Importance of teacher: गुरु का महत्व

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हिंदी कैलेंडर के आषाढ़ (जुलाई-अगस्त) माह की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन हम अपने षैक्षिक व आध्यात्मिक गुरुओं का सम्मान करते हैं, उनके प्रति अपनी श्रद्धा व आभार प्रकट करते हैं। इस संसार में जब भी हम कोई विषय सीखना चाहते हैं, तो हम ऐसे इंसान के पास जाते हैं जो उसमें निपुण हो और हमें भी वो विषय पढ़ा सकता हो।
इसी प्रकार एक पूर्ण सत्गुरु अध्यात्म के विषय में निपुण होता है, और यदि हम अपना आध्यात्मिक विकास करना चाहते हैं, तो हमें सत्गुरु के पास जाना होता है। इस धरती पर हर समय कोई न कोई पूर्ण सत्गुरु अवष्य मौजूद होते हैं, जो हमें अपने अंतर में मौजूद प्रभु-सत्ता के साथ जुड़ने में मदद करते हैं। प्रत्येक युग में ऐसे संत-महापुरुष आते हैं जो हमारी आत्मा को आंतरिक यात्रा पर ले जाने में समर्थ होते हैं। संत मत के महापुरुषों ने हमें यही बताया है कि प्रभु की सत्ता किसी न किसी मानव षरीर के माध्यम से कार्य करती है। मनुष्य दूसरे मनुष्य से ही सीखता है। संत-महापुरुष इस दुनिया में इसलिए आते हैं ताकि हमारे स्तर पर आकर हमसे बातचीत कर सकें, आंतरिक अनुभव पाने की विधि के बारे में हमारी भाषा में हमें समझाएँ, तथा व्यक्तिगत स्तर पर हमें उसका अनुभव भी दे सकें।
केवल बातें करने से या पढ़ने से हम अध्यात्म नहीं सीख सकते। यह केवल व्यक्तिगत अनुभव से ही सीखा जा सकता है, और वो अनुभव हमें केवल एक पूर्ण सत्गुरु ही प्रदान कर सकता है। ज्योति व श्रुति की दिव्य धारा प्रभु से निकलती है, और यही प्रभु तक वापस भी जाती है। हमारा षिवनेत्र (अंदरूनी आँख, जोकि दोनों भौंहों के पीछे व मध्य में स्थित है) हमारी आत्मा तथा इस दिव्य धारा के मिलन का स्थान है। यदि हम अपने ध्यान को इस स्थान पर एकाग्र कर लें, तो हम इस दिव्य धारा के संपर्क में आ सकते हैं और इस पर सवार होकर वापस आध्यात्मिक मंडलों में पहुँच सकते हैं।
लेकिन जैसे ही हम अपने ध्यान को इस बिंदु पर एकाग्र करने की कोषिष करते हैं, तो हमारा मन हमें कोई न कोई विचार भेज देता है और हमारा ध्यान स्थिर नहीं रह पाता। इसीलिए हमें इस बिंदु पर ध्यान टिकाने के लिए मदद की आवष्यकता होती है। एक पूर्ण सत्गुरु नामदान (दीक्षा) के दिन हमें अपनी तवज्जो से सिद्ध किए हुए प्रभु के पाँच नाम देते हैं, जिनका जाप करने से हमारा मन षांत होता है और हम षिवनेत्र पर ध्यान टिका पाते हैं।
इस प्रक्रिया में सत्गुरु षिष्य की अंदरूनी आँख खोल देते हैं ताकि वह प्रभु की ज्योति के दर्षन कर सके, तथा षिष्य का अंदरूनी कान खोल देते हैं ताकि वह प्रभु की श्रुति को सुन सके। निरंतर ध्यान-अभ्यास करने से उसकी आत्मा देहाभास से ऊपर उठकर आंतरिक मंडलों में उड़ान भरने लगती है, और वहाँ के सौंदर्य, प्रेम व दिव्य प्रकाष का अनुभव करती है। सत्गुरु हमारी आत्मा को आंतरिक यात्रा के दौरान लुभावने आकर्षणों एवं भटकावों से बचाने के लिए आंतरिक मार्गदर्षन भी प्रदान करते हैं, तथा हमें आध्यात्मिक मंडलों से गुजारते हुए प्रभु के धाम की ओर ले जाते हैं, ताकि हमारी आत्मा प्रभु से मिलन के अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर ले।
नामदान के बाद सत्गुरु का सूक्ष्म स्वरूप षिष्य के अंदर बैठ जाता है। फिर वो हर क्षण षिष्य के साथ रहते हैं और उसे हर प्रकार से सुरक्षित रखते हैं। सत्गुरु का संरक्षण षिष्य के साथ न केवल इस दुनिया में रहता है, बल्कि इससे आगे भी बना रहता है। सत्गुरु षिष्य के कर्मों के भार को अपने ऊपर ले लेते हैं, और हमेषा उसके अंग-संग बने रहते हैं। जब षिष्य के जीवन का अंत होता है, तब भी वे उसके साथ होते हैं और आगे के मंडलों में भी उसके मार्गदर्षक बनते हैं। इस वक़्त सत्गुरु हमारे अंतर में प्रकट होते हैं और हमें आंतरिक दिव्य ज्योति की ओर ले जाते हैं। वे हमारा हाथ पकड़कर हमें आध्यात्मिक मंडलों से आगे ले जाते हैं। सत्गुरु हमें प्रेम से गले लगाते हैं और हमें रोषनी के मध्य में ले जाते हैं। हम मौत के समय कोई पीड़ा महसूस नहीं करते, क्योंकि उस समय हमारी आत्मा सत्गुरु की उपस्थिति का आनंद उठा रही होती है।
सत्गुरु दया से भरपूर होते हैं; वे हमें तकलीफ में नहीं देख सकते। सत्गुरु हमें कर्मों के कीचड़ से दूर रहने की षिक्षा देने के लिए इस संसार में आते हैं। वे चाहते हैं कि हम कर्मों के चक्र से बाहर निकलें, जिसमें उलझकर हम बार-बार इस संसार में आते हैं। वे चाहते हैं कि हम अपने सच्चे पिता के घर वापस लौटें, जहाँ किसी प्रकार की तकलीफ या मृत्यु नहीं है। हमारे जीवनकाल के दौरान भी सत्गुरु हमें कई प्रकार के खतरों से बचाते हैं। हम उनके द्वारा दी गई हर मदद से अवगत भी नहीं होते। हमारी हर तरह से मदद करने के लिए सत्गुरु सदा हमारे अंग-संग रहते हैं, जब तक कि हम परमात्मा में जाकर लीन नहीं हो जाते। एक बार जब हमें पूर्ण सत्गुरु के द्वारा नामदान मिल जाता है, तो वे हमारे दिव्य चक्षु या तीसरे नेत्र पर विराजमान हो जाते हैं और फिर जीवन के प्रत्येक पहलू में हमें सहायता प्रदान करते हैं। सत्गुरु हमारे सच्चे नि:स्वार्थ सहाई होते हैं, और हमारी मदद करने के बदले में अपने लिए कोई भी ईनाम, या किसी भी प्रकार का नाम या यष नहीं चाहते। वे हमारी मदद करते हैं क्योंकि वे हमसे प्रेम करते हैं और उनका अपना हृदय प्रभु-प्रेम से भरपूर होता है।
यदि हम इस मानव चोले के उद्देष्य को पूरा करना चाहते हैं और अपनी आत्मा का मिलाप परमात्मा में करवाना चाहते हैं, तो हमें एक पूर्ण सत्गुरु के चरणकमलों में आना ही होगा। हमें प्रभु से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमें षीघ्रतिषीघ्र वक़्त के पूर्ण सत्गुरु की षरण में पहुँचा दें, ताकि उनके समर्थ मार्गदर्षन में हम जल्द से जल्द अपनी रूहानी यात्रा पूरी कर लें और अपने निजधाम वापस पहुँचकर सदा-सदा के लिए प्रभु में लीन हो जाएँ।

संत राजिंदर सिंह जी महाराज
(लेखक जाने माने संत हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)