गुरु नानक देव जी के आगमन के समय संसार विचित्र दौर से गुजर रहा था। अज्ञानी वैद्य चारों ओर भरे हुए थे। लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। कोई निदान नहीं था। कोई उस (अंतर अवस्था) तक नहीं पहुंच पा रहा था, जिसके कारण (दुख) दर्द था। श्री गुरु नानक साहिब ने कहा कि पहले तो मनुष्य और समाज के रोग की पहचान हो। उसके बाद उसका सटीक निदान भी ढूंढ लिया जाए। बिना रोग पहचाने उपचार करने का कोई अर्थ नहीं था। गुरु साहिब ने रोग की पहचान समाज की अज्ञानता के रूप में की। उनके विचार में अज्ञान सबसे बड़ा अंधकार था। इस घोर अंधकार में मनुष्य न स्वयं को देख पा रहा था, न परमात्मा को, जिसके पास शक्ति थी वह मनमानी पर उतारू था। गुरु साहिब का आगमन ऐसे अंधकार को दूर करने वाले प्रकाश की तरह था :
सतिगुरु नानकु प्रगटिआ
मिटी धुंधु जगि चानणु होआ।
जिउ करि सूरजु निकलिआ
तारे छपि अंधेरु पलोआ।
श्री गुरु नानक साहिब जिस ज्ञान के प्रसार के लिए आए, उसने अज्ञान के अंधेरे को इस तरह दूर किया जैसे जब आकाश में सूरज निकलता है तो तारे अलोप हो जाते हैं और अंधकार दौड़ जाता है। भाई गुरदास जी ने इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा कि श्री गुरु नानक देव जी जहां-जहां भी गए वहां लोग उनके अनुयायी बन गए, उनके विचारों को धारण करने लगे। घर-घर में धर्म का प्रकाश फैल गया और लोग परमात्मा के यश का गायन करने में रम गए। यह शायद संसार का सबसे कठिन कार्य था जिसका संकल्प लेकर गुरु साहिब इस धरती पर आए थे। गुरु नानक जी ने समाज को जो उपदेश दिए वे जीवन जीने का सही रास्ता सिखाते हैं।
1. एक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ।
निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि ।।
अर्थ : ईश्वर एक है। वह सभी जगह मौजूद है। हम सबका ‘पिता’ वही है इसलिए सबके साथ प्रेमपूर्वक रहना चाहिए।
2. नीच अंदर नीच जात, नानक तिन के संग, साथ वढ्डयां, सेऊ क्या रीसै।
अर्थ : नीच जाति में भी जो सबसे ज्यादा नीच है, नानक उसके साथ है, बड़े लोगों के साथ मेरा क्या काम।
3. ब्राह्मण, खत्री, सुद, वैश-उपदेश चाऊ वरणों को सांझा।
अर्थ : गुरुबाणी का उपदेश ब्राह्मणों, क्षत्रीय, शूद्र और वैश्य सभी के लिए एक जैसा है।
4. धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥
अर्थ : धन को जेब तक ही सीमित रखना चाहिए। उसे अपने हृदय में स्थान नहीं बनाने देना चाहिए। तुम्हारा घन और यहां तक की तुम्हारा शरीर, सब यहीं छूट जाता है।
5. हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥
अर्थ : हरि के बिना किसी का सहारा नहीं होता। काकी, माता-पिता, पुत्र सब तू है कोई और नहीं।
6. दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥
अर्थ : इस संसार में सब झूठ है। जो सपना तुम देख रहे हो वह तुम्हें अच्छा लगता है। दुनिया के संकट प्रभु की भक्ति से दूर होते हैं। तुम उसी में अपना ध्यान लगाओ।
7. मन मूरख अजहूं नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥
अर्थ : मन बहुत भावुक और बेवकूफ है जो समझता ही नहीं। रोज उसे समझा-समझा के हार गए हैं कि इस भव सागर से प्रभु या गुरु ही पर लगाते हैं और वे उन्हीं के साथ हैं जो प्रभु भक्ति में रमे हुए हैं।
8. मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
अर्थ : इस जगत में सब वस्तुओं को, रिश्तों को मेरा है-मेरा हैं करते रहते हैं, लेकिन मृत्यु के समय सब कुछ यही रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता। यह सत्य आश्चर्यजनक है पर यही सत्य है।
9. तनाव मुक्त रहकर अपने कर्म को निरंतर करते रहना चाहिए और सदैव प्रसन्न भी रहना चाहिए।
10. कभी भी किसी का हक नहीं छीनना चाहिए बल्कि मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।