हरियाणा का 2019 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में याद किया जाएगा। यह पहली बार होगा कि प्रदेश में बीजेपी इतनी मजबूती से मैदान में होगी। यह पहली बार होगा कि इनेलो जैसा बेहद मजबूत क्षेत्रीय दल अपने बिखराव के बाद बहुत कुछ पाने को मैदान में होगा। यह पहली बार होगा कि देवीलाल जैसे बड़े नेता का कुनबा आमने सामने होगा। इनेलो से बिखरकर जजपा के रूप में अस्तित्व में आई पार्टी के पास खोने को कुछ नहीं होगा पर पाने के लिए बहुत कुछ होगा। पर सबसे अधिक नजरें कांग्रेस पर रहेगी। यह भी पहली बार ही होगा कि हरियाणा जैसे राज्य में कभी सबसे मजबूत वजूद रखने वाली कांग्रेस इस बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी। इस चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा होगा। पर अस्तित्व की इस लड़ाई से पहले कांग्रेस के दिग्गजों को यह जरूर मंथन करना चाहिए कि आखिर ऐसी परिस्थितियां कैसे पैदा हुई? क्या यह एक दिन की घटना है या फिर कांग्रेस को इस स्थिति में पहुंचाने लिए कांग्रेस के लोगों ने ही दशकों तक ‘मेहनत’ की है। मंथन जरूरी है।
साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में आई उसके बाद अचानक से भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ पूरे भारत में बढ़ता चला गया। भाजपा भी अपने इस बढ़ते ग्राफ से इतना उत्साहित हुई कि उसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तक दे दिया। कई राज्यों में ऐसा हुआ भी, जहां बेहद मजबूत स्थिति में रहने वाली कांग्रेस बिल्कुल जमीन सुंघने लगी। हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी थे जिन्होंने मोदी आंधी में भी खुद को बचाए रखा। पंजाब जैसे राज्यों ने कांग्रेस के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया। पर पड़ोसी राज्य हरियाणा में तो ऐसा लगा कि कांग्रेस ने खुद ही अपनी जड़ में मट्ठा डाल दिया हो। जिस कांग्रेस ने कभी हरियाणा में एकछत्र राज किया, वहां कांग्रेस की इस तरह के हालात की किसी ने परिकल्पना नहीं की होगी।
किस दल में मनमुटाव नहीं होता है। कौन ऐसा दल है जिसमें भीतराघात कर खतरा नहीं होता। पर हरियाणा कांग्रेस का हाल सबसे जुदा है। यहां सत्ता की लोलुपता ने पार्टी को इस बुरे दौर में पहुंचा दिया है कि अब कोई नाम लेवा नहीं बचा है। आज हाल यह है कि हर एक बड़ा नेता कांग्रेस को गाली भी देता है और फिर सत्ता के लालच में उसी से दिल लगाए बैठा है।
विधानसभा चुनाव से पहले हरियाणा कांग्रेस में विरोध का बिगुल सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने बजाया। ये वही हुड्डा थे जो कभी हरियाणा कांग्रेस में राजा की भूमिका में हुआ करते थे। दस साल लगातार शासन भी किया। पर जब सत्ता से बाहर हुए तो इनका एक सूत्रीय एजेंडा कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर से पंगा लेना था। कई मौके ऐसे आए जिसमें हुड्डा और तंवर गुट एक दूसरे के सामने आए। कई बार तो लाठियां भी चल गई। सबकुछ दांव पर लगा था, लेकिन एक बार भी प्रदेश में कांग्रेस की बेदखल होती स्थिति पर मंथन नहीं किया। सबकुछ तंवर पर छोड़ दिया, कभी प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने की तरफ ध्यान नहीं दिया। वहीं जब विधानसभा चुनाव का वक्त आया तो बगावती तेवर दिखाने शुरू कर दिए। सार्वजनिक मंच से कांग्रेस पार्टी को पानी पी-पीकर कोसा। यहां तक कह दिया कि कांग्रेस पहले जैसी पार्टी नहीं रही। हुड्डा ने अपने शब्दवाणों से हालात इस कदर पैदा कर दिए कि पूरे हरियाणा को लगा कि हुड्डा आज ही पार्टी छोड़ देंगे।
पर हुड्डा की राजनीतिक बयानबाजी सिर्फ एक प्रेशर पॉलिटिक्स भर रही। पार्टी हाईकमान ने उन्हें जैसे ही कांग्रेस में अच्छा पद आॅफर किया इसी पार्टी में उनकी गहरी आस्था जुड़ गई। जो पार्टी बीस दिन पहले सबसे नकारी पार्टी थी, वही पार्टी आज देश की सबसे अच्छी पार्टी बन गई। प्रेशर पॉलिटिक्स का ही नतीजा रहा कि टिकट वितरण में भी हुड्डा की खूब चली और करीब साठ प्रतिशत टिकट उनके ही कोटे से आया।
हुड्डा तक ही प्रेशर पॉलिटिक्क्स रहती तो बात थी। हरियाणा कांग्रेस की कद्दावर नेता किरण चौधरी भी टिकट वितरण से पहले अपने बगावती तेवर में आ गर्इं। बातें तो यहां तक सामने आई कि वो कांग्रेस से अपना इस्तीफा देने सोनिया गांधी तक चली गई थी। हालांकि बाद में उन्होंने मीडिया को बताया कि वो नाराज जरूर हैं, लेकिन फिलहाल इस्तीफा नहीं दे रही हैं। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी सैलजा को पार्टी हाईकमान ने न जाने क्या देखकर हरियाणा की कमान सौंपी है। लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना किया। पिछले पांच साल में हरियाणा में कांग्रेस को मजबूत करने के बजाय चुपचाप बैठी रहीं। हर तरफ उनका विरोध होता रहा, पर कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें सबसे हाई पोस्ट पर बैठाकर रही सही कसर भी बराबर कर दी। अब हालात यह हैं कि पार्टी अध्यक्ष कुमारी सैलजा के घर में ही उनका जबर्दस्त विरोध हो रहा है। उनके घर अंबाला में ही कांग्रेस कई भाग में बंट गई। कुमारी सैलजा के कभी सबसे खास रहे नेताओं ने भी सैलजा के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया है। चित्रा और निर्मल जैसे घोर कांग्रेसी नेताओं ने कांग्रेस के खिलाफ निर्दलीय के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया। पर सैलजा खामोश हैं। कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने ठोक दी है। पार्टी ने टिकट वितरण में अशोक तंवर को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। इससे नाराज तंवर ने अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में खूब बवाल काटा। उसी दिन तय हो गया कि तंवर के बगावती तेवर बहुत आगे तक जाएंगे। शनिवार को अशोक तंवर ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। प्रदेश अध्यक्ष का पद था तो तंवर के लिए कांग्रेस ही सबकुछ थी, अब जब वो पद पर नहीं हैं तो पार्टी छोड़ने में एक पल की भी देर नहीं की। बार-बार कह रहे हैं कि पांच-पांच करोड़ रुपए में कांग्रेस का टिकट बेचा गया है। ऐसा लग रहा है कि अगर वो कांग्रेस अध्यक्ष रहते तो टिकट वितरण मुफ्त होता। फिलहाल यह कहने में भी संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि हुड्डा, किरण, सैलजा की तरह ही अब अशोक तंवर भी प्रेशर पॉलिटिक्स ही कर रहे हैं। हो सकता है कि देर सबेर दोबारा उनकी आस्था कांग्रेस के लिए जग जाए।
ऐसी स्थिति में हरियाणा कांग्रेस के साथ-साथ पार्टी हाईकमान को भी गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कांग्रेस का हरियाणा में यह हाल एक दिन की देन नहीं है। जिन नेताओं को हरियाणा में पार्टी को मजबूत करने के लिए प्रयास करना चाहिए था, उन्हीं नेताओं ने यहां पार्टी का यह हाल किया। कांग्रेस का संगठन पूरी तरह खत्म कर दिया। ग्रामीण स्तर पर आज कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं है। न तो संगठन है न कार्यकर्ता। सेवादल के रूप में कांग्रेस के पास किसी जमाने में ब्रहस्त्र हुआ करता था। सेवादल के सेवक कांग्रेस की ऐसी रीढ़ थे जिसके दम पर पार्टी हमेशा मजबूती के साथ डंटी रहती थी। आज हाल यह है कि सेवादल का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है। इसी सेवादल का व्यवस्थित रूप भाजपा ने अपने पन्ना प्रमुखों के रूप में आत्मसात कर लिया है। इन पन्ना प्रमुखों को सभी नेता इतने सम्मानजक नजरों से देखते हैं जो किसी जमाने में कांग्रेस के नेता सेवादल के सेवकों को देखते थे। ये वैसे लोग थे जिन्हें किसी पद या पैसे का लालच नहीं होता था। ये पार्टी के समर्पित लोग होते थे।
साल 2019 का विधानसभा चुनाव हरियाणा में कांग्रेस के अस्तित्व की लड़ाई होगी। अभी जिस तरह कांग्रेस कई दलों में बंटकर लड़ाई में उतर रही है उससे अस्तित्व पर संकट अधिक है। अगर इस चुनाव में कांग्रेस अपना थोड़ा बहुत सम्मान बचा पाती है तो ठीक है, अन्यथा हरियाणा कांग्रेस के लिए पार्टी हाईकमान को गंभीरता से मंथन जरूर करना चाहिए। कांग्रेस के कई युवा नेता प्रदेश में हैं जिनके कंधों पर भी पार्टी की जिम्मेदारी देने की जरूरत है।
साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में आई उसके बाद अचानक से भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ पूरे भारत में बढ़ता चला गया। भाजपा भी अपने इस बढ़ते ग्राफ से इतना उत्साहित हुई कि उसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तक दे दिया। कई राज्यों में ऐसा हुआ भी, जहां बेहद मजबूत स्थिति में रहने वाली कांग्रेस बिल्कुल जमीन सुंघने लगी। हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी थे जिन्होंने मोदी आंधी में भी खुद को बचाए रखा। पंजाब जैसे राज्यों ने कांग्रेस के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया। पर पड़ोसी राज्य हरियाणा में तो ऐसा लगा कि कांग्रेस ने खुद ही अपनी जड़ में मट्ठा डाल दिया हो। जिस कांग्रेस ने कभी हरियाणा में एकछत्र राज किया, वहां कांग्रेस की इस तरह के हालात की किसी ने परिकल्पना नहीं की होगी।
किस दल में मनमुटाव नहीं होता है। कौन ऐसा दल है जिसमें भीतराघात कर खतरा नहीं होता। पर हरियाणा कांग्रेस का हाल सबसे जुदा है। यहां सत्ता की लोलुपता ने पार्टी को इस बुरे दौर में पहुंचा दिया है कि अब कोई नाम लेवा नहीं बचा है। आज हाल यह है कि हर एक बड़ा नेता कांग्रेस को गाली भी देता है और फिर सत्ता के लालच में उसी से दिल लगाए बैठा है।
विधानसभा चुनाव से पहले हरियाणा कांग्रेस में विरोध का बिगुल सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने बजाया। ये वही हुड्डा थे जो कभी हरियाणा कांग्रेस में राजा की भूमिका में हुआ करते थे। दस साल लगातार शासन भी किया। पर जब सत्ता से बाहर हुए तो इनका एक सूत्रीय एजेंडा कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर से पंगा लेना था। कई मौके ऐसे आए जिसमें हुड्डा और तंवर गुट एक दूसरे के सामने आए। कई बार तो लाठियां भी चल गई। सबकुछ दांव पर लगा था, लेकिन एक बार भी प्रदेश में कांग्रेस की बेदखल होती स्थिति पर मंथन नहीं किया। सबकुछ तंवर पर छोड़ दिया, कभी प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने की तरफ ध्यान नहीं दिया। वहीं जब विधानसभा चुनाव का वक्त आया तो बगावती तेवर दिखाने शुरू कर दिए। सार्वजनिक मंच से कांग्रेस पार्टी को पानी पी-पीकर कोसा। यहां तक कह दिया कि कांग्रेस पहले जैसी पार्टी नहीं रही। हुड्डा ने अपने शब्दवाणों से हालात इस कदर पैदा कर दिए कि पूरे हरियाणा को लगा कि हुड्डा आज ही पार्टी छोड़ देंगे।
पर हुड्डा की राजनीतिक बयानबाजी सिर्फ एक प्रेशर पॉलिटिक्स भर रही। पार्टी हाईकमान ने उन्हें जैसे ही कांग्रेस में अच्छा पद आॅफर किया इसी पार्टी में उनकी गहरी आस्था जुड़ गई। जो पार्टी बीस दिन पहले सबसे नकारी पार्टी थी, वही पार्टी आज देश की सबसे अच्छी पार्टी बन गई। प्रेशर पॉलिटिक्स का ही नतीजा रहा कि टिकट वितरण में भी हुड्डा की खूब चली और करीब साठ प्रतिशत टिकट उनके ही कोटे से आया।
हुड्डा तक ही प्रेशर पॉलिटिक्क्स रहती तो बात थी। हरियाणा कांग्रेस की कद्दावर नेता किरण चौधरी भी टिकट वितरण से पहले अपने बगावती तेवर में आ गर्इं। बातें तो यहां तक सामने आई कि वो कांग्रेस से अपना इस्तीफा देने सोनिया गांधी तक चली गई थी। हालांकि बाद में उन्होंने मीडिया को बताया कि वो नाराज जरूर हैं, लेकिन फिलहाल इस्तीफा नहीं दे रही हैं। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी सैलजा को पार्टी हाईकमान ने न जाने क्या देखकर हरियाणा की कमान सौंपी है। लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना किया। पिछले पांच साल में हरियाणा में कांग्रेस को मजबूत करने के बजाय चुपचाप बैठी रहीं। हर तरफ उनका विरोध होता रहा, पर कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें सबसे हाई पोस्ट पर बैठाकर रही सही कसर भी बराबर कर दी। अब हालात यह हैं कि पार्टी अध्यक्ष कुमारी सैलजा के घर में ही उनका जबर्दस्त विरोध हो रहा है। उनके घर अंबाला में ही कांग्रेस कई भाग में बंट गई। कुमारी सैलजा के कभी सबसे खास रहे नेताओं ने भी सैलजा के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया है। चित्रा और निर्मल जैसे घोर कांग्रेसी नेताओं ने कांग्रेस के खिलाफ निर्दलीय के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया। पर सैलजा खामोश हैं। कांग्रेस की ताबूत में आखिरी कील कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने ठोक दी है। पार्टी ने टिकट वितरण में अशोक तंवर को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। इससे नाराज तंवर ने अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में खूब बवाल काटा। उसी दिन तय हो गया कि तंवर के बगावती तेवर बहुत आगे तक जाएंगे। शनिवार को अशोक तंवर ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। प्रदेश अध्यक्ष का पद था तो तंवर के लिए कांग्रेस ही सबकुछ थी, अब जब वो पद पर नहीं हैं तो पार्टी छोड़ने में एक पल की भी देर नहीं की। बार-बार कह रहे हैं कि पांच-पांच करोड़ रुपए में कांग्रेस का टिकट बेचा गया है। ऐसा लग रहा है कि अगर वो कांग्रेस अध्यक्ष रहते तो टिकट वितरण मुफ्त होता। फिलहाल यह कहने में भी संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि हुड्डा, किरण, सैलजा की तरह ही अब अशोक तंवर भी प्रेशर पॉलिटिक्स ही कर रहे हैं। हो सकता है कि देर सबेर दोबारा उनकी आस्था कांग्रेस के लिए जग जाए।
ऐसी स्थिति में हरियाणा कांग्रेस के साथ-साथ पार्टी हाईकमान को भी गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। मंथन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कांग्रेस का हरियाणा में यह हाल एक दिन की देन नहीं है। जिन नेताओं को हरियाणा में पार्टी को मजबूत करने के लिए प्रयास करना चाहिए था, उन्हीं नेताओं ने यहां पार्टी का यह हाल किया। कांग्रेस का संगठन पूरी तरह खत्म कर दिया। ग्रामीण स्तर पर आज कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं है। न तो संगठन है न कार्यकर्ता। सेवादल के रूप में कांग्रेस के पास किसी जमाने में ब्रहस्त्र हुआ करता था। सेवादल के सेवक कांग्रेस की ऐसी रीढ़ थे जिसके दम पर पार्टी हमेशा मजबूती के साथ डंटी रहती थी। आज हाल यह है कि सेवादल का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो चुका है। इसी सेवादल का व्यवस्थित रूप भाजपा ने अपने पन्ना प्रमुखों के रूप में आत्मसात कर लिया है। इन पन्ना प्रमुखों को सभी नेता इतने सम्मानजक नजरों से देखते हैं जो किसी जमाने में कांग्रेस के नेता सेवादल के सेवकों को देखते थे। ये वैसे लोग थे जिन्हें किसी पद या पैसे का लालच नहीं होता था। ये पार्टी के समर्पित लोग होते थे।
साल 2019 का विधानसभा चुनाव हरियाणा में कांग्रेस के अस्तित्व की लड़ाई होगी। अभी जिस तरह कांग्रेस कई दलों में बंटकर लड़ाई में उतर रही है उससे अस्तित्व पर संकट अधिक है। अगर इस चुनाव में कांग्रेस अपना थोड़ा बहुत सम्मान बचा पाती है तो ठीक है, अन्यथा हरियाणा कांग्रेस के लिए पार्टी हाईकमान को गंभीरता से मंथन जरूर करना चाहिए। कांग्रेस के कई युवा नेता प्रदेश में हैं जिनके कंधों पर भी पार्टी की जिम्मेदारी देने की जरूरत है।
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(लेखक आज समाज के संपादक हैं)
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