स्वामी सुखबोधनंद
जब हम किसी से शारीरिक रूप से दूर होते हैं तब हमें उनके अलग होने का अहसास होता है हम उनका प्रेम पाने की कोशिश करते हैं लेकिन अध्यात्म के स्तर पर ये दूरी कोई मायने नहीं रखती। इस स्तर पर पहुंचकर आपको एक होने के लिए परिश्रम करने के लिए आवश्यकता नहीं होती जब आप भौतिक स्तर पर किसी से मिलने की कोशिश करते हैं तो यह अपने आप में ही दुख और नाउम्मीदी का स्त्रोत बन जाता है। एक बार एक युवक ने मुझसे पूछा ‘क्या इस प्रतिस्पर्धा से भरे पूरे युग में खुश रहना संभव है?
क्या अविश्वास की नींव पर एक खुशहाल जीवन की स्थापना की जाती है? बाइबल में लिखा है ‘स्वर्ग की सत्ता आपके भीतर है’। गीता कहती है ‘खुशहाली आपके भीतर ही छिपी है’। लेकिन मनुष्य अपनी इस खुशी को बाहरी दुनिया में तलाशता है। हम अपने भीतर छिपे सार को भूलकर विवरण में खो जाते हैं। हम अपने जीवन में दुखी इसलिए है क्योंकि हम अपेक्षाओं का शिकार बन जाते हैं। अपेक्षाएं रखना गलत नहीं हैं लेकिन उन अपेक्षाओं पर अपनी खुशियों को निर्भर कर देना गलत है। हमें प्रेम से काम करना चाहिए अपेक्षाओं से नहीं।
प्रेम आपको ऊर्जा प्रदान करता है यह ऊर्जा आपको काफी प्रभावी और अंदरूनी रूप से खुशहाल बनाती है। एक झेन गुरु थे बेहद निर्बल होने के बावजूद उपस्थिति बेहद मजबूत थी। वे बड़े से बड़े पत्थर को भी बिना परेशानी के हिला दी थे। किसी ने उनसे पूछा आपके इस बल का रहस्य क्या है? झेन गुरु बोलें पत्थर को हिलाने से पहले मैं उससे वातार्लाप करता हूं मैं उससे आज्ञा और समर्थन मांगता हूं इसके बाद वह पत्थर अपने आप हिल जाता है। प्रेम ही आपको शक्ति प्रदान करता है ना की सामने वाले से संबंधित आपकी अपेक्षाएं।