Hero above Hero!: हीरो के ऊपर के हीरो!

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आमतौर पर किसी की मृत्यु के बाद उसकी आलोचना निषिद्ध है। हम सब इसे मान कर चलते हैं, कि जो मर गया, उसकी प्रशंसा ही करनी चाहिए। लेकिन मेरा मानना है, कि जिन लोगों ने सार्वजनिक जिंदगी जी हो, उनके योगदान परचर्चा अवश्य होनी चाहिए। चाहे उसके निहितार्थ आलोचना के हों अथवा प्रशंसा के। बॉलीवुड के दो नामचीन अभिनेता- इरफान खान और ऋषि कपूर मात्र 24 घंटे  के भीतर गुजर गए। दोनों की ही मृत्यु कैंसर से हुई। दोनों ही उच्च कोटिके एक्टर थे। पर जहां इरफान खान जयपुर के एक सामान्य घर से थे, वहीं ऋषि कपूर के खानदान में अभिनय की एक लम्बी शृंखला थी। उनके पिता राज कपूर और दादा पृथ्वीराज कपूर उन लोगों में से थे, जिन्होंने आधुनिक हिंदीफिल्मों की नींव रखी। इसलिए कह सकते हैं, कि ऋषि कपूर के खून में अभिनय था। जब ऋषि कपूर आठवीं क्लास में थे, उन्हें उनके पिता राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में एक रोल दिया, इसमें उन्हें राज कपूर, जो कि उसफिल्म के हीरो थे, के बचपन का रोल करना था। उन्होंने इस रोल को बहुत अच्छे तरीके से निभाया था। आठवीं क्लास में पढ़ने वाले इस बच्चे को अपनी टीचर (सिम्मी ग्रेवाल) से प्यार हो जाता है, जिसे ऋषि ने एक किशोर-सुलभउत्सुकता के साथ निभाया था। एक किशोर का स्त्री शरीर के प्रति आकर्षण की यह बेहतरीन अभिव्यक्ति थी।
इसके चार-पांच साल बाद फिल्म ‘बॉबी’ में ऋषि कपूर हीरो बन कर आते हैं। एकदम चाकलेटी हीरो। ऋषि कपूर उस समय 20-21 साल के थे। बड़े खानदान से थे, इसलिए सीधे हीरो बन गए। संघर्ष उन्होंने किया नहीं, और स्कूलीशिक्षा भी औनी-पौनी। उनका कैरियर तय था, कि वे हीरो बनने के लिए ही पैदा हुए हैं। किंतु बिना संघर्ष की सफलता आधी-अधूरी ही होती है। सेक्स और एक्सपोजर के बूते कोई फिल्म सफल तो हो सकती है, लेकिन उसके हीरो काअपना अभिनय पक्ष बहुत कमजोर होता है। जब ऋषि कपूर की फिल्म ‘बॉबी’ आई थी, मैं तब बी.एस-सी. में पढ़ता था, उम्र 18 साल के आस-पास थी। कानपुर की न्यू बसंत टाकीज में अगले हफ्ते भर के चारों शो की टिकटें फुल थीं।फिर भी हमें टिकट मिल गई, क्योंकि हमारे एक साथी जगदीश बहादुर सिंह के भाई उस इलाके के थानेदार थे। गजब की रोमेंटिक और किशोर प्रेम की गाथा थी यह। हम मित्रों ने यह फिल्म देखी और लगातार 17 बार देखी और फिर निष्कर्ष निकाला, कि राज कपूर पैसे के लिए सब कुछ बेच सकते हैं। स्त्री-अस्मिता और अपने ही बेटे के निजी क्षणों को भी। इस फिल्म में किशोर प्रेम को कुछ इस तरह से उकसाया गया था, कि लगा मानों एक किशोर के जीवन में सिर्फ प्रेम, सेक्स और विवाह ही सबसे अहम है।
कुछ ऐसी ही कहानी ‘प्रेमरोग’ में भी थी। वह भी बॉबी की ही तरह उनके पिता राज कपूर की फिल्म थी। राज कपूर का बड़ा बेटा रणधीर कपूर चूँकि बतौर हीरो फिल्मों में फ्लॉप हो चुका था, इसलिए राज कपूर हर हाल में अपने इस बेटेको फिल्मों में स्थापित करना चाहते थे। इसके लिए वे सारे नैतिक मूल्यों को ध्वस्त कर सकते थे। ‘प्रेमरोग’ में भी यह सब उन्होंने किया। इसमें भी किशोर प्रेम है। हालांकि इस फिल्म में एक संदेश विधवा-विवाह को प्रोत्साहन देना भीथा। लेकिन बॉबी में तो कोई संदेश तक नहीं था। इसी तरह ‘कर्ज’ भी ऋषि कपूर की एक चर्चित फिल्म थी, जिसे सुभाष घई ने बनाया, जो राज कपूर के बाद बॉलीवुड के सबसे बड़े शो मैन हुए। लेकिन पुनर्जन्म के सहारे वे क्या कहना चाहते थे, समझ नहीं आया। ‘अमर, अकबर अन्थनी’ में हीरो तो तीन थे, फिल्म चली भी, किंतु कोई भी अभिनय का सिक्का नहीं जमा पाया। ‘हिना’ से भी मैं ऋषि कपूर से प्रभावित नहीं कर सके। अलबत्ता ‘लैला मजनूं’ उनकी प्रभावशाली फिल्म थी। इससे एक बात तय हो गई, कि ऋषि कपूर एक प्रेमी का रोल अच्छा कर सकते हैं। इसके चलते उनको ऐसी ही फिल्में मिलीं। और वो एक सफल प्रेमी की छवि में बंध कर रह गए।
उनकी फिल्मों को देख कर मुझे सदैव लगा, कि ऋषि कपूर राजेश खन्ना और विनोद खन्ना जैसे अभिनय-प्रवीण अभिनेताओं के समक्ष बौने हैं। क्योंकि वे कभी भी बहु आयामी अभिनेता नहीं बन सके। इसके विपरीत इरफान खान अपन ेलम्बे संघर्ष से निकल कर आए थे। दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से उन्होंने प्रशिक्षण लिया। उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए खूब पापड़ बेलने पड़े। तब वे स्थापित हो सके। वे नायक कभी नहीं बन सके, लेकिन जिस भी फिल्म में काम उन्होंने किया, वे उस फिल्म में नायक पर भारी पड़े। वे एक ऐसे अभिनेता थे, जिनको भूल पाना मुश्किल है। उनकी आखिरी फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ इसी साल प्रदर्शित हुई। वह एक बेहतरीन फिल्म है।
मजे की बात, कि मुझे वर्ष 2000 तकि अमिताभ बच्चन भी कभी बहुत बड़े और बहु आयामी अभिनेता नहीं लगे। हालांकि सुपर स्टार के तौर पर वे कब के स्थापित  हो चुके थे। जबकि उनके समकालीन अभिनेताओं में राजेश खन्ना और विनोद खन्ना सदैव  लाजवाब अभिनेता लगे। इसकी वजह थी, इनकी अपनी विशेषता। भावुक दृश्यों में राजेश खन्ना का कोई जोड़ नहीं रहा। ‘अमर प्रेम’ में उनका नायिका शमीर्ला टैगोर को यह कहना- ‘पुष्पा आई हेट टियर्स!’ आज भी मील का पत्थर है। वे अपने वक्त के सभी अभिनेताओं में इसीलिए भारी पड़े। अमिताभ बच्चन के साथ वे ‘आनंद’ और ‘नमक हराम’ फिल्मों में आए। और दोनों में वे भारी पड़े। यहां कहा जा सकता है, कि इन फिल्मों में राजेश का रोल ही भारी था। पर सिर्फ ऐसा ही नहीं है, अगर वे कमजोर होते, तो फ्लॉप हो जाते। ‘नमक हराम’ जब आई थी, तब तक अमिताभ फिल्मों में बतौर नायक स्टार बन चुके थे। इसी तरह विनोद खन्ना तो बेजोड़ थे। शक्ल-सूरत और अभिनयक्षमता के लिहाज से भी। वे अमिताभ के लिए बड़ी चुनौती थे। लेकिन जब वे शिखर पर थे, तब ही ओशो के चक्कर में वे संन्यासी बन गए और उनका बतौर नायक कैरियर खत्म हो गया।
किंतु जब ऋषि कपूर की ‘दो दूनी चार’ और अमिताभ की ‘बागबां’ आई, तो लगा कि इनकी यह अभिनय क्षमता इनके स्टारडम में दब गई थी। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी ये दोनों ही अभिनेता बहुत आगे बढ़े हुए प्रतीत होने लगे। हिंदी सिनेमा की कितनी बड़ी त्रासदी है, कि यहां बाजार में बिकाऊ और स्टार अभिनेता अभिनय क्षमता के नाम पर सिर्फ सुंदर चेहरा और फालतू के करतब दिखाता रहता है। जैसे राजेंद्र कुमार अभिनय में शून्य थे, लेकिन खूब बिके। मनोज कुमार एक टाइप्ड हीरो रहे और सफल रहे। देश भक्ति के नाम पर उन्होंने बस सेक्स और मानवीय भावनाओं को ही बेचा। इसीलिए जैसे ही इनके चेहरों पर झुर्रियां पड़ने लगीं, ये बिकाऊ स्टार फिल्मों से बाहर होने लगे। इन लोगों ने बढ़ती उमर की चुनौतियों को नहीं स्वीकार किया। और बाहर हो गए।  इसके विपरीत अमिताभ बच्चन ने एक नई इबारत लिखी। वे जैसे-जैसे बढ़ाने लगे, उन्होंने वे रोल किए, जो एक स्टार के लिए दुष्कर थे। बागबां, आंखें, ब्लैक, पा, पीकू, पिंक आदि उनकी ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने अमिताभ को उस जगह खड़ा कर दिया, जहां अब उन तक पहुंचना आसान नहीं है।  ठीक इसी तरह ऋषि कपूर ने भी ‘दो दूनी चार’ से एक नई इबारत लिखनी शुरू की। लगा, कि सारे नामी-गिरामी हीरो बुढ़ापे में आकर कहीं अधिक बेहतर अभिनय करते प्रतीत होते हैं। ‘दो दूनी चार’ में ऋषि कपूर अपनी पत्नी नीतू सिंह के साथ आए। वे एक अधेड़ स्कूल टीचर का रोल करते हैं। जो दिल्ली-एनसीआर के एक स्कूल में मैथ्स पढ़ाते हैं, लेकिन इतना नहीं कमा पाते, कि एक चार पहिया वाहन रख सकें। उनका यह दर्द और परिवार के अंदर उनके विरुद्ध एकशिकायती लहजा आम मध्य वर्ग की नियति है, जिसे ऋषि कपूर ने बहुत बढ़िया तरीके से अभिनीत किया। इसके बाद ‘कपूर एंड संस’ भी उनकी लाजवाब फिल्म थी। फिर आई ‘मुल्क’ जिसमें वे एक अकेले पड़ गए बूढ़े मुस्लिम का रोल करते हैं। लाजवाब फिल्म थी। लगने लगा, कि जिस तरह अमिताभ बच्चन ने साठ के बाद अभिनय के  नए-नए आयाम स्थापित किए हैं, कुछ वैसा ही करने की होड़ में ऋषि कपूर भी हैं। लेकिन ऋषि कपूर अपनी थुल-थुल होती कायाको नहीं संभाल सके। और कैन्सर के मरीज हो गए। हिंदी सिनेमा और बॉलीवुड का यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है, कि इरफान खान की मौत को 24 घंटे भी नहीं गुजरे थे, कि एक और सितारा डूब गया।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)