Hasiye magar dekh ker: हंसिए मगर देख कर

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लोग सोच रहे थे कोविड-19 भी अन्य आफत जैसे कि बाढ़, भूकम्प, बड़ी दुर्घटना, आतंकी हमले, बॉर्डर पर सरगर्मी की तरह अपने हिस्से का तांडव नाच दिखाकर निकल लेगी। सरकारें नुकसान, मरम्मत और आगे बचाव जैसी चीजों में जुट जाएगी। लोग अपने रोज के झमेले सुलझाने में फिर से उलझ जाएंगे। दो-चार दिन में सब भूल जाएंगे कि अभी हाल ही में हिल ही गए थे। बखेड़ा कोई नहीं  चाहता लेकिन जब तक सांस है, यकीन मानिए साल में दो-चार झटके लगेंगे। दिल कड़ा रखिए।
एक लेबनानी मूल के अमेरिकी लेखक हैं नसीम निकलस तलेब। खतरों की लच्छेदार समीक्षा के लिए जगप्रसिद्ध हैं। ‘इंसर्टो’ के नाम से साल 2001 से 2018 के बीच पांच खंड का एक तरह से कहिए तो महाग्रंथ लिखा। इसमें से दो – ‘द ब्लैक स्वान’ और ‘एंटी-फ्रेजाइल’ – गैर-परम्परागत नजरिए के लिए काफी चर्चित हुई। द संडे टाइम अखबार ने ‘द ब्लैक स्वान’ के बारे में तो यहां तक कह डाला कि ये दूसरे विश्व युद्ध के बाद लिखी गई बारह सबसे अधिक प्रभावशाली किताबों में एक है। तलेब का कहना है कि हमें बहुत चीजों के बारे में पता ही नहीं होता। काम चलाने के लिए हम जीवन और दुनिया के बारे में मोटा-मोटी राय बना लेते हैं। फिर जिद पकड़ लेते हैं कि यही सही है। भूल जाते हैं कि अनदेखी-अनजानी चीजें भी हैं जो घटित को प्रभावित करती रहती है। उदाहरण के लिए, हम ये मानकर चलते हैं कि हंस सफेद होते हैं। लेकिन ऐसा हम इसलिए सोचते हैं कि ज्यादातर वे हमें इसी रंग के दिखते हैं। लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि काला हंस होता ही नहीं है। इस तरह हम अपनी सोच पर धार देते रहते हैं और अनदेखी-अनसोची चीजें जीवन की दिशा बदलती रहती है। हम जितना जानते हैं या जान पाते हैं उसी को आधार बनाकर तैयारी करते हैं। सिर धुनते हैं जब हो कुछ और जाता है। तलेब का कहना है कि ऐसा होता ही रहेगा। हम इसे नहीं बदल सकते। ऐसी स्थिति में फलने-फूलने की क्षमता जरूर विकसित कर सकते हैं, जिसे तलेब एंटी-फ्रेजाइल होना कहते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि हंस को सफेद मानकर चलना तो ठीक है लेकिन अगर कहीं काला भी दिख जाए तो उससे भी कुछ ना कुछ करवा लेने का हौसला होना चाहिए, इसका तरीका आना चाहिए। देसी लहजे में इसे कुछ इस तरह से समझ सकते हैं।
दूध फटने का गम उसी को सताता है, रसगुल्ले बनाना जिसे नहीं आता है।  अगर हम चाहें तो कोविड-19 के बेरहम हल्ले को भी एक अवसर की तरह देख सकते हैं। सिर धुनने और हाय-तौबा मचाने से वैसे भी कुछ हासिल नहीं होने वाला। सोचिए अगर हाथ धोने और मास्क पहनने की आदत पड़ गई तो लोग कितने अन्य बीमारियों से बच जाएंगे। स्वच्छ इंडिया अभियान को तो जैसे जीवनदान ही मिल गया है। अरबों-खरबों वेंटिलेटर, मास्क, सेनीटाइजर जैसी चीजों के लिए दुनियां भर में मांग खड़ी हो गई है। उद्दमियों के लिए चांदी कूटने का कितना बड़ा मौका है!  ई-कामर्स कम्पनियों की तो निकल पड़ी है। आॅनलाइन सर्विस देने वाली सॉफ्टवेयर कम्पनियां के शेयर के दाम तो आसमान छू रहे हैं। जिसने भी वैक्सीन बना लिया उसको तो नोबेल प्राइज मिलना तय मानिए। चीन से उद्योग का पलायन होगा तो वे हमारे देश का ही तो रुख करेंगे। और ऐसा क्यों सोचें कि हमें सोशल डिसटेंसिंग हमेशा के लिए रखनी पड़ेगी। बायोइन्फर्मैटिक्स, इंटर्नेट और बिग डाटा का जमाना है। वैक्सीन बनने में पहले की तरह सैकड़ों साल थोड़े ना लगने हैं। बिल गेट्स नौ महीने की बात कर रहे हैं। कईयों ने तो ह्यूमन ट्रायल भी शुरू कर दिया है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कुछ बदले रंग-ढंग में ही सही, चहल-पहल लौटेगी। खेलों के मैदान फिर खचाखच भरेंगे। सिनेमा, रेस्तरां, बाजार फिर आबाद होंगे। आदमी एक सामाजिक प्राणी है। मिलने-जुलने की खुशी इसे चाहिए ही चाहिए। ये इसे वापस लेकर ही रहेगा।  खुशी की बात करें और हंसी का जिक्र ना हो ऐसा तो हो नहीं सकता। दोनों साथ-साथ चलने वालों में हैं। बोलने-लिखने की भाषा जितनी भी हो, हंसने की एक ही होती है। हर मई के दूसरे रविवार को विश्व हंसी दिवस मनाने का रिवाज है। परम्परा भारत से ही शुरू हुई थी। मुंबई के मदन कटारिया ने 1995 में ‘लाफ्टर योग अभियान’ की शुरूआत की थी। कहा कि हंसने से चेहरे के मांसपेशियों को व्यायाम तो मिलता ही है, भावनाएं भी कुलाचें मारती है। इसके दसियों अन्य फायदे हैं। तनाव और दर्द भगाता है। टी-सेल को जागृत कर रोग-निरोधी क्षमता को मजबूत करता है। शरीर में इंडॉर्फनि का संचार करता है जिससे आनंद की अनुभूति होती है। रचनात्मकता बढ़ाता है। आपसी सम्बन्धों को मजबूत करता है। इत्यादि-इत्यादि। लाफ्टर क्लब आपको हर गली-मोहल्ले-पार्क में मिल जाएंगे। कॉमेडी फिल्में और टीवी शो अमूमन हिट ही जाती है। स्टैंड-अप कॉमेडी अपने-आप में एक विशिष्ट कला का रूप ले चुकी है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बैरक ओबामा ने कहा कि अगर वे राजनीतिज्ञ नहीं होते तो जरूर ही स्टैंड-अप कॉमेडियन होते। वोलोदिमिर जेलेन्स्की ने तो कमाल ही कर दिया। यूक्रेन के एक टीवी चैनल पर शिक्षक से राष्ट्रपति बने चरित्र की मसखरी करते थे। महज इकतालिस की उम्र में सचमुच ही यूक्रेन के राष्ट्रपति बन बैठे। अपने यहां भी कई ऐसे ऐसी छोटी-बड़ी प्रधानी की दौड़ में हैं।  लेकिन हंसते समय ध्यान रहे कि अति-उत्साह में कहीं मारे ही ना जाएं। वैसे भी हमारे देश में धीर-गम्भीर की डिमांड ज्यादा है। हंसने-हंसाने वाले की कोई खास इज्जत नहीं है। मसखरे का लेबल चस्पां हो जाता है। किसी भी महत्वपूर्ण काम के लिए आप अयोग्य करार दिए जाते हैं। बड़े आदमी इसे पावर स्टेट्मेंट मानते हैं। उनके सामने उनसे पहले और उनसे जोर से हंस पड़ना धृष्टता है। उनके साथ या उनके इशारे पर नहीं हंसे तो बस्ता गोल समझिए। अगर दो-चार बार बेवक्त या बेवजह हंसी आ गई तो बेवकूफ हुए। अगर दो-चार बार और ऐसा हो गया तो पागल घोषित होना तय मानिए। महाभारत तो इतनी सी बात पर हो गई थी कि दुर्योधन के तालाब में गिर पड़ने पर द्रौपदी हंस पड़ी थी – अंधे का बेटा अंधा। फिर क्या था? गीताज्ञान से भी बात नहीं बनी। सर्वनाश होकर रहा।  मदन कटारिया वितरित विश्व हंसी दिवस का लॉली पॉप तो ठीक है लेकिन हंसिए तो ये जरूर टेस्ट कर लीजिए कि आप कहीं किसी के ऊपर तो नहीं हंस रहे? पर हो गई थी कि दुर्योधन के तालाब में गिर पड़ने पर द्रौपदी हंस पड़ी थी। अंधे का बेटा अंधा। फिर क्या था? गीताज्ञान से भी बात नहीं बनी। सर्वनाश होकर रहा।  मदन कटारिया वितरित विश्व हंसी दिवस का लॉली पॉप तो ठीक है लेकिन हंसिए तो ये जरूर टेस्ट कर लीजिए कि आप कहीं किसी महाबली के ऊपर तो नहीं हंस रहे?
(लेखक हरियाणा सरकार में प्रमुख सचिव के पद पर कार्यरत हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)