अगर मुमकिन हुआ होता, बुझा कर रख लिया होता, अमीरों ने कहीं सूरज छुपा कर रख लिया होता! हमारे मित्र अशोक रावत की ये पंक्तियां मौजूं हकीकत बयां करती हैं। हमारे देश में कुछ ऐसा ही हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। कोविड-19 महामारी के दौरान सरकारी नीतियों के चलते पिछली तिमाही में हमारी जीडीपी -23.9 पहुंच गई। हाल के दिनों में विश्व मुद्राकोष ने चेताया कि भारत की अर्थव्यवस्था मौजूदा वित्तीय वर्ष में विश्व की सबसे खराब होने वाली है। इसके -10.3 फीसदी रहने का अनुमान है, जो भारतीय इतिहास की सबसे खराब वित्तीय दशा को दर्शाता है। वहीं, सरकार के पसंदीदा कारपोरेट घरानों ने इसी दौर में अपनी वित्तीय दशा अप्रत्याशित ऊंचाई पर पहुंचा दी। छह साल पहले जो अंबानी विश्व के रईशों में 40वें नंबर पर थे, वो अब चौथे नंबर पर पहुंच गये हैं। जहां सरकार कहती है कि टर्नओवर की बदतर स्थिति के कारण देश की वित्तीय दशा बिगड़ी है, वहीं सरकार के कारपोरेट मित्र घरानों की संपत्ति और आय सभी कुछ सात गुणा बढ़ गया। हालात यह हैं कि देश में अब सरकार को छोड़कर कोई भी सेक्टर ऐसा नहीं बचा, जिसमें इन चहेते कारपोरेट घरानों का अधिपत्य स्थापित न हो गया हो। मोदी सरकार के छह साल में देश की आय की तुलना में कर्ज बढ़ने का अनुपात बहुत अधिक है। 60 फीसदी की दर से देश पर कर्ज बढ़ रहा है जबकि आमदनी सिर्फ 30 फीसदी की दर से। प्रति व्यक्ति कर्ज की स्थिति भी इस वक्त 70 हजार से अधिक हो गई जबकि 2014 में यह 41 हजार रुपये थी। ऐसा क्यों हुआ? जब यह सवाल आता है, तो पता चलता है कि किसी को रेल मिली तो किसी को हवाई अड्डे। तेल से लेकर पानी तक पर कारपोरेट मित्रों का कब्जा हो रहा है।
हम लोकतंत्रिक गणराज्य में रहते हैं। हमारा संविधान किसी कारपोरेट के लिए नहीं बल्कि आमजन के समान हित के उद्देश्य को लेकर सरकार चलाने की व्यवस्था करता है। सियासी शतरंज की बिसात में पैदल सिपाही को मारकर उसे वोटबैंक में तब्दील कर दिया जाता है, जिससे राजा की सत्ता बनी रहे। इस सोच का नतीजा है कि हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय से अधिक प्रति घंटे चुनाव पर खर्च हो रहा है। चुनावी खर्च में हम दुनिया में अव्वल हैं। हमारे यहां लोकसभा चुनाव में 61 हजार करोड़ से अधिक खर्च हुआ था। इतना खर्च विश्व का कोई भी शक्तिशाली और रईश देश नहीं कर पाता। विश्व में कतर में प्रति व्यक्ति आय 1,24,930 डॉलर और हमारे यहां 1 लाख 36 हजार रुपये है। यह सब चुनाव आयोग की संरक्षा में हो रहा है मगर कोई बोलने वाला नहीं बचा। कारण साफ है कि चुनाव हर किसी के लिए कमाई का एक जरिया भी है। आमजन की हालत जहां बद से बदतर हो रही है, वहीं उनके वोट से सत्ता का सुख ले रहे लोग ऐश ओ आराम की जिंदगी बसर कर रहे हैं। कोरोना से मरते लोगों का हाल लेने के लिए उनके पास वक्त नहीं था मगर चुनाव प्रचार से लेकर ब्रांडिंग तक के लिए वह कहीं भी पहुंच जाते हैं। अपने सुख-साधन के लिए हर तरह की खरीद भी करते हैं, जबकि देश के लोगों की खरीद क्षमता कई गुणा घट जाती है। बाबूशाही हो या फिर सियासी राजशाही दोनों की जरूरतें पूरी करने के लिए दशकों की मेहनत और आमजन के खून-पसीने की कमाई से खड़ी की गईं सरकारी कंपनियों को बेचने की मुहिम चल रही है। इस दीवाली देश की संपत्तियों का दिवाला निकलने वाला है क्योंकि देश के तमाम सरकारी उपक्रम और उनकी संपत्तियों की बोली लगनी है। कारपोरेट मित्र उसे सस्ते में खरीद सकें, इसके लिए नियमों और शर्तों में भी बदलाव किया जा रहा है। इन हालात के लिए सत्तानशीनों से अधिक हम दोषी हैं क्योंकि हम अपना सबकुछ बरबाद होते देखकर भी मौन साधे हैं।
कोविड-19 की महामारी के दौरान विश्व की फार्मा लॉबी ने जो खेल रचा, उसके चलते मरीजों से सरेआम लूट की होड़ लग गई। जब कहा जा रहा था कि कोविड की कोई दवा मौजूद ही नहीं है, तब भी तमाम अस्पतालों ने लाखों रुपये के इलाज पैकेज लॉच किये। इसके चलते न सिर्फ हजारों मरीज मरे बल्कि डॉक्टरों और सहयोगी स्वास्थकर्मियों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। एक सस्ती प्लाज्मा थेरेपी को जहां अमेरिकन मेडिकल सोसाइटी और अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कोविड-19 से ठीक हुए मरीजों से प्लाज्मा दान करने की अपील की है, वहीं हमारे देश में इस लॉबी के दबाव में आईसीएमआर ने इसे बंद करने का फैसला लिया है। उसकी दलील है कि इस थेरेपी से मृत्युदर में कोई कमी नहीं आती। दूसरी तरफ वह बेहद महंगी दवा रेमेडीसीवीर को इलाज के लिए कारगर बताता है, जबकि इस दवा के लिए भी यही कहा जाता है कि इससे मृत्युदर पर काबू नहीं पाया जा सका। इस तथ्य पर विश्व स्वास्थ संगठन ने भी मुहर लगा दी है। बावजूद इसके कोविड-19 के इलाज में इसे आईसीएमआर ने शामिल रखा है। पिछले सात महीने में देखा गया है कि आईसीएमआर और डब्ल्यूएचओ की रुचि मरीजों के इलाज में कम, पैनिक क्रिएट करने में अधिक रही है। सरकार ने महामारी से जूझते लोगों को नागरिक होने का हक तो नहीं दिया मगर उनके साथ नाइंसाफी हर पल हुई। ऐसे दौर में हमारी अदालतें भी लोकहित के लिए नहीं बल्कि कुछ लोगों के हितों के लिए काम करती नजर आईं। वह सत्ता-सियासत के फायदे के लिए झटपट सुनवाई करने में जुटी थीं। चुनावी दौर में अब कोविड-19 वैक्सीन के नाम पर वोट हासिल करने की कोशिश हो रही है। देश के हालात देखकर 1904 में लिखी गई हेनरी की पुस्तक कैबेज्स एंड किंग की याद आ गई, जिसमें बताये गये बनाना रिपब्लिक जैसी हालत हमें अपने ही देश में दिख रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट प्रशांत भूषण ने एक ट्वीट किया कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति का पद संभालने वाले शरद अरविंद बोबडे मध्य प्रदेश सरकार के विशेष विमान से कान्हां नेशनल पार्क और अपने गांव गये। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आखिर जस्टिस बोबडे को निजी भ्रमण के लिए विशेष विमान क्यों दिया? बोबडे को दल बदल करने वाले विधायकों की अयोग्यता पर सुनवाई करनी है। हम इसके पहले चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस सदाशिवम को कुछ विशेष मामलों के फैसलों के चलते उपकृत किये जाने से अवगत हैं। इन लोगों की राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका सवालों में है। इन सभी ने किसी का हक भी मारा और नाइंसाफी भी की। इनको क्या हासिल हुआ, इस पर चर्चा नहीं करूंगा मगर इनके कारण न्यायपालिका की विश्वसनीयता और सम्मान गिरा, यह हम सभी के लिए चिंता का विषय है। हम चुनावों में दूसरों पर आक्षेप करते हैं मगर अपने दामन में नहीं झांकते। सभी जानते हैं कि न कुछ लेकर आये थे और न ही कुछ लेकर जाएंगे। मगर हम बहुत कुछ पाने के लिए अपने जमीर तक को बेच देते हैं। सोचिए, समझिए और फैसला कीजिए कि आप देश को क्या बनाना चाहते हैं? अपनी भविष्य की पीड़ी को क्या देकर जाना चाहते हैं?
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)