ग्रेट-डिप्रेशन 1930 के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को सलाह देने वाले अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज के सिधांत यूं ही नहीं आर्थिक नीतियों का प्राण बन गए, उन्होंने सिखाया कि रोजगार ही मांग की गारंटी है, लोग खर्च तभी करते हैं जब उन्हें पता हो कि अगले महीने पैसा आएगा। अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए मांग को बढ़ाने कि जरूरत है और मांग बढ़ाने के लिए रोजगार की। हालांकि 2017 के बाद के आंकड़े कोई और ही सूरत बयां करते हैं। क्रिसिल के अनुसार भारत को मध्यम अवधि में वास्तविक जीडीपी के 13 प्रतिशत का स्थायी नुकसान होगा।
यह अन्य एशिया-प्रशांत कि अर्थव्यवस्थाओं के 3 प्रतिशत के औसत नुकसान से बहुत अधिक है। स्थायी नुकसान का मतलब है कि अर्थव्यवस्था कोविड पूर्व जीडीपी मूल्य को पुनर्प्राप्त नहीं कर पाएगी। नकदी के लिहाज से यह घाटा करीब 30 लाख करोड़ रुपये का होगा। यह भयावय आर्थिक मंदी बड़े पैमाने पर बेरोजगारी को बढ़ाएगी। भारत में अभी 3.5-5 करोड़ बेरोजगार लोगों का एक समूह मौजूद है। महामारी के बाद से 2.1 करोड़ वेतनभोगी लोगों ने नौकरियों को खो दिया है। 3.5-5 करोड़ बेरोजगारों के इस समूह में प्रत्येक माह 15 से 59 आयु वर्ग के 20 लाख लोग बढ़ते हैं।
लेकिन चूंकि हमारी श्रम भागीदारी दर सिर्फ 40 प्रतिशत है, लिहाजा हर महीने लगभग 8 लाख लोग ही रोजगार की तलाश करते हैं। विकसित देशों में 60 प्रतिशत से अधिक की तुलना में भारत की श्रम भागीदारी दर मात्र 40 प्रतिशत है। लेकिन इतने कम श्रम भागीदारी दर पर भी, भारत को लगभग 96 लाख नई नौकरियां बनाने की आवश्यकता है। इस वित्तीय वर्ष के अंत तक अगर कोई रोजगार ना जाए तो भी भारत को लगभग 4.5 करोड़ नौकरियों की आवश्यकता होगी। मैकिन्से के एक हालिया अध्ययन के मुताबिक भारत को आने वाले दशक में 9 करोड़ से 14 करोड़ तक गैर-कृषि नौकरियों की आवश्यकता होगी।
लेकिन 2016-17 और 2019-20 के बीच के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में नियोजित लोगों की कुल संख्या 40.7 करोड़ से 40.3 करोड़ हो गई है। अगर नौकरियां 2016-17 से 2019-20 में बढ़ने की बजाय कम हो गई हैं तो 96 लाख नई नौकरियों की बढ़ोतरी कैसे होगी? इसके अलावा प्रत्येक वर्ष, करीब 1 करोड़ भारतीय युवा काम की मांग करेंगे। उन्हें रोजगार कौन उपलब्ध कराएगा? दूसरी तरफ उच्च वेतनभोगी कर्मचारियों जैसे कि- इंजीनियरों, चिकित्सकों और विश्लेषकों ने लॉकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर नौकरी खोने की मार झेली है।
सीएमईआई के अनुसार मई- अगस्त 2020 के दौरान पेशेवर रूप से यह उच्च श्रेणी रोजगारों कि संख्या 1.22 करोड़ तक गिर गई। 2016 के बाद से यह सबसे कम है। मई-अगस्त 2019 में इन कर्मचारियों की संख्या 1.88 करोड़ थी। हैरानी की बात यह है कि 2016 के बाद से श्रमिकों की इस श्रेणी में कोई वृद्धि नहीं देखी गई है। सरल में समझें तो उच्च श्रेणी के इन वेतनभोगियों ने 66 लाख रोजगार गवाए हैं। कोविड से पहले, 2019 में एक शोध पत्र प्रकाशित किया गया था। इस विश्लेषण में पाया गया कि 2011-12 और 2017-18 के बीच पहली बार स्वतंत्र भारत में कार्यरत लोगों की कुल संख्या में गिरावट आई है।
इसके अनुसार 2011-12 में कुल रोजगार 47.4 करोड़ से 2017-18 में 90 लाख घटकर 46.5 करोड़ रह गए। 2017-18 में बेरोजगारी दर अपने 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई थी। 2011-12 में कुल बेरोजगारों की संख्या 90 लाख से बढ़कर 2017-18 में 3 करोड़ हो गई थी। हालात हमेशा से इतने नासाज नहीं थे, बेरोजगार युवाओं की कुल संख्या 2004-05 में 89 लाख से आबादी बढ़ने के बावजूद मामूली रूप से बढ़कर 2011-12 में 90 लाख हो गई, लेकिन 2017-18 में यह विस्फोटक रूप से बढ़कर 2.51 करोड़ हो गई। सवाल यह है कि इसमें सरकार क्या कर सकती है?
सरकार को संगठित क्षेत्र में रोजगार संरक्षण यानी वेतन सहायता कार्यक्रम शुरू करने चाहिए थे। अमेरिका व यूरोप की सरकारें कंपनियों को नौकरी बनाए रखने और वेतन न काटने के लिए सीधी मदद करती हैं। इसलिए वे आपदा से बेहतर लड़ पा रहे हैं। भारत में भी झारखंड की सरकार 2016 में कपड़ा उद्योग के लिए एक स्कीम लाई थी जिसमें तनख्वाहों का 40 प्रतिशत खर्च सरकार उठाती थी। इसे खासा सफल पाया गया था। ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन कि हम सरकारों की मंशा पर थाली-ताली पीट कर नाच उठते हैं, नतीजों से उन्हें नहीं परखते और हर दम ठगे जाते हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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