I am also Police : मैं भी पुलिस

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पिछले सप्ताह एक फिल्म रिलीज हुई – ड्रीम गर्ल। लगभग सारे अखबारों ने इसे पांच में तीन से ऊपर की रेटिंग दी। पहले सप्ताह ही कमाई पचहत्तर करोड़ रुपए के पार गई। वो भी तब जब कि इसमें कोई खान या कपूर जैसा बिकाऊ स्टार नहीं था। कहानी भी घिसी-पिटी थी। रोजगार ढूंढ़ता हीरो, किसी लड़के के गले पड़ने को बिलकुल तैयार जिम-फिट हिरोइन और छोटी पुलिस के फूहड़ कैरेक्टर। जब बाजार 130 करोड़ का हो और लोगों के पास समय ही समय हो तो कुछ भी बेच लो! वैसे तो पूरी दुनियां में पुलिस का मजाक बनाया जाता है लेकिन बॉलीवुड वाले सबके बाप हैं। इन्ही की फैलाई सोच है कि पुलिस लोगों को जुते की यार समझती है और लोग पुलिस को खून चूसने वाला जोंक।
कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन उस समाज का क्या करें जिसकी पहली भाषा ही विदेशी है। उन लोगों को क्या कहें जो अंग्रेजी को ही ज्ञान समझ बैठे हैं। वैज्ञानिक शोध के मुताबिक अनेक भाषायें सीखने से बुद्धि तेज होती है। लेकिन जब स्कूल में अधकचरी अंग्रेजी की मार हो और घर में देशी चलती हो तो बच्चा बीच में ही उलझ कर रह जाता है। सोच की धार कुन्द पड़ जाती है। किताबें बोझ बन जाती है। शौक के लिए पढ़ने की बात तो दूर, नौनिहाल परीक्षा के लिए भी कोचिंग इंस्टिट्यूट के नोट और ट्यूटरों के गेस-पेपर पर नैया पार लगाते हैं। मकसद अंक हासिल करना होता है ना कि समझ या हुनर विकसित करना। एक बार डिग्री मिली नहीं कि  ‘यह लो अपनी लकुटी कमलिया बहुतहिं नाच नचायो’ के धुन पर किताबों से हमेशा-हमेशा के लिए तौबा कर लेते हैं। दोष सिर्फ पढ़ने वालों का नहीं है। अंग्रेजी साहित्य का संदर्भ इधर किसी के पल्ले नहीं पड़ता। दिखावे के लिए कितना भी सिर हिलाएं, वाह-वाह करें, ‘मैकबेथ’ और ‘वार एंड पीस’ जैसी किताबें तो सीधे सिर के ऊपर से जाती है। स्थानीय भाषा में पढ़ने वाले रहे नहीं सो लिखने वाले भी नदारद ही हैं। लिटररी फेस्टिवल भी इक्का-दुक्का ही होते हैं। उसमें भी अंग्रेजी वाले ही हावी रहते हैं। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषियों को कभी भूले-भटके माइक दे भी दिया जाय तो लगता है कि ये बाहर ही ठीक थे। टीवी-इंटर्नेट ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है। सोशल मीडिया एप्स पर तैर रहे मीम और विडीओ में लोग इतने रमे हैं कि चार सौ पन्ने की किताब खरीद कर पढ़ने की बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं।
मुझे नहीं लगता कि राष्ट्रनिर्माण में बॉलीवुड की कोई सकारात्मक भूमिका रही है। देश की तो छोड़िए, विदेशों में भी ये भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा ठेकेदार बना बैठा है। अभिनेता तारे-सितारे बन गए हैं। अपने को भारतीयता का अग्रदूत-राजदूत समझते हैं। ये अलग बात है कि निजी जीवन में इनके कारनामे रोज ही अखबारों के पन्ने भरते हैं। इनके अंधभक्त और पीआर वाले लीपा-पोती कर मामला चमकाये रहते हैं। ज्यादातर अंगूठा-टेक, आंठवी पास हैं लेकिन संवेदनशील मामलों में भी बेसिरपैर हांकना अपना विशेषाधिकार समझते हैं। सबको पता है पाकिस्तान का वजूद ही भारत-विरोधी विचारों पर है फिर भी अमन की आशा में दिया जलाने बाघा बॉर्डर तक पहुंच जाते हैं। नब्बे के दशक की एक मशहूर ऐक्ट्रेस ने नेपाल को भारत का एक खूबसूरत हिस्सा बताकर दंगा तक करवा दिया था। भूगोल का इस देवी को इतना ही ज्ञान था। अपने को कानून से ऊपर समझते हैं। कुछ भी करके बच जाते हैं। सोए पर गाड़ी चढ़ा दें, दो-चार मार दें फिर भी क्या मजाल कि इनका बाल भी बांका हो जाए!
बॉलीवुड आजादी के शुरू के बीस-पच्चीस साल तक तो डाकुओं-साहूकारों-जमींदारों के जुल्म के नजारे बेचती रही। आम लोगों की बदहाली का रोना रोती रही। फिर ‘ऐंग्री यंग मैन’ टाइप के कैरेक्टर को सिस्टम से भिड़ा दिखाकर माल कूटा। जब इसका स्कोप नहीं रहा तो  रंगीनियों पर उतर आयी। कहना मुश्किल है कि ये हकीकत दिखाते हैं कि लोगों को एक विशेष दिशा में भटकाते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी और सृजनात्मकता-रचनात्मकता के नाम पर ये प्रजातंत्र को नपुंसक और व्यवस्था को नकारा दिखाते हैं। सेंसर बोर्ड में बैठे पेंशनधारी भी मजे ही लेते हैं। परिणाम ये है कि विदेशों में भारत की क्षवि एक बदहाल देश की बनी हुई है। बॉलीवुड ने कभी इसे इससे उबरने नहीं दिया। पश्चिमी मीडिया और इनाम बांटने वालों ने भी चुन-चुनकर उन्हीं फिल्मों पर हाथ रखा जिसमें भारत को एक गरीब, अनपढ़ और अंधविश्वासी देश की तरह पेश किया गया।
बॉलीवुड को जब देश की खाट खड़ी करने से कोई गुरेज नहीं है तो ये पुलिस को कहां से बख्शेगी। बड़े अधिकारियों को जालसाज और छोटे को ठग-बदमाश घोषित कर रखा है। इससे दोहरी मार पड़ी। एक तो लोगों में भ्रम पैदा हुआ कि पुलिस निकम्मी है। दूसरे, इसे देख-देख पुलिस में भर्ती होने वाले सीखने लगे कि कैसे देश और समाज का बेड़ा गर्ग करना है। सरकार सोचती है कि सेन्सर किया तो बेवजह का बवाल खड़ा होगा। पुलिस सोचती है कि इन्हें जो दिखाना है दिखाने दो, लोग क्या सोचते हैं परवाह किसे है?  परिणामस्वरूप, फिल्म वाले जो एक छोटे-मोटे गैंग की घुड़की मात्र से स्क्रिप्ट ही बदल देते हैं, पुलिस और सरकार की ऐसी-तैसी करने में बिलकुल नहीं झिझकते। इन्हें कौन समझाए कि बॉलीवुड की फिल्में साहित्य भी हैं, इतिहास भी और देश की आर्थिक-सामाजिक स्थिति की जनसम्पर्क डॉक्युमेंटरी भी। इन्हें चाहिए कि पैसे के चक्कर में गलत रोल-मॉडल ना खड़े करें। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की स्थिति की गलत और पश्चिमी देश-लुभावन नैरेटिव ना बनाएं।