Haryana and Jammu Kashmir Election Result Analysis : जीत की हार और हार की जीत

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Haryana and Jammu Kashmir Election Result Analysis : जीत की हार और हार की जीत
Haryana and Jammu Kashmir Election Result Analysis : जीत की हार और हार की जीत

Haryana and Jammu Kashmir Election Result Analysis | दो राज्यों के चुनाव को कांग्रेस के भविष्य के साथ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के राजनैतिक भविष्य के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा था। लोक सभा चुनाव ने देश की राजनीति में बदलाव की शुरुआत की थी और उसके परिणामों ने मोदी शाह के हावभाव और शैली को बदल दिया था-संसद और सरकार का स्वरूप तो बदल ही गया था।

अरविन्द मोहन
अरविन्द मोहन

कहना न होगा कि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधान सभा चुनाव के नतीजों ने बदलाव की यह प्रक्रिया थामी ही नहीं उलटी है और संभव है कि कांग्रेस और विपक्ष की परेशानियां बढ़ती जाएं। जल्दी ही महराष्ट और झारखंड विधान सभा के चुनाव होने हैं और एक राष्ट्र एक चुनाव जैसे कई बड़े फैसले होने हैं।

इस बीच काफी मामलों में सरकार ने अपने बढ़े हुए कदम रोके थे या उसके सहयोगी दलों ने उसे कदम वापस खींचने पर मजबूर किया था। अगर आगे के कुछ और चुनाव में भाजपा इसी तरह का प्रदर्शन करती है तो मोदी जी को अपने पुराने रंग ढंग में लौटने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। अपने फैसलों और कार्यकाल, दोनों से वे रिकार्ड बनाने की तरफ बढ़ेंगे।

और मात्र तीन साढ़े तीन महीने की साढ़े साती काटकर उनका यह रूपांतरण महत्वपूर्ण होगा। लोक सभा के नतीजों का असर पूरी राजनीति पर हुआ और भाजपा या मोदी-शाह तो इसके केंद्र में ही थे। और इसका प्रभाव विधान सभा चुनाव पर भी हुआ। सबसे पहले तो महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव हरियाणा के साथ न कराके आगे के लिए टाले गए।

जम्मू कश्मीर चुनाव अदालती आदेश के अनुसार हुए लेकिन भाजपा ने एक तरह से मैदान छोड़ दिया था-खासकर घाटी के इलाकों में। उसने बातों से कुछ हवाई किले बनाए, कुछ डमी उम्मीदवारों पर दांव लगाती लगी लेकिन उसने जम्मू में जोर लगाया जहां परिसीमन के बाद सीटें बढ़ गई थीं।

एक दांव पाँच सदस्यों के मनोनयन का भी रखा गया। हरियाणा में भी पहले चुनाव आगे बढ़वाए गए, फिर टिकट को लेकर सिर फुटव्वल हुआ। मुख्य मंत्री पद का दावा करने वाले निकाल आए। मुख्यमंत्री पद से हटाए गए मनोहरलाल खट्टर का प्रभाव बना रहा और वे मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का चुनाव क्षेत्र बदलवाने के लिए जिम्मेवार माने गए।

भाजपाई चुनाव प्रचार और नेताओं के हावभाव बुझे-बुझे थे। दूसरी ओर किसान, जवान और पहलवान का नाम ले लेकर कांग्रेस एकदम आक्रामक रही और आखिरी दिन भी उसने अशोक तंवर का दल बदल कराके भाजपा को झटका दिया। भाजपाई सन्नाटा एक्सिट पोल के नतीजे आने तक ही नहीं मतगणना के पहले दो घंटों तक पसरा रहा।

पर एक बार भाजपा ने लीड लेनी शुरू की तो सारे राजनैतिक पंडित भौंचक्का रह गए और जलेबी या जलेबा बांटना शुरू कर चुके काँग्रेसियों को सांप सूंघ गया। फिर उसके प्रवक्ताओं ने चुनाव आयोग की तरफ ऊँगली उठानी शुरू की।

लेकिन जल्दी ही राहुल गांधी, भूपिंदर सिंह हुडा, कुमारी शैलजा और रणजीत सुरजेवाला जैसे प्रमुख लोगों की कार्यशैली पर सवाल उठने लगा और सबको यह लगा कि भाजपाई सोशल इंजीनियरिंग ज्यादा कारगर रही।

भाजपा ने गैर-जाट ओबीसी की जिस राजनीति को चुनाव के पहले शुरू किया वह जाट प्रधानता वाली कांग्रेसी नीति से बेहतर साबित हुई। कांग्रेस को मुसलमान वोट मिला लेकिन दलित वोट बिखरा। इसका एक कारण कुमारी शैलजा का मुंह फुलाना था तो दूसरा कारण डेरा सच्चा सौदा के विवादास्पद बाबा राम रहीम की सेवाएं थीं।

शैलजा और सुरजेवाला जैसे सीनियर नेताओं का व्यवहार अनुचित था तो पूरे प्रदेश के सारे फैसले का अधिकार एकदम से हुडा को सौंपना भी दोषपूर्ण था। हाई कमान ने इन दोनों बातों का ध्यान न रखा।

कहा जाता है कि नब्बे में से बहत्तर उम्मीदवार हुडा खेमे के थे। हुडा जी का अतिआत्मविश्वास देर तक झलकता भी रहा पर उससे खास नफा होने की जगह नुकसान हो गया।

हरियाणा में तो कांग्रेस किसी हुडा, किसी शैलजा, किसी सुरजेवाला को दोषी मान भी सकती है लेकिन जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस का साथ होने के बावजूद उसका प्रदर्शन दयनीय रहा। राहुल गांधी और प्रियंका ने चुनाव प्रचार में इतना कम समय क्यों दिया और जीत के प्रति इतना आश्वस्त कैसे हो गए |

यह सफाई तो वही देंगे लेकिन उनके इस रवैये से नुकसान हुआ। कश्मीर घाटी में भाजपा का खाता न खुलना या धारा 370 की समाप्ति पर वहां के मतदाताओं का अंतिम फैसला भाजपा के खिलाफ जाना निश्चित रूप से मोदी जी की कार्यशैली पर सवाल खड़े करता है, लेकिन भाजपा ने अब तक का अपना सबसे सफल चुनावी प्रदर्शन किया है।

उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। सबसे ज्यादा नुकसान महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी को हुआ है। दूसरी ओर इंजीनियर राशिद और लोन जैसे लोग कागजी शेर ही साबित हुए। गुलाम नबी आजाद की राजनीति भी चुनाव के पहले ही दम तोड़ती दिखी, पर उनके बाहर जाने से कांग्रेस भी घाटे में रही।

अब हरियाणा सरकार चलाने का सवाल तो कोई विशेष नहीं है लेकिन जम्मू-कश्मीर का मसला काफी सावधानी की मांग करेगा। उमर अब्दुल्ला और उनके पिता फारुख अब्दुल्ला अभी तक तो काफी गंभीरता बनाए हुए हैं लेकिन केंद्रशासित प्रदेश की जगह पूर्ण राज्य का दर्जा पाना एक बड़ा सवाल बनेगा।

और बाप-बेटे की जोड़ी तो धारा 370 की बहाली की बात भी करती रही है। दूसरी ओर भाजपा का पुराना डिस्कोर्स धारा 370 की समाप्ति से एक मुकाम तक पहुंचा है लेकिन बिना राजनैतिक नतीजों के। अब इस सवाल पर कश्मीरी समाज की राय जगजाहिर होने के बाद भाजपा की केंद्र सरकार क्या करेगी उस पर सबकी नजर होगी।

पर वह चीज थोड़ा समय लेकर सामने आएगी। अभी तुरंत तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरों पर चमक और रौनक वापस आती दिख रही है। इन परिणामों से उनका कद भाजपा और एनडीए के अंदर(जबकि चुनाव में पहले की तरह उनके चेहरे की प्रधानता न थी) ही नहीं देश की राजनीति में बढ़ गया है। उन्होंने सचमुच हारती दिख रही बाजी जीती है और उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी राहुल और कांग्रेस ने जीती हुई बाजी गंवाई है।

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