इस कॉलम में लगातार दूसरे सप्ताह मैं अफगानिस्तान की चर्चा कर रहा हूं तो इसका सबसे बड़ा कारण भविष्य को लेकर पैदा होने वाली खौफनाक आशंकाएं हैं। न चाहते हुए भी हम भारतीय इसकी जद में आने वाले हैं। प्रभाव हम पर भी पड़ने वाला है और अब बात केवल तालिबान की नहीं है बल्कि इस्लामिक स्टेट या दाएश की भी है जिसने काबुल एयरपोर्ट पर धमाके करके डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जान ले ली है और उसके खूंखार इरादे भारत को लेकर ठीक नहीं हैं। इस्लामिक स्टेट की उपस्थिति कश्मीर में कई बार उजागर हो चुकी है और उसके झंडे वहां दिखते रहे हैं। हालांकि भारत में अभी तक वह कोई बड़ी हरकत करने में कामयाब नहीं हुआ है। हां, दक्षिण भारत से कुछ लोगों के इस्लामिक स्टेट में भर्ती होने की खबरें पहले आई थीं लेकिन वो सीरिया और इराक का इलाका था।
जाहिर है कि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट मजबूत होता है तो हमारे लिए भी हालात ठीक नहीं होंगे। हालांकि मुङो अपनी फौज, अपनी सरकार, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दांवपेंच में माहिर विशेषज्ञों और अधिकारियों पर भी भरोसा है लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि इस वक्त तालिबान और इस्लामिक स्टेट को लेकर भारत के लिए स्थिति अत्यंत जटिल है। अफगानिस्तान हमेशा से ही हमारा मित्र देश है लेकिन तालिबान से हमारी पटरी बैठने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हालांकि तालिबान ने कश्मीर के मसले से खुद को अलग रखकर एक खुले रिश्ते का संदेश देने की कोशिश की है लेकिन मुङो उसकी बातों पर कहीं से कोई भरोसा नहीं है। वह पूरी तरह से पाकिस्तान और चीन के प्रभाव में है जो हमारे जानी दुश्मन हैं।
लश्करे तैयबा और हक्कानी गुट तालिबान का हिस्सा हैं और यह जगजाहिर है कि वे कश्मीर में खून बहाने का रास्ता ढूंढ़ते रहते हैं। तालिबान इन्हें न रोक सकता है और न ही रोकेगा क्योंकि पाकिस्तान और चीन उसे भारत में आतंक फैलाने के लिए आतंकवादियों को पनाह और  ट्रेनिंग देने के लिए मजबूर करेंगे। हमारी रणनीति ही यह तय करेगी कि इसे रोकने में हम कितना कामयाब हो पाते हैं! यह अच्छी बात है कि अफगानिस्तान के मसले पर हुई सर्वदलीय बैठक में सभी दलों का सुर एक है। सब सरकार के साथ हैं। मगर काबुल एयरपोर्ट पर विस्फोटों ने अचानक ही पूरा परिदृश्य बदल दिया है। अब केवल तालिबान ही नहीं बल्कि इस्लामिक स्टेट की ताकत भी बड़ा मसला बन कर उभर आई है।
माना जा रहा था कि इस्लामिक स्टेट अफगानिस्तान में कमजोर पड़ चुका है लेकिन उसने अपनी ताकत फिर दिखा दी है। 2015 से अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट मौजूद है और उसकी कमर तोड़ने के लिए न केवल अफगानी फोर्स और अमेरिका बल्कि तालिबान भी हमला करता रहा है। 2019 में तो तीनों ने एक साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट को अफगानिस्तान से खत्म करने का अभियान चलाया लेकिन आईएस ने भी पलट कर कई वार किए। काबुल में लड़कियों के स्कूल पर इसी साल मई में हमले की घटना आपको याद ही होगी जिसमें 85 जानें गई थीं। इस बार काबुल एयरपोर्ट पर उसने जो हमला किया है उसे लेकर संदेह के कई सवाल भी उठ रहे हैं। सबसे पहली बात तो यह कि काबुल एयरपोर्ट के रास्ते में कई जगह तालिबान ने नाके बना रखे हैं।
हर व्यक्ति को जांच-पड़ताल के बाद ही आगे जाने की इजाजत मिलती है तो संदिग्ध हमलावर विस्फोटक लेकर वहां तक कैसे पहुंच गया? क्या तालिबानियों के वेश में इस्लामिक स्टेट के आतंकी भी काबुल में मौजूद हैं? लगता तो यही है! दूसरी बात कि इस विस्फोट का फायदा किसे मिलने वाला है? सतही तौर पर देखें तो आईएस अमेरिकी फौज को नुकसान पहुंचाना चाहता था और 13 सैनिकों की जान लेने में वे कामयाब भी रहे! मगर जरा गहराई से देखें तो इस्लामिक स्टेट के आतंक का फायदा सीधे तौर पर तालिबान को मिलता हुआ दिख रहा है। दुनिया जानती है कि आईएस विश्व स्तर पर खलीफा राज लाना चाहता है। एशिया को लेकर उसने खुरासान प्रांत की घोषणा भी कर रखी है जिसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, बांग्लादेश और भारत के हिस्से को शामिल किया गया है। इसके ठीक विपरीत तालिबान केवल अफगानिस्तान की बात करता है और वह लगातार दुनिया को यह विश्वास दिलाने की कोशिश भी कर रहा है कि अपनी धरती का उपयोग वह किसी और देश के खिलाफ नहीं होने देगा! तो क्या तालिबान के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ये विस्फोट किए गए? क्या इसके पीछे इस्लामिक स्टेट नहीं है? तो फिर कौन है? यह सवाल बहुत बड़ा है और दुनिया भर की खुफिया एजेंसियां निश्चय ही सच्चई को तलाशने में जुटी होंगी।
काबुल विस्फोट के मामले में अमेरिका ने तो इस्लामिक स्टेट का नाम भी लिया और उसके राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दावा भी किया कि उसने हमले की रणनीति बनाने वालों को मार गिराया है। लेकिन बाइडेन पर दुनिया भरोसा कैसे करे? न्यूयॉर्क की पूर्व स्टेट जज जस्मीन जीनाइन पीरो ने एक टीवी कार्यक्रम में अफगानिस्तान को लेकर बाइडेन के हर झूठ का प्रमाण सहित पदार्फाश कर दिया है। अमेरिका में बाइडेन की भारी आलोचना भी हो रही है। बहरहाल, जहां तक भारत का सवाल है तो हमें जो करना है अपने बलबूते करना होगा। हमारे लिए आईएस बड़ा खतरा है लेकिन तालिबान को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। भारत के लिए एक तरफ कुआं है तो दूूसरी तरफ खाई है।
इसीलिए मैंने पहले भी लिखा था कि तालिबान की सत्ता को मान्यता देने का फिलहाल तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। हमें धैर्य के साथ इंतजार करना चाहिए कि अफगानिस्तान में सरकार अकेले तालिबान की बनती है या उसके साथ दूसरे लोग भी सत्ता में शामिल होते हैं?।।और बड़ा सवाल यह भी कि मानवाधिकार की वहां क्या स्थिति होती है। इधर हमें इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अपनी सरजमीं पर तैयारियां पूरी रखनी चाहिए और कश्मीर में वह जड़ें जमा पाए या भारत में कहीं भी अपना स्लीपर सेल फैला पाए, इससे पहले ही उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर देने की शक्तिशाली और जीरो टॉलरेंस वाली रणनीति पर और पुख्ता तरीके से अमल करना चाहिए।
-विजय दर्डा, चेयरमैन, एडिटोरियल बोर्ड, लोकमत समूह