भारत में कोरोना को हराने के लिए हर नागरिक ने वही किया जो देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई दामोदर दास मोदी ने समय-समय पर सुझाया। हुजूर ने कहा ताली-थाली बजाओ, तो ताली-थाली बजाई गई। दीये जलाओ तो दीये जलाए गए। और तीसरे इवेंट में उनने आसमान से फुल बरसाने का प्लान दिया उसमें भी सबने पूरा सहयोग किया। हालाकि सब ये अच्छे से जानते थे कि यह पीएम की प्रतीकात्मक पहल है। मोदी का पीआर इवेंट है बावजूद इसके उनके इस इवेंट को सबके सब सफल बनाने में जुट गए। हुजूर की इन प्रतीकात्मक पहलों का किसी ने भी विरोध नही किया।
ऐसा नही है कि उनका विरोध नही किय जा सकता था, लेकिन सबने उनका साथ दिया। आज जनता से लेकर हर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दलगत राजनीति से उपर उठकर उनके हर पीआर इवेंट को सफल बनाया जबकि वे सब जानते थे कि एक समय के बाद मोदी इसका राजनीतिक लाभ उठाने में पीछे नही हटेगें बावजूद इसके सबने एकजुटता दिखाई। इस एकजुटजा और हर कहे को मान्य करने के लिए आखिर क्यूं नरेन्द्र मोदी को अपने मुख्यमंत्रियों का एहसान मंद होना चाहिए। ये बात किसी से छूपी नही है कि कोरोना को लेकर किए गए अनेक फैसलों से पीएम ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कई दफा दूर ही रखा है, जबकि उनको चाहिए था कि इस बीमारी के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई में पारदर्शिता बरत कर हर राज्य को उतनी ही तवज्जो देते जितनी अपने लोगों को। जो भी निर्णय लेते उसमें राज्य सरकारों को शामिल करते लेकिन ऐसा नही किया, कई मौकों पर हमने देखा भी।
देश का पीएम होने के नाते मोदी को चाहिए था कि इस बीमारी को हराने में जो भी इंसान उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा था उन सबको उनके अधिकार क्षेत्र का पावर देकर इस लड़ाई का विकेन्द्रीकरण करते लेकिन ऐसा न कर केन्द्रीयकरण पर ही जोर दिया। दूर्भाग्यवश सारे फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय से ही होते रहे। और आज जो स्थिति निर्मित हुई है, सामने जो संकट खड़ा हुआ है यह उसी का परिणाम कह सकते है। हुजूर ने देश को जोन में बांटने के समय भी मुख्यमंत्रियों को कोई तवज्जों नही दी। जबकि पीएम को चाहिए था कि जोन का बंटवारा करते समय मुख्यमंत्रियों से विशेष रूप से सलाह लेते और उन सबकी सलाह को तरजीह भी दी जाती। दरअसल सच तो यह है कि देश में जो जोन बनाए गए, वह केंद्र सरकार के द्वारा नहीं, स्टेट लेवल पर डिसाइड होने चाहिए थे। हर जिले के लिए महामारी से निबटने की अलग-अलग योजना तैयार होनी चाहिए थी। बीमारी की गंभीरता को समझते हुए राज्य स्तरीय कार्रवाई योजना को अमल में लाना चाहिए था। संकट का पता लगाने और उसे संभालने के लिए राज्य, एनडीएमए के आपदा प्रतिक्रिया कोष का उपयोग किया जा सकता था। हर प्रदेश का जिला आपातकालीन केंद्रों से सुसज्जित है। इन सबका सदुपयोग करके जिला मजिस्ट्रेट को आकस्मिक कमांडर बनाया जा सकता था ताकि माऊनिटरिंग बेहतर हो सकती। राज्य स्वास्थ्य विभाग और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत एक निजी सीमित कंपनी व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण, मास्क और जैविक सूट का स्टॉक बनाए रखती लेकिन इस तरह के आवश्यक मसलों को सीरे से नकार दिया। असल में ऐसे समय में पीएम को हठधर्मिता को दरकिनार कर सबको साथ लेना चाहिए था, पर वे यह समझदारी दिखा नही सके। अब तमाम प्रदेशों के सीएम यह कहते हुए देखे जा सकते है कि केंद्र ने जो रेड जोन बनाए हैं, बहुत जगह पर वह ग्रीन जोन है। और बहुत सी जगह पर जो ग्रीन जोन बनाए गए है, वह रेड जोन में है। जोन का बंटवारा लोकल स्तर पर डिसाइड होना चाहिए था लेकिन नही हुआ। ये स्थिति मोदी द्वारा फैसलों को केंद्रीकृत करने से पैदा हुई है। असल में उनको एक सुलझे हुए पीएम के नाते राज्य सरकारों को, जिलाधिकारियों को अपने पार्टनर के तौर पर देखना चाहिए था और उन सबकी सलाह को तवज्जो देते हुए अमल में लाना चहिए था। दरअसल उनको कोरोना से लड?े के लिए मजबूत सीएम, स्थानीय नेता, डीएम की जरूरत पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए था लेकिन ऐसा नही किया और गलतियों को स्वीकार करने की बजाय चुप्पी साध ली। खुशी की बात तो यह है कि मोदी की इन हरकतों के बाद भी किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने अपनीश्रेष्ठता का घमंड नही दिखाया और न ही किसी प्रकार का विरोध किया। हां कई मौकों पर नाराजगी जरूर सामने आई। इस बात से सभी अवगत है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड़ ट्रंप को वहां के राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ऐसी कोई सुविधा नही दी। जब भी मौका मिला उनकी नीतियों का विरोध करने सडकों पर उतर आए। यहां ये कहे कि एक बार नही बल्कि कई बार ट्रंप को जलीलता का सामना करना पड़ा तो अतिश्योक्ति नही होगा।
संजय रोकड़े
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। य़ह इनके निजी विचार हैं)