दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की राजनीति को एक नई दिशा देने वाले साबित हो सकते हैं। दिल्ली के चुनाव तमाम उतार-चढ़ाव के बीच हंगामे और खींचतान के साथ परवान चढ़े थे। काम के साथ धर्म ही नहीं देश-विदेश के हस्तक्षेप तक पहुंची दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी की जीत काम वाली राजनीति की हैट्रिक के रूप में सामने आई है। इस चुनाव में जिस तरह राजनीतिक दलों ने वोट पाने के लिए कोई हथकंडा बाकी नहीं रखा, उस समय काम की बातें करने वाली आम आदमी पार्टी का जीतना देश के सभी राजनीतिक दलों को संदेश देने वाला भी है।
देश में आम आदमी पार्टी के उदय के बाद पहले उसे ‘वन एलेक्शन वंडर’ माना गया, किन्तु 2015 में जिस तरह आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीत लीं, उसके बाद आम आदमी पार्टी को देश की उम्मीद भी माना जाने लगा। आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब से लेकर देश के कई राज्यों में सरकार बनाने के सपने देखने शुरू कर दिये थे। राज्यों के स्तर पर आम आदमी पार्टी अपेक्षित सफलता तो पा ही नहीं सकी, दिल्ली के नगर निगम चुनावों से लेकर पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में तो आम आदमी पार्टी खासी पिछड़ गयी। भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस के लिए उम्मीदों की किरण भी इसीलिए जगी थी, किन्तु जिस तरह विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का परचम लहराया है, उससे साफ हो गया है कि दिल्ली की जनता लोकतंत्र के तीनों स्तरों पर अलग-अलग राजनीतिक फैसले ले चुकी है। नगर निगम भाजपा को सौंपने के साथ ही दिल्ली ने देश की कमान तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपने का फैसला लिया, किन्तु सूबे के लिए दिल्ली को अरविंद केजरीवाल ही अच्छे लगे। दिल्ली की यही पसंद सभी राजनीतिक दलों की आंखें खोलने वाली है।
दिल्ली की सत्ता संभालने वाली आम आदमी पार्टी देश की राजनीति को नई दिशा देने की बातों के साथ अस्तित्व में आई थी। तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनाव इस राजनीतिक परिवर्तन का लिटमस टेस्ट भी थे। अब यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को इस लिटमस टेस्ट में सकारात्मक परिणाम दिये हैं। जिस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव अभियान शुरू होते ही काम के आधार पर वोट मांगने की बात कही थी, उससे साफ था कि केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली की सरकार वोट मांगने के तौर-तरीके बदलने वाली है। केजरीवाल ने जनता से साफ कहा कि यदि उन्होंने पांच साल में काम न किया हो, तो उन्हें वोट न दिया जाए। ऐसे में काम न करने पर वोट नकारने वाले मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल ने संपूर्ण राजनीतिक विमर्श को ही नई दिशा दे दी। केजरीवाल ने दिल्ली के चुनाव अभियान के दौरान धार्मिक व क्षेत्रीय ध्रुवीकरण न होने देने के लिए भी खासी मशक्कत की। यही कारण है कि केजरीवाल ने न सिर्फ शाहीनबाग से दूरी बनाए रखी, बल्कि धर्म व जाति के स्थान पर स्कूल व अस्पताल के नाम पर वोट मांगे। दिल्ली के चुनाव में सत्ता का संघर्ष इस बार जिस कदर खतरनाक स्तर तक कुछ भी कर गुजरने जैसा नजर आया, वह देश की संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के लिए अच्छे संकेत लिए नहीं था। जिस तरह समग्र राजनीतिक विमर्श को विभाजन की पराकाष्ठा तक पहुंचाया गया, बयानवीर नेताओं ने अपनी जुबान को नियंत्रण से बाहर कर दिया और वोट के लिए अराजकता की हदें पार कर ली गयीं, वह स्थिति कतई अच्छी नहीं कही जा सकती। हालात ये हो गए कि दिल्ली का चुनाव सरहद पार पाकिस्तान तक पहुंच गया और पाकिस्तान के एक मंत्री के बयान पर यहां भी बयानबाजी शुरू हो गयी। इन सबके बावजूद आम आदमी पार्टी की जीत देश के सभी राजनीतिक दलों के लिए सबक वाली भी है। शाहीन बाग से लेकर राजनीति के तमाम आयामों के बीच जिस तरह आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा चुनाव अभियान मोहल्ला क्लीनिक के बहाने स्वास्थ्य और स्कूलों की स्थिति सुधारने के बहाने शिक्षा पर केंद्रित कर दिया। मुफ्त बिजली-पानी के साथ अगले पांच साल में कामकाज और सुधारने का गारंटी कार्ड देने वाले केजरीवाल ने देश की चुनावी राजनीति में विकास व काम को मील के पत्थर के रूप में स्थापित किया है। केजरीवाल की यह जीत इसलिए भी बड़ी है क्योंकि उनका मुकाबला लगातार हार रही कांग्रेस से न होकर जीत के लिए सर्वस्व झोंकने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी से था। मोदी-शाह की जोड़ी न सिर्फ चुनावी जीत के लिए खुद को झोंकती है, बल्कि कार्यकतार्ओं का मनोबल भी बढ़ाती है। ऐसे में यह चुनाव भाजपा के लिए भी तमाम संदेश सहेजे है। भाजपा को अब राज्यों के स्तर पर अपनी रणनीति बदलनी होगी और रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा व विकास पर फोकस करना होगा। वहीं आम आदमी पार्टी नेतृत्व को भी अब दोहरी जिम्मेदारी के साथ राजनीति करनी होगी, ताकि भविष्य में वह दिल्ली से बाहर निकलकर देश के लिए भी राजनीतिक विकल्प बन सके।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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