हिन्दी के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती भाषाई सौंदर्य के साथ अपने मूल अस्तित्व को बचाए रखने की है। हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के बीच देश के अंदर जिस तरह अंग्रेजी को लेकर दबाव का वातावरण बन रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। एक भाषा के रूप में अंग्रेजी सहित किसी भी भारतीय भाषा को सीखना अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिन्दी या भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषा, विशेषकर अंग्रेजी न जानने वालों को जिस तरह समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। कुछ वर्ष पूर्व देश में सभी प्रमुख परीक्षाओं में हिन्दी माध्यम वाले विद्यार्थियों का बोलबाला रहता था। अब स्थितियां बदली हैं। अब तो देश के चर्चित हिन्दी माध्यम के विद्यालय भी स्वयं को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित कर रहे हैं। अंग्रेजी के इस दबाव से अध्यापन के स्तर पर भी मुक्ति जरूरी है। हिन्दी के प्रति अनुराग की वृद्धि के बिना यह संभव नहीं है। हिन्दी के अस्तित्व संरक्षण के लिए प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी या भारतीय भाषाओं को बनाया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिए।
दुनिया में आधुनिकीकरण के दौर में हिन्दी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा मानी जा रही है। कम्प्यूटर के लिए संस्कृत को सबसे निकटस्थ भाषा बताए जाने की पुष्टि तो तमाम बार हो चुकी है, ऐसे में संस्कृत परिवार की भाषा हिन्दी को आगे कर पूरी दुनिया में श्रेष्ठतम भाषागत सौंदर्य का सृजन किया जा सकता है। इसके लिए सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। भारत में हिन्दी स्वतंत्रता के बाद से लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकार रही है। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया, किन्तु इसकी सर्वस्वीकार्यता के लिए सतत व गंभीर प्रयास कभी नहीं किये गए। सरकारी कार्यालयों में महज वर्ष में एक बार हिन्दी दिवस मनाने व पंद्रह दिन का राजभाषा सप्ताह मनाने भर से इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है। लोगों के हिन्दी से आत्मसंवाद की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। साथ ही सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की स्थापना के गंभीर प्रयास करने होंगे। जिस तरह योग की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के लिए 177 देशों का समर्थन जुटाने में भारत ने सफलता पायी, उसी तरह संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषा बनने के लिए भी पहल की जानी चाहिए। हिन्दी के तमाम शब्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किये जा चुके हैं। हिन्दी भी नए रूप में दुनिया की अन्य भाषाओं के शब्दों को स्वीकार कर रही है। यह पारस्परिक स्वीकार्यता निश्चित रूप से हिन्दी को मजबूती प्रदान करेगी। हिन्दी के लिए सभी को सोच बदलनी होगी। साथ ही निर्णायक स्थितियों में बैठे लोगों की विचार प्रक्रिया में भी शोधन करना होगा। दरअसल निर्णायक स्थितियों में बैठे लोग आज भी भारतीय भाषाओं में सोचने की शैली नहीं विकसित कर पाए हैं। इसमें बदलाव लाकर ही हिन्दी को श्रेष्ठ स्थान दिलाया जा सकता है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)