वॉशिंगटन। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मंगलवार को कहा कि वह अफगानिस्तान में 18 साल से चल रहे युद्ध को समाप्त करने के प्रयासों के तहत स्वदेश लौटने के बाद तालिबान के साथ मुलाकात करेंगे। खान ने अमेरिका की अपनी पहली आधिकारिक यात्रा के दौरान यहां कहा कि उन्होंने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी से भी मुलाकात की है। उन्होंने कहा,‘‘अब स्वदेश लौटने पर मैं तालिबान से मुलाकात करूंगा और उन्हें अफगानिस्तान सरकार के साथ बातचीत करने की खातिर राजी करने के प्रयास करूंगा।’’ इससे पहले, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने व्हाइट हाउस में खान की मेजबानी की। खान ने ‘यूएस इंस्टीट्यूट फॉर पीस’ में कहा कि जुलाई 2018 में चुनाव में उन्हें मिली जीत के बाद इस्लामी अतिवादी अफगान तालिबान ने उनसे संपर्क किया था, लेकिन उन्होंने उस समय मुलाकात नहीं की थी क्योंकि काबुल इसके पक्ष में नहीं था। उन्होंने कहा कि आतंकवादियों ने उनसे इसलिए संपर्क किया ‘‘क्योंकि मैंने हमेशा कहा है’’ कि अफगानिस्तान में युद्ध का ‘‘कोई सैन्य समाधान नहीं’’ है। खान ने कहा, ‘‘इसलिए वे मुझ पर कुछ हद तक विश्वास करते हैं।’’ उन्होंने आतंकवादियों के बारे में सचेत करते हुए कहा कि कोई केंद्रीकृत कमान नहीं होने के कारण यह आसान नहीं होगा। अफगानिस्तान में अमेरिका के शांति दूत जÞलमय खलीलजाद ताजा वार्ता के लिए सोमवार को काबुल रवाना हुए, जहां से वह कतर के दोहा जाएंगे। खलीलजाद ने पिछले साल तालिबान के साथ कई बैठकें कीं। उन्होंने हाल में दोहा में नौ जुलाई को बैठक की थी। वार्ता प्रक्रिया में अभी तक सबसे बड़ी बाधा यह रही है कि तालिबान अफगानिस्तान सरकार के साथ सीधे वार्ता नहीं करना चाहता। खान ने इस बात पर भी जोर दिया कि अफगानिस्तान में सितंबर में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव ‘‘समावेशी होने चाहिए जिनमें तालिबान भी भाग ले।’’
खान ने कहा, ‘‘लेकिन हमारा मानना है कि यदि हम मिलकर काम करते हैं, तो अफगानिस्तान में शांति स्थापना की सर्वाधिक संभावना होगी।’’ उल्लेखनीय है कि जब तालिबान 1990 के दशक में अफगानिस्तान में सशक्त हुआ था, उस समय पाकिस्तान तालिबान का मुख्य प्रयोजक था। तालिबान पर पाकिस्तान के प्रभाव को किसी भी राजनीति सुलह को कराने में अहम माना जा रहा है। इसी प्रभाव के कारण पाकिस्तान पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वह तालिबान सहयोगी हक्कानी समूह जैसे आतंकवादी संगठनों के जरिए अफगानिस्तान में संघर्ष को हवा देता रहा है। खान ने असामान्य रूप से ‘आॅन रिकॉर्ड’ स्वीकार किया कि पाकिस्तान अतीत में इन्हीं नीतियों पर चला है, जिसे वह ‘‘सामरिक पकड़’’ कहता है और उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे काबुल में भारत से प्रभावित सरकार से घिरने का खतरा था। खान ने इस बात पर भी जोर दिया कि अब ऐसी कोई नीति नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘अब पाकिस्तान में ‘सामरिक पकड़’ की कोई अवधारणा नहीं है, क्योंकि हमें लगता है कि अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करके… हमने वास्तव में अपने ही देश का काफी नुकसान किया है।’’