कोरोना का छठा महीने चढ़ने को है। एक तरह से देखें तो चीन के एक चमगादड़ ने वो कर दिया है जो काल्पनिक एलीयन्स हॉलीवुड की फिल्मों में भी नहीं कर पाए। हमला जानलेवा कम, बेवश करने वाला ज्यादा है। सारी सरकारें सारा काम छोड़ वाइरस को ढूंढने और उसे मारने में लगी है। कहां ढूंढ़ें ये पता नहीं था सो मान लिया कि ये किसी में भी हो सकता है। ये उछल कर एक से दूसरे और दूसरे से अन्य तक ना फैल जाए इसके लिए लाक्डाउन ले आए। लोगों को घर बैठने, सोशल डिसटेंसिंग रखने, हाथ धोने और मास्क पहनने के लिए कहा। सोच थी कि जब तक इलाज के लिए जरूरी संख्या में बेड और अन्य तैयारी ना हो जाए, संक्रमितों की संख्या इस तरह से सीमित रखी जाय जिसके कि लोग इलाज के अभाव में ना मरने लगें।
बचपन में महामारी के बारे में सुना करते थे। गांव में इसे दैवी-प्रकोप मानते थे। चेचक तो होते भी देखा। पूरे शरीर पर दाना-दाना। बीमार को एक कमरे तक सीमित कर दिया जाता। नीम के पत्ते से सहलाते। कहा जाता कि माता आयी हुई है। सब कुछ एक धार्मिक रीति-रिवाज की तरह किया जाता। कोई इलाज था नहीं सो माता अपना प्रवास पूरा करके ही जाती। तब कहीं जाकर लोग चैन की सांस लेते। माता के रुष्ट होने के हर पल के अंदेशे से मुक्ति मिल जाती। पंडित इसे छठ, दुर्गा पूजा इत्यादि की पूजा-विधि में त्रुटि का दंड बताते।
साल 2020 जब शुरू हुआ तो विचारक नाभिकीय युद्ध के खतरे, जलवायु परिवर्तन के प्रति सरकारों की उदासीनता और सूचना-तकनीक से आदमी के अप्रासंगिक होने की सम्भावना से चिंतित थे। ऐसे में कोरोना ने पीछे से आकर एक तरह से धप्पा बोल दिया है। काम-काज, खेल-कूद, बाजार-सिनेमा, मेल-जोल, सैर-सपाटा, जो कुछ ही महीने पहले हमारी जीवनशैली हुआ करती थी, कहीं खो गई है। किसी को पता नहीं है कि ये कब लौटेगी या लौटेगी भी कि नहीं। कोरोना किस तरह के जीवनशैली की अनुमति देगी इसका भी किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। चिकित्सा विज्ञान इसके लिए वैक्सीन ढूंढने में लगा है। आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी आदमी पर इसका प्रयोग भी कर रहा है लेकिन इंग्लैंड में कोरोना के घटते संक्रमण को लेकर चिंतित है कि कहीं ऐसा ना हो कि प्रयोग के लिए पर्याप्त मरीज ही ना मिले।
जो भी हो, एक बात तो पक्की है। कोरोना और सरकारों के बीच का सरोकार लॉकडाउन से आगे बढ़ेगा ही बढ़ेगा। एक अध्ययन के मुताबिक अगर जल्दी से कुछ नहीं किया गया तो ठप्प कारोबार से दुनियां भर में लगभग 42 करोड़ लोग गरीबी की गर्त में दोबारा चले जाएंगे जहां उनकी प्रतिदिन आय 1.9 डॉलर से भी कम होगी। अन्य बीमारियों के इलाज और वैक्सिनेशन में देरी से भी लोग मरेंगे। अमीर देश तो अपने नागरिकों के एकाउंट में पैसे डाल रहे हैं लेकिन गरीब देशों में बेरोजगारी की मार लोगों को सीधे-सीधे पड़ने वाली है। नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी का कहना है कि जैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए ‘मार्शल प्लान’ लेकर आया था कुछ वैसा ही अमीर देशों को गरीब देशों के लिए करना पड़ेगा। आधुनिक दुनियां एक दूसरे पर इतनी निर्भर है कि कोई देश अपने को अपनी सीमाओं तक समेट कर ना तो सुरक्षित रह सकता और ना ही कारगर। चाहे कितनी भी आंख मींच लें, आज की दुनियां में एक कोने में जो-कुछ हो रहा है, उसका असर कमोबेश सब पर पड़ता है। इस सप्ताह कोरोना के अलावा नेपाल और चीन से सीमा विवाद, कश्मीर में बरामद पैंतालीस किलो आरडीएक्स से लदी संट्रो कार, बंगाल और उड़ीसा में तूफान की तबाही और टिड्ढियों द्वारा उत्तर भारत के खेतों पर हमला चर्चा में रहा। ऐसे में कल्पना चावला का कथन सहज याद आता है कि अंतरिक्ष से देखने से अंदाजा लगाना मुश्किल है कि पृथ्वी नाम के इस छोटे से नीले लट्टू पर इतना बवाल मचा हुआ है। उनका रॉकेट जब उसी नीले लट्टू में दोबारा वापस आ रहा था, वातावरण के संघर्ष का ताप नहीं झेल पाया। दुनियां ने टेलीविजन पर उसे धुआं होते देखा। शरीर की बनावट में एक बात अच्छी है कि जब पीढ़ा असह्य हो तो चेतना जाती रहती है। परिणाम जो भी हो, लोग असीम पीड़ा की अनुभूति से तो बच ही जाते हैं। जब छोटे थे तो जो कुछ छोटा होता था उसे ‘चिनिया’ कहते था। विशेषकर चिनिया केला बड़ा लोकप्रिय था। छोटा मगर बेहद मीठा। चीन देश के बारे ऐसा कहना मुश्किल है। हजारों किलोमीटर की इससे सटी हमारी सीमा है। देश प्रकृति की कम, आदमी की देन ज्यादा है। फैज अहमद फैज ने कहा था कि हमने धरती और आसमान बनाया, तुमने तुर्की और ईरान बनाया। ऐसे में मान लेना चाहिए कि नोक-झोंक चलती रहेगी। स्विटजरलैंड का भाग्य कम ही देशों का होता है। नहीं तो किसी देश की संप्रभुता हमेशा उसकी आंतरिक एकता और सैन्य ताकत पर टिकी होती है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारी सीमाएं तानाशाही सरकारों वाली देशों से सटी है। जब भी उनको अपने लोगों का ध्यान भटकाना होता है तो एक धर्म और दूसरा काल्पनिक सीमा-इतिहास का शोर मचाने लगता है। मेरे बच्चे जब छोटे थे तो पूछते थे कि राष्ट्राध्यक्ष आपस में फोन पर बात कर इसको क्यों नहीं निबटा लेते? समय और साधन बच जाएगा जिसे वे अपने यहां व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने में लगा सकते हैं। अब वे बड़े हो गए हैं। समझने लगे हैं कि सरकारें पहले अपने आप को बचाती है। हम भाग्यशाली हैं कि आजादी की सांस ले रहे हैं। अनगिनत देशों में तो सरकारें अपने ही लोगों की कनपटी पर पिस्तौल लगाए रहती है। उन्हें फिजूल के झगड़े में उलझाए रखती है। वैसे, जब तक देश है, सीमाएँ हैं, सेना है, युद्ध की संभावना भी रहेगी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसकी संख्या में बेशक कमी आयी है। बात-चीत से मामला टल जाता है। दूसरे देश भी बीच-बचाव को आने लगते हैं। लेकिन इसे कभी नहीं भूलना चाहिए कि सैन्य क्षमता ही किसी देश की आजादी की सबसे बड़ी गैरंटी है। कोरोना से भी लगता है दो-दो हाथ का वक्त आ गया है। हम हमेशा लॉकडाउन में नहीं रह सकते। इस लड़ाई में हैंड-वॉशिंग और फेस-मास्क हमारा हथियार है। जरूरी है कि इसका अधिकाधिक उपयोग करें और अपने काम पर लग जाएं। सावधानी के साथ ही सही अर्थव्यवस्था को जल्दी पटरी पर वापस लाने में ही असली बचाव है।
(लेखक हरियाणा सरकार में प्रमुख सचिव के पद पर कार्यरत हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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