Haryana Chunav 2024, (आज समाज) चंडीगढ़: भूपेंद्र हुड्डा ने शायद यह सोच लिया था कि वह अकेले ही कांग्रेस को या यूं कहें कि खुद को हरियाणा की सत्ता तक पहुंचा सकते हैं। परंतु उनके इस आत्मविश्वास की बुनियाद कमजोर साबित हुई, और अंतत: उनका यह सपना चकनाचूर हो गया। बार-बार प्रयास के बाद भी कुमारी शैलजा को उकलाना से और रणदीप सुरजेवाला को कैथल से चुनाव लड़ने नहीं दिया गया।
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भूपेंद्र सिंह हुड्डा यह कतई नहीं चाहते थे कि उनकी राह में कोई दूसरा व्यक्ति जो राजनीतिक तौर पर या कांग्रेस हाई कमान में थोड़ी मजबूती रखता हो राह का रोड़ा बने। हरियाणा की राजनीति में भूपेंद्र सिंह हुड्डा एक ऐसा नाम है जिसे नजरअंदाज करना आसान नहीं है। वह लंबे समय तक कांग्रेस का चेहरा रहे और कई राजनीतिक विरोधियों को परास्त किया। पर आज की स्थिति में, हुड्डा खुद अपनी ही राजनीति का शिकार हो गए हैं।
जिस भाजपा के खिलाफ प्रदेश में सत्ता-विरोधी लहर महसूस की जा रही थी, उसने तीसरी बार सत्ता में वापसी कर ली है। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी प्रबल सत्ता-विरोधी भावना के बावजूद कांग्रेस क्यों विफल रही? क्या भूपेंद्र सिंह हुड्डा की राजनीतिक पकड़ अब कमजोर पड़ गई है, या कांग्रेस नेतृत्व प्रदेश की असली जनभावनाओं से पूरी तरह कट चुका है?
भूपेंद्र सिंह हुड्डा को यह भरोसा था कि हरियाणा में कांग्रेस की सत्ता वापसी उनके नेतृत्व के बिना संभव नहीं है। उन्होंने पूरे प्रदेश में खुद को ही एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। उनके समर्थकों ने भी इस धारणा को फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि, यह रणनीति सतह पर तो प्रभावी दिखी, लेकिन धरातल पर स्थिति इससे बिल्कुल अलग थी। प्रदेश के विभिन्न तबकों में हुड्डा के प्रति गहरी नाराजगी पल रही थी, जो बाहर से स्पष्ट नहीं हो रही थी या यह भी कह सकते हैं कि इसको कोई भाप नहीं पाया।
वर्षों से एक ऐसा वोट बैंक तैयार हो गया था जो इस बात से नाराज था कि हुड्डा ने अपनी ही पार्टी के कई बड़े नेताओं को किनारे कर दिया। चाहे वह भजनलाल परिवार हो, कुलदीप बिश्नोई, इंद्रजीत सिंह, विनोद शर्मा, चौधरी वीरेंद्र सिंह, या किरण चौधरी—हुड्डा की रणनीति स्पष्ट थी: संभावित प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाना। इस राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पार्टी के व्यापक हितों से ऊपर नजर आई। 2005 में जब भजनलाल को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तभी से कांग्रेस के एक बड़े वर्ग में असंतोष पनपने लगा था।
भजनलाल की एक विशेष वर्ग पर मजबूत पकड़ थी, लेकिन कांग्रेस ने इस असंतोष को कभी समझने की कोशिश नहीं की। कुलदीप बिश्नोई द्वारा नई पार्टी बनाने के बावजूद, हुड्डा ने उनके विधायकों को तोड़कर स्थिति को और बिगाड़ दिया। इससे कांग्रेस के भीतर और बाहर दोनों जगह गलत संदेश गया। इस चुनाव में भी हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा के अति-आत्मविश्वास ने पार्टी के भीतर असंतोष को और बढ़ा दिया। रणदीप सुरजेवाला, कुमारी सैलजा, और अजय यादव जैसे कई महत्वपूर्ण नेताओं को नजरअंदाज किया गया, जिससे कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग नाराज हो गया।
चुनाव के दौरान ही पार्टी के लोग एक दूसरे पर टीका टिप्पणी करते रहे। दीपेंद्र हुड्डा का केवल एक ही फोकस रहा कि वह हर जनसभा में अपने पिता के नाम पर ही वोट मांगते नजर आए न कि कांग्रेस के लिए। इस बात ने प्रदेश में ऐसे लोगों को कांग्रेस से दूर कर दिया जो कांग्रेस को तो वोट देना चाहते थे लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नाम पर नहीं। यहां तक कि कुछ कांग्रेस उम्मीदवारों को हराने के लिए उनके अपने ही पार्टी कार्यकतार्ओं ने अंदरूनी रूप से काम किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस की पराजय बाहरी कारणों से अधिक, आंतरिक गुटबाजी का परिणाम है।
अंतत: कहा जा सकता है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा की वही राजनीति, जिससे उन्होंने वर्षों तक अपने विरोधियों को हराया, अब उन्हीं पर भारी पड़ गई। उन्होंने एक-एक कर अपने सभी संभावित प्रतिद्वंद्वियों को किनारे किया, लेकिन अंतत: जनता ने हुड्डा को भी किनारे कर दिया। यह परिणाम इस बात का संकेत है कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा संगठनात्मक एकता और जनाधार को कमजोर कर सकती है। हरियाणा की राजनीति में हुड्डा का स्थान अब भी रहेगा, लेकिन उनकी विफलताएं कांग्रेस के भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी हैं।
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