देश इस समय जिन प्रलयकारी परिस्थितियों  का सामना कर रहा है उसकी तो शायद वर्तमान पीढ़ी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
मंहगाई, बेरोजगारी, कमजोर होती अर्थव्यवस्था  के इस दौर में ही जिस तरह नामुराद कोविड-19 ने भी हमारे देश में अपना पैर पसारा है इस स्थिति ने तो गोया करोड़ों लोगों के लिए जीते जी रोजाना मरने जैसे हालात पैदा कर दिए हैं। लोगों का काम-धंधा-रोजगार-नौकरी आदि  तो चौपट हो ही चुका है साथ साथ कोरोना के तेजी से होते होते जा रहे प्रसार ने भी आमजन को बुरी तरह भयभीत कर दिया है।
देश का मीडिया जहां प्राय: रोजाना  के कोरोना संक्रमितों के बढ़ते आंकड़े पेश करता है वहीं कोविड से रोजाना होने वाली मौतों की सरकारी व गैर सरकारी संख्या भी बताता रहता है। इनमें दो तरह के दृश्य प्राय: सबसे भयावह व मानव संवेदनाओं को झकझोर कर रख देने वाले होते हैं। एक तो अस्पताल में स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे बेड, आॅक्सीजन, दवा तथा उपयुक्त देखभाल के अभाव के चलते लोगों के दम तोड़ने के दृश्य व उनके परिजनों का गुस्सा व उनकी लाचारगी । दूसरे, देश के शमशानों व कब्रिस्तानों में शवों की लंबी कतारें तथा एक साथ दर्जनों चिताओं के जलने जैसे हृदय विदारक दृश्य। प्राप्त समाचारों के अनुसार कोरोना के प्रकोप ने कई ऐसे घरों में अपना कहर ढाया जहां कहीं पूरा परिवार काल की गोद में समा गया तो कहीं किसी को विधवा या किसी को अनाथ कर गया।
कहना गलत नहीं होगा कि देश कोरोना लहर की समाप्ति के बाद इस तरह के बड़े संकट का सामना भी करने वाला है जबकि ऐसे लाखों लोग बेसहारा,मजबूर व बेबस दिखाई देंगे जिनके परिवार के मुखिया या कमाई करने वाले सदस्य कोरोना की भेंट चढ़ गए। बहरहाल केंद्र व विभिन्न राज्यों की सरकारें अनुकंपा के आधार पर आम लोगों के आंसू पोछने की कोशिश कर रही हैं। कहीं लोगों को कुछ राशन सामग्री देने की घोषणा की गयी है तो कहीं गुजर बसर करने की गरज नकद धनराशि देने की बात कही गयी है। निश्चित रूप से  सांत्वना स्वरूप अनुकंपा के आधार पर दी जाने वाली सहायता मंहगाई के इस दौर में भले ही ऊंट के मुंह में जीरा की मानिन्द क्यों न हो फिर भी यह स्वागत योग्य है।
परन्तु जरा कल्पना कीजिये कि एक मध्यम या निम्न मध्यम  वर्गीय परिवार में कोरोना का शिकार व्यक्ति या व्यक्तियों के मंहगे इलाज व मुंह मांगे दामों पर खरीदे गए आॅक्सीजन व दवाइयों के खर्च से ही वह परिवार टूट चुका हो ऊपर से उसी परिजन के मरणोपरांत उसे दाह संस्कार के  लिए चार-छ: गुना मंहगी कीमत पर लकड़ियां भी खरीदनी पड़ें और संस्कार संबंधी सामग्रियों को भी अत्यधिक मंहगे मूल्यों पर खरीदना पड़े ऐसे में परिवार का भुक्तभोगी सदस्य स्वयं को भी मृतप्राय ही समझेगा।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस प्रलयकारी वातावरण में जहाँ हर ओर मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है,शमशानों में चिताओं के जलने के निरंतर दृश्य सामने हों। और इस भयावह घड़ी में पीड़ित लोगों से सहानुभूति रखने वाले तमाम मददगार हाथ उठ खड़े हुए हों, कोई अपनी जमीन बेचकर तो कोई अपनी मंहगी कार बेचकर कोरोना संकट से प्रभावित लोगों की मदद कर रहे हों वहीं कुछ दुष्ट प्रवृति के ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने इस आपदा को अपने लिए अवसर समझ लिया है।
शायद उन्हें यह मुगालता है कि वे मरेंगे भी नहीं,उनका कोरोना कुछ बिगड़ेगा भी नहीं और यदि मरे भी तो पैसा शायद उनकी चिता के साथ ही जाएगा। ऐसे ही लोग एम्बुलेंस में रोगी से लेकर शव तक के लाने ले जाने के लिए 5-10 व 15 किलोमीटर की दूरी के 5 हजार से लेकर 25 हजार रुपए तक मांग रहे हैं। किसी के परिजन का शव चिलचिलाती धूप में लाशों की कतार में है तो वहां सक्रिय दलाल संस्कार हेतु पहले नंबर लगाने के मोटे पैसे मांगते हैं। कुछ खबरें ऐसी भी आती हैं कि कोरोना से मौत होने की वजह से  मृतक के परिजन भी या तो दूर रहते हैं या शमशान से गायब ही हो जाते हैं।जहां जहां विद्दयुत शवदाह गृह हैं वहां औसतन एक घंटे में एक लाश को जलाया जा रहा है। निरंतर  विद्युत शवदाह गृह चलने की वजह से कहीं कहीं खराबी पैदा हो जाती है।
ऐसे में मुंह मांगी कीमत पर लकड़ी खरीदना मजबूरी बन जाती है। वाराणसी जैसी धर्मनगरी से एक समाचार तो यह भी मिला कि  बेरोजगार युवाओं की एक टोली गंगा घाट पर पहुंचने वाले शवों को कन्धा देने के भी पांच हजार रुपए तक वसूल रही है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)