यान ठीक नहीं होता है। पब्लिक को उकसाकर वोट हासिल करने की नीति, कुनीति, अनीति बेहद गलत है। चाहे वह सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष। किसी के लिए भी अनर्गल प्रलाप ठीक नहीं है। निश्चित रूप से इस तरह के हालात लोकतंत्र को ही कमजोर करता है। हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी दिल्ली विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कहा है कि नफरती भाषा से संभवत: पार्टी को नुकसान पहुंचा है। बेशक, शाह की बातों और उनकी भावनाओं को पार्टी के अन्य नेता भी समझ पाते। शनिवार को भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भड़काऊ बयान देने के लिए गिरीराज सिंह को पार्टी मुख्यालय तलब कर उन्हें संयमित रहने को कहा। खैर, भड़काऊ बयान चाहे सत्ता पक्ष के नेताओं की ओर से दी जाए अथवा विपक्ष की ओर से, यह हालात कतई ठीक नहीं है। सबको संयमित होकर बयानबाजी करनी चाहिए।
आपको बता दें कि सी-वोटर ने दिल्ली की नब्ज पहचानने के लिए चुनाव से तीन महीने पहले से ही जो लाइव ट्रैकर चला रखा था, उसके अनुसार पिछले साल नवंबर में जब उसके फील्ड वर्करों ने दिल्ली के लोगों से पूछा कि वे किस पार्टी को वोट देंगे तो केवल 27% ने कहा था कि वे बीजेपी को वोट देंगे। यह आंकड़ा आगे के दिनों में घटता-बढ़ता रहा और एक समय तो वह 23% तक गिर गया। लेकिन इस साल 16 जनवरी के बाद उसमें वृद्धि होनी शुरू हुई और अंत तक आते-आते वह 37% तक पहुंच गया जो उसको वास्तव में मिले 38% मतों के आंकड़े के बहुत करीब है। इस दौरान आम आदमी पार्टी के समर्थन का उतार-चढ़ाव कैसा रहा, इस पर भी नजर डालते हैं। 53% लोगों के शुरूआती समर्थन से आरंभ होकर उसका ग्राफ अंत तक आते-आते 45% तक गिर गया। यानी 8% वोटर जो शुरू में आप को वोट देने का मन बनाए हुए थे, मतदान का दिन करीब आते-आते उनका मन बदल गया। लेकिन मन बदलने के बाद उन्होंने किया क्या? क्या उन्होंने वोट नहीं दिया? या उन्होंने बीजेपी को वोट दे दिया? अगर आप के समर्थन में आई इस गिरावट की तुलना आखिरी तीन हफ्तों में बीजेपी के समर्थन में हुई 10% से भी ज्यादा की बढ़ोतरी से करें तो यही लगता है कि बीजेपी के धुआंधार प्रचार के कारण आप के कई समर्थक आखिर में बीजेपी के पक्ष में हो गए। यानी बीजेपी के आक्रामक प्रचार का पार्टी को नुकसान नहीं, फायदा हुआ।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल पूछा जा सकता है कि अगर मतदान से दो दिन पहले आप का समर्थन घटकर 44% तक आ गया था तो वास्तविक मतदान में उसे 54% वोट कैसे मिले? क्या इसका मतलब यह है कि सी-वोटर का लाइव ट्रैकर गड़बड़ है या अंतिम दिनों में उसमें कुछ चतुराई की गई थी ताकि दोनों दलों के बीच फासला कम करके दिखाया जा सके? सत्य हिंदी में नीरेंद्र नागर की रिपोर्ट बताती है कि अगर हम अनिश्चित यानी डांवांडोल मतदाताओं के हिस्से पर ध्यान दें तो ऐसी आशंका निराधार प्रतीत होती है। लाइव ट्रैकर के अनुसार नवंबर, 19 में यह आंकड़ा 12% था जो बीच में बढ़ता-घटता रहा और मतदान से दो दिन पहले वापस इसी के आसपास आ गया। अर्थात मतदान से दो-तीन दिन पहले भी 12% मतदाता ऐसे थे जो तय नहीं कर पा रहे थे कि बीजेपी को वोट दें या आप को। ऐसे लोगों में से कई ने या तो वोट ही नहीं दिया होगा या फिर दोनों में से किसी एक पार्टी को वोट दिया होगा। आखिर किसको वोट दिया इन अनिश्चित वोटरों ने? वोटिंग के दिन आप के समर्थन में पड़े 54% वोटों से तो यही लगता है कि यही वह अनिश्चित मतदाता हैं जिन्होंने वोटिंग के दिन आप को वोट दे दिया और उसका समर्थन 44% से बढ़ाकर 54% कर दिया।
अब सवाल उठता है कि वोटिंग के दिन 12% अनिश्चित वोटरों का विशाल हिस्सा आप के पक्ष में ही क्यों गया, बीजेपी के पक्ष में क्यों नहीं? क्या इसलिए कि बीजेपी केजरीवाल को आतंकवादी बता रही थी, उसके मंत्री गद्दारों के नाम पर विरोधियों को गोली मारने का नारा लगवा रहे थे और आप और पाकिस्तान का रिश्ता जोड़ रहे थे? क्या यह अनिश्चित मतदाता बीजेपी की इस गंदी राजनीति से उखड़ गया था? अगर इस सवाल का जवाब हां है, तभी हम कह सकते हैं कि बीजेपी को इस रणनीति से नुकसान हुआ है। लाइव ट्रैकर के अनुसार मतदान से कुछ दिन पहले भले ही आप को वोट देने की इच्छा रखने वाले मतदाता घटकर 44% ही रह गए हों लेकिन केजरीवाल को सीएम बनाने की चाहत रखने वालों की संख्या 58% थी। यह वही संख्या थी जो दूसरे ओपिनियन पोलों में भी आ रही थी। यानी आप की लोकप्रियता भले 44% रही हो, केजरीवाल की निजी लोकप्रियता मतदान के निकट के दिनों में भी 58% थी। इसका मतलब यह हुआ कि ये 12% अनिश्चित लोग जो तय नहीं कर पा रहे थे कि आप को वोट दें या बीजेपी को क्योंकि उनकी निगाह में दोनों पार्टियां एक जैसी अच्छी या बुरी थीं, वे मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल को ही पसंद करते थे और चाहते थे कि वही दुबारा मुख्यमंत्री बनें।
यानी हम कह सकते हैं कि जो अनिश्चित मतदाता था, वह आप का समर्थक न होने के बावजूद केजरीवाल का समर्थक था। बीजेपी ने केजरीवाल को बुरा-भला कहकर ऐसे वोटरों को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की लेकिन परिणामों से लगता है कि उसकी गाली-गलौज की राजनीति का अनिश्चित मतदाताओं पर कोई असर नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो बीजेपी को इससे फायदा नहीं हुआ। यदि बीजेपी की गाली-गलौज की राजनीति के कारण पार्टी का अपना वोटर जो पहले बीजेपी को वोट देना चाहता था, बदल जाता, तब कहा जाता कि इससे बीजेपी को नुकसान हुआ है लेकिन वैसा हुआ हो, ऐसा तो लगता नहीं है। मतलब ये कि बीजेपी की इसी हमलावर राजनीति के चलते उसका वोट प्रतिशत 23% से बढ़कर मतदान के दिन 38% हो गया। तो फिर यह कैसे कहा जाए सकता है कि नफरती भाषणों से बीजेपी को नुकसान हुआ है? सच्चाई यह है कि 1993 के बाद यह पहली बार है कि बीजेपी को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 40% के आसपास वोट मिले हों। लोकसभा चुनावों में तो वह कई बार 50% के पार भी गई है लेकिन विधानसभा चुनावों में उसका जन-समर्थन 2008 में अधिकतम 36% तक गया था। इस बार का आंकड़ा उससे 3% ज्यादा है। यूं कहें कि गृह मंत्री अमित शाह ने यह स्वीकारा है कि हेट स्पीच से पार्टी को नुकसान हुआ, यह संभव है। इस प्रकार कह सकते हैं कि चाहें, पार्टी कोई भी हो, उसके नेताओं को भड़काऊ बयानों से बचना चाहिए। अनर्गल प्रलाप पार्टियों को नुकसान पहुंचाती हैं, लाभ नहीं। देखना यह है कि गृह मंत्री की बातों का किसके ऊपर कितना असर होता है?