सूचना सही समय पर तपोवन में पहुंच जाती तो शायद वहां टनल से तुरंत लोगों को निकाला जा सकता था। लेकिन हमारे पास आपदा से जुड़े इस तरह के सूचना तंत्र भी नहीं हैं। यहां न ही आपदा की निगरानी होती है, न ही इसके प्रबंधन के लिए कोई तंत्र है। इन सबकी वजह से आपदा में जो निहित क्षमता है वह बहुत बढ़ जाती है और हादसा बहुत बड़ा हो जाता है।
विकास कार्यों के नाम पर होने वाली गतिविधियों की शुरूआत के पहले ही इन गतिविधियों का इस क्षेत्र पर कैसा प्रभाव पड़ेगा़, इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। उत्तराखंड में पिछले दिनों जो आपदा आई है, ऐसी आपदा 2012 और 2014 में भी आई थी। वर्ष 2013 की तबाही तो बहुत बड़ी थी। यहां लगातार इस तरह की आपदाएं आती रहती हैं। भूकंप, भारी बारिश के कारण बाढ़, बादल का फटना आदि यहां के लिए कोई नई बात नहीं है। वर्ष 2019 में एक ही मानसून में उत्तराखंड में 23 जगहों पर बादल फटने की घटनाएं हुई थीं। असल में यह क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील हैं।
हाल की चमोली जिले की आपदा को देखें तो इसकी कुछ वजहें उजागर होती हैं। इनमें पहली है, उत्तराखंड बहुत ही भूकंप प्रवण क्षेत्र है, जहां बहुत-सी ‘टैक्टोनिक्स फाल्ट लाइंस’ हैं। उनकी वजह से यहां लगातार भूकंपीय हलचलें होती रहती हैं और बड़ा भूकंप आने का खतरा बना रहता है। इस कारण भूस्खलन की आशंका भी बनी रहती है। यह बहुत ऊंचाई वाला क्षेत्र है जहां काफी ग्लेशियर हैं और ग्लेशियर क्षेत्रों में भी लगातार भूकंप आते रहते हैं। नतीजे में यहां पर हिमस्खलन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। साथ ही जहां ग्लेशियर झीलें हैं, वहां भी इन झीलों के टूटने की आशंका बढ़ जाती हैं। यहां बर्फवारी भी बहुत ज्यादा होती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलकर छोटे होते जा रहे हैं और इसकी वजह से जो ग्लेशियर झीलें बनती हैं उनके टूटने से बाढ़ ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड आने की आशंका बनी रहती है। दूसरी वजह है, उच्च-पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यहां हिमस्खलन भी होता रहता है और अत्यधिक बारिश के कारण बाढ़ आने की आशंका बनी रहती है। जो पानी बरसता है, वह कई जगहों पर बहुत जल्दी नदी में उतर आता है।
इसका कारण वनों की कटाई है। इस क्षेत्र में पहले जहां भी प्राकृतिक जंगल थे, वहां बारिश आने पर पानी को अवशोषित करने की क्षमता थी। जहां पर प्राकृतिक जंगल खत्म हो गये, उन जगहों पर बारिश के पानी को अवशोषित करने की क्षमता कम हो गई है। इनमें जलवायु परिवर्तन के जुड़ जाने से बर्फबारी, बारिश आदि में भी परिवर्तन आ रहा है। परिणामस्वरूप यहां आपदा आने की आशंका में वृद्धि हुई है। त्रासदी का तीसरा कारण है, विकास कार्यों के नाम पर क्षेत्र में होने वाली दखलंदाजी, जैसे हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट्स, सड़कें, टनल, ब्लास्टिंग, माइनिंग आदि।
ऐसी गतिविधियां आपदा आने की आशंका कई गुना बढ़ा दे रही हैं। दिक्कत है कि इन परियोजनाओं को शुरू करने के पहले इस इलाके का जिस तरह से अध्ययन होना चाहिए, नहीं होते हंै। इन परियोजनाओं का इस क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा, वह ठीक तरह से पता ही नहीं होता। कायदे से इस क्षेत्र के अध्ययन के बाद एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत निर्णय होना चाहिए कि फलां परियोजना इस क्षेत्र के अनुकूल है या नहीं।
इस तरह की परियोजनाएं हादसे को इसलिए न्यौता देती हैं कि इन्हें बनाने के लिए वनों की कटाई होती है, नदी में जैव-विविधता खत्म हो जाती है और ढलान में भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है। चौथा कारण है, हाइड्रो-पावर जैसी परियोजनाएं, सड़कें, रेलवे लाइन आदि बनाने में होने वाला नियमों का उल्लंघन। रेणी गांव, जहां से इस हादसे की शुरूआत हुई, वहां ‘ऋषिगंगा हाइड्रो-पावर बनाने के लिए ब्लास्टिंग, माइनिंग हो रही थी और गांव के लोगों ने इस परियोजना का विरोध किया था।
इसे लेकर उच्च न्यायालय में याचिका भी लगाई गई थी, लेकिन इसके बावजूद यह परियोजना शुरू हुई़ और नतीजे में आपदा क्षमता में कई गुना की वृद्धि हो गई। इन परियोजनाओं को बनाने और पूरा करने के क्रम में लाखों क्यूबिक टन कीचड़ पैदा होता है जो सीधा नदी में फेंक दिया जाता है। यह नियमों का स्पष्ट तौर पर उल्लंघन है।
यह जानते हुए कि उत्तराखंड बेहद संवेदनशील क्षेत्र है, ऐसी परियोजनाओं को बनाते समय नियमानुसार सभी प्रक्रियाएं पूरी होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। उत्तराखंड के ‘डीएमएमसी’ (डिजास्टर मैनेजमेंट एंड मॉनिटरिंग सेंटर) ने 2012 में ही सुझाव दिया था कि पूरे उत्तराखंड में विकास कार्यों के लिए कहीं भी विस्फोटक का उपयोग नहीं होना चाहिए़, लेकिन इस सुझाव को अनसुना कर दिया गया।
हिमांशु ठक्कर
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)