाद को 1917 में, टैगोर मानवता के लिए खतरा बता रहे थे, उसी खतरे के फलस्वरुप 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। पर टैगोर, 6 अगस्त 1945 को हुई हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी देखने और सुनने के लिए जीवित नहीं रहे, उसके पहले ही उनका निधन हो गया था। आज हम फिर उसी आक्रामक राष्ट्रवाद की चपेट में है। यह राष्ट्रवाद का वह चेहरा नहीं है जो हम अपने महान स्वाधीनता संग्राम के दौरान जनगणमन में देख चुके हैं।
यह राष्ट्रवाद का वह चेहरा है जो यूरोपीय तानाशाही से भरी श्रेष्ठतावाद और मिथ्या तुच्छता के प्रति अपार और हिंसक घृणा से भरा पड़ा है। जो युयुत्सु है। जन विरोधी है। राष्ट्र उसके नागरिकों , नागरिकों के सुख और उनके जीवन स्तर, बौद्धिक विकास और सुख तथा प्रसन्नता के मापदंड पर आधारित है। टैगोर की यही अवधारणा है। आज कश्मीरियत की बात चल रही है। कश्मीरियत एक क्षेत्रीय अस्मिता का प्रतीक है। वह एक अलग राज्य, इलाका, भाषा, संस्कृति और इतिहास से जोड़ कर देखी जाने वाली भावना है। लेकिन यह क्षेत्रीय अस्मिता की भावना, देश को खंडित नहीं बल्कि देश को सबल करती है। जैसे कश्मीर से जुड़ी क्षेत्रीय अस्मिता की बात आज की जा रही है वैसे ही देश में बांग्ला आत्मसम्मान, गुजरात गौरव, मराठी मानुस, पंजाबियत, तमिल प्राइड की बात भी खूब की जाती है। नार्थ ईस्ट के जनजातीय इलाके में तो हर समाज का अपना अलग अलग आत्मसम्मान है। लेकिन यह सभी अलग अलग गौरव क्षेत्र भारत को कमजोर नहीं बल्कि उसे सबल बनाते हैं।
यह अलगाववाद नहीं एकजुटता का प्रमाण है। यह बहुलतावाद का प्रतीक है। यह आज के राष्ट्रवादी मित्रो की उस अवधारणा से अलग है जो, भारत की बहुलतावादी संस्कृति, सभ्यता और स्वरूप को नजरअंदाज कर के स्थूल एकता को तो ढूंढते हैं और प्राण की तरह सतत प्रवाहित उस सुक्ष्म एकता को नहीं देख पाते तो भारत की अवधारणा और आत्मा का मूलाधार है।
(लेखक सेवानिवृत्त
आईपीएस अधिकारी हैं)
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