बात 2015 की है। नीतीश कुमार तीसरी बार राष्ट्रीय जनता दल की मदद से चुनाव में जीत हासिल की और बिहार की सत्ता संभाला। करीब 17 वर्षों के बाद भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर बिहार में विधानसभा का चुनाव जीतना कई मायनों में नीतीश कुमार के लिए खास था। उत्साह से लवरेज नीतीश कुमार ने राजनीति और शासन में कुछ अनोखा करने का निर्णय लिया। करोड़ों रुपए की राजस्व हानि को स्वीकार करते हुए पूरे प्रदेश में शराबबंद करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। देश में चहुंओर इस अद्भुत निर्णय को लेकर चर्चा शुरू हो गई। कई दृष्टिकोण से इस कदम के सफल-असफल होने के फलसफे गढ़े गए। लेकिन अब तक सुशासन का तमगा हासिल कर चुके नीतीश कुमार अपने इस निर्णय पर अडिग रहे। समाज का एक बड़ा तबका नीतीश कुमार के इस अभूतपूर्व निर्णय से खुश हुआ। नीतीश कुमार भी एक कदम आगे बढ़ कर इस मिशन को सफल बनाने और जनभावना को अपने पक्ष में करने का निर्णय लिया। बिहार सरकार ने निर्णय लिया कि नशा मुक्ति और शराबबंदी को जनआन्दोलन का रूप दिया जाए और इसके लिए 21 जनवरी, 2017 को पूरे सूबे में मानव श्रृंखला बना कर पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी एक संदेश दिया जाए। नीतीश कुमार इस मामले में सफल रहे। बिहार सरकार के इस निर्णय में राज्य की सभी पार्टियों ने साथ दिया और बढ़-चढ़ कर इस कार्यक्रम को सफल बनाया। पूरे प्रदेश में सरकार के इस निर्णय के समर्थन में मानव श्रृंखला बना कर आमलोगों ने अपनी रजामंदी की मुहर लगा दी।
लेकिन नीतीश कुमार आगे चलकर लोगों के मिजाज को पढ़ने में गलती कर दी। एक राजनेता से समाज सुधारक की भूमिका में आना कोई भूल नहीं है लेकिन विकास की कीमत पर जनता को यह शायद मंजूर नहीं है। मगर, नीतीश नहीं माने और 21जनवरी, 2018 को दहेज प्रथा और बाल-विवाह उन्मूलन का आह्रवान करते हुए बिहार में दूसरी बार मानव श्रृंखला बनाने का ऐलान कर दिया। इस बार जनता आधे मन से अपनी भागीदारी निभायी। नतीजा यह हुआ कि सफलता के मापदंड पर इसे करीब 60 से 75 फीसद सफल माना गया। अब बात जल जीवन और हरियाली से जुड़ी मानव श्रृंखला की। जलवायु परिवर्तन और मानव जीवन पर इसके बढ़ते दुष्प्रभाव को कोई कैसे इनकार कर सकता है। यह देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए बड़ी चुनौती है कि हम अपने पर्यावरण को कैसे बेहतर करें। बिहार, जो अब तक देश में सबसे शुद्ध पेयजल के लिए अव्वल माना जाता रहा है, पेयजल की संकट से घिरता जा रहा है। पिछले साल की गर्मी में राज्य के करीब 80 फीसद इलाके में भू जलस्तर काफी नीचे चला गया। सरकार के स्तर पर त्राहिमाम मच गया। पटना जैसे शहर के कई इलाके आज भी प्रभावित है। जाहिर है, सरकार ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया। बिहार सरकार ने पर्यावरण संतुलन को योजना के रूप में स्वीकार करते हुए करीब 24000 करोड़ रूपए के बजट का आवंटन भी कर दिया। लेकिन इस योजना के सफल होने के लिए जनभागीदारी का होना पहली शर्त मानते हुए सरकार ने एक बार फिर जल-जीवन हरियाली जैसे नारों के साथ पूरे प्रदेश में मानव श्रृंखला बनाने का निर्णय लिया। सरकार ने इसके लिए तमाम स्तरों पर तैयारी की। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ सरकारी स्तर पर भी हर ताकत झोकने के काम में शासन और प्रशासन जुट गया। तारीख तय हुई 19 जनवरी, 2020। लेकिन पूरे ताम-झाम के साथ ऐलान और तैयारियों का नतीजा संतोषप्रद नहीं रहा। सरकारी आंकड़ों की मानें तो मानव श्रृंखला सफल रही लेकिन हकीकत में बमुश्किल सफलता के मापदंड पर इसे 25 फीसद से ज्यादा सफल नहीं माना जा सकता है।
इसे असफल होने के कई वजह माने जा रहे हैं। पहली वजह, जनप्रतिनिधि इस विषय को लेकर दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके। विरोधी दल से जुड़े जनप्रतिनिधियों ने खुलकर विरोध किया। उनकी नजर में इसे सरकार की फिजूलखर्ची बताया गया। विरोधी दल के नेताओं, खासकर राबड़ी देवी और तेजस्वी ने सरकार को इस मुद्दे पर धो दिया। यहां स्मरण करना जरूरी है कि नीतीश सरकार की नशाबंदी को लेकर आयोजित मानव श्रृंखला के आयोजन में सभी दल के नेताओं और जनप्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। सबों की भागीदारी से ही वर्ष 2017 का मानव श्रृंखला वास्तव में एक एतिहासिक आयोजन के रूप में आज भी दर्ज है। सरकार की नीतियों को जन-जन तक ले जाने और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने में शिक्षकों की बड़ी भूमिका होती है। मगर पिछले करीब 10 वर्षों से नीतीश सरकार और राज्य के शिक्षकों का रिश्ता बेहद खराब हो चला है। बिहार सरकार, शिक्षकों को सरकारीकर्मी नहीं मानती है। कई सालों से सरकार और शिक्षकों के बीच मुदयी-मुदालय का संबंध बना हुआ है। इन दोनों के बीच की लड़ाई पटना हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक आज भी जारी है। अब ऐसे में इन शिक्षकों की मानव श्रृंखला में भागीदारी कितनी मन से हुई होगी, समझा जा सकता है। दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि सरकार के इस आयोजन में शिक्षक शामिल तो हुए मगर संलग्न नहीं हुए। इस बीच इन शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाए जाने का कोर्ट से मिला सीधा संदेश आग में घी का काम किया। यही कारण था कि शिक्षकों और स्कूली बच्चों की भागीदारी को लेकर अंतिम समय तक उहापोह की स्थिति बनी रही और बिहार सरकार, शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव आर के महाजन को इसी सन्दर्भ में केवल 12 दिनों में तीन विभागीय पत्र जिला अधिकारियों, पुलिस अधीक्षकों और शिक्षा अधिकारियों को लिखना पड़ा। यह पत्र क्रमश: छह, दस और उन्नीस जनवरी को जारी किए गए थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात, आम जनता इस बार पिछली बार में आयोजित मानव श्रृंखला और उनकी सफलता के आइने में इस बार के आयोजन का मूल्यांकन करने में मूड में थी। पहली मानव श्रृंखला नशा मुक्ति और शराबबंदी को लेकर हुआ था। वास्तव में सरकार इस मुद्दे पर कितना सफल है, यह हर व्यक्ति जान चुका है। शराब की खुलेआम होम डिलवरी हो रही है। थाना परिसर और पुलिस लाइन से शराब की बरामदगी होना आम बात हो गई है। बिहार में शराब का धंधा एक समानांतर आर्थिक साम्राज्य का रूप ले चुका है। यही स्थिति राज्य में मोटे तौर पर ही सही, दहेज उन्मूलन और बाल-विवाह को लेकर है। आम जनता इस बात से खिन्न है और सरकार के किसी भी ऐसे सामाजिक घोषणाओं में अब विश्वास करने और अपनी भागीदारी के लिए तैयार नहीं दिखती है।
इस बार के मानव श्रृंखला में मौसम ने भी विलेन का काम किया। देश के कई हिस्सों के साथ-साथ बिहार में रिकार्ड तोड़ ठंड पड़ रही है। सर्दी से आम जन जीवन बेहाल है। मानव श्रृंखला के दिन अहले सुबह से ही भगवान भास्कर दर्शन के लिए लोगों को ललचाने में लगे हुए थे। सुबह जब मानव श्रृंखला का वक्त था, सर्दी ज्यादा थी और इस स्थिति में सुलझे और शिक्षित अभिभावकों ने भी अपने बच्चों को घर से बाहर निकालना मुनासिब नहीं समझा। जाहिर है, स्कूली बच्चों की भागीदारी कम रही जो मानव श्रृंखला को सफल, सुन्दर और मनोरम बनाने में बड़ी भूमिका निभाती रही है। इस बार का यह आयोजन इससे वंचित रहा।
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सुनील पांडेय
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)