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Golden opportunity to improve education system: शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का सुनहरी अवसर

भारत की सम्पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था को दो शताब्दियों से अंग्रेजी और अंग्रेजियत के विषाणु ने ग्रसित कर रखा है। वर्षों से नई पीढ़ी को अभारतीय बनाने का कार्य हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयो और विश्वविद्यालयों में हो रहा है। परिवार और समाज के संस्कारों से युवावर्ग में भारतीयता का समावेश कम या अधिक मात्रा में होता है। ब्रिटिश सरकार ने अपने सम्राज्य को भारत में बनाये रखने के लिए जो शिक्षा पद्धति बनायी थी, स्वतंत्रता के बाद हमने उसी को न केवल जारी रखा परन्तु ओर भी सुदृढ़ किया। अब जब कोरोना के विषाणु ने शिक्षा व्यवस्था के रथ के पहियों को विश्राम दिया है तो सुनहरा अवसर है जब हम शिक्षा व्यवस्था के विषय में गम्भीरता से और मौलिक रूप से सोचें। बहुत अच्छा अवसर है कि आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी को हम इस प्रकार शिक्षा व्यवस्था में समावेश करायें जिससे शिक्षा का माध्यम कल के भारत के सृजन में अग्रसर की भूमिका निभायें।
वर्तमान में शिक्षा व्यवस्था को चार बिंदुओ पर केंद्रित होना होगा। पहला है, सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग। इंटरनेट और टेलिफोन तकनीकी का मिलन जो मोबाईल के उपकरण में हुआ है उसके कारण न केवल समाज में संवाद का अनन्त विस्तार हुआ है परन्तु अध्यापक और विद्यार्थी को भी आपस में जुड़ने का एक नया और प्रभावी उपाय उपलब्ध है। कल के भारत की शिक्षा व्यवस्था का महत्वपूर्ण भाग आॅनलाईन प्रक्रिया आधारित होगा। इसकी कुछ तैयारी कोरोना के संकट काल में सभी शिक्षण संस्थाओं में अपने आप ही हो गई है। उसको ओर व्यवस्थित और सुचारू करने की आवश्यकता है।
दूसरा, हमारी शिक्षा को और अधिक समाजोपयोगी बनाने का अवसर आज हमारे पास है। अध्यापक समुदाय के लिये अत्यन्त लज्जा का विषय बनता है जब समाज के विभिन्न वर्गों से यह आवाज उठती है कि हमारे शिक्षण संस्थान अयोग्य युवकों और युवतियों को समाज में प्रवेश करवाते है। आवश्यकता है कि वर्तमान और भविष्य में भारतीय समाज में किस तरह के ज्ञान-विज्ञान और कौशल की आवश्यकता है यह अनुमान लगाकर ही हमारे पाठ्यक्रम और पाठ्यवस्तुओं की संकल्पनाएं बनें। जो प्रासंगिक नही है उस पर समय और उर्जा लगाना बुद्धिमानी का कार्य नही है। तीसरा, भविष्य की शिक्षा को इस प्रकार से बनाना होगा कि बच्चों की नैसर्गिक और अंतर्निहित प्रवृतियों का विकास हो। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरू जी ने कहा था कि समाज में कार्य रिक्तियों के आधार पर नही बंटना चाहिए बल्कि व्यक्ति की प्रवृतियों के अनुसार कार्य का विभाजन होना चाहिए। कितनी सुखद कल्पना बनती है ऐसे समाज की जिसमें हर व्यक्ति का जीवन-यापन का साधन उसकी हॉबी ही है।
चतुर्थ विषय शिक्षा के अवसरों से सम्बन्धित है। कल के भारत में गुणवत्ता, समानता और समरसता लानी है तो उसका माध्यम शिक्षा ही होगा और शिक्षा में प्रतिभा के अनुसार सबको समान अवसर मिलना अनिवार्य है। दूरस्थ गांव में रहने वाली गरीब परिवार की युवती को भी उतने ही और वैसे ही शिक्षा के अवसर उपलब्ध हो जैसे महानगर में रहने वाली एक बहन को हो। इसके लिए समस्त शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा के व्यापार को बदलकर समाज पोषित व राज्य पोषित शिक्षा प्रणाली बनानी ही होगी।
ऊपर दिये चार केंद्र बिंदुओ पर आधारित शिक्षा व्यवस्था बनाने के लिए बहुत विशाल नीति व्यवस्था की आवश्यकता नही है। विभिन्न स्तरों पर छोटे-बड़े कार्य करने से शिक्षा का बड़ा भाग भारतोन्मुखी बहुत कम समय में बनाया जा सकता है। पहला उपाय है शिक्षा प्रदान करने की प्रणाली को ‘फिजीटल’ करना। इसका अर्थ यह है कि हमें शिक्षा को प्रत्यक्ष (फिजिÞकल) और आनलाइन (डिजिटल) दोनो का मिश्रित रूप (फिजीटल) देना होगा। पाठ्यवस्तु को चार हिस्सों में बांटना चाहिए। पहला हिस्सा वह जो विद्यार्थी स्वयं आनलाइन उपलब्ध स्रोतो से जान सकें, सीख सकें। दूसरा हिस्सा वह जिसमें विद्यार्थी स्वयं सीख सकें परन्तु अध्यापक समय-समय पर सहायता करे। पाठ्यवस्तु का तीसरा भाग वह होना चाहिए जिसको विद्यार्थी आनलाइन स्रोतो से पढ़े और कक्षा में अध्यापक की सहायता से उसको समझे।पाठ्यवस्तु का चतुर्थ भाग ऐसा होगा जो केवल और केवल कक्षा या प्रयोगशाला में ही पढ़ाया, सिखाया या दिखाया जा सकता है।
वर्तमान में जिनको भी पाठ्यक्रम बनाने का दायित्व है वे पाठ्यवस्तु का वर्गीकरण सहजता से और कम समय में कर सकते है। इसमे ध्यान रखने वाली बात यह है कि एक ही फामूर्ला हर विषय को नही लगेगा। भाषा का विषय पढ़ने के लिए और गणित पढ़ने के लिए आनलाइन का प्रतिशत एक सा नही हो सकता। प्रबंधन में मार्केटिंग को पढ़ना और भौतिक विज्ञान में चुम्बकीय उर्जा को सीखना अत्यन्त भिन्न है। इसलिए हर पाठ्यवस्तु में एक सा आनलाइन करने का नियम जो हाल ही में घोषित हुआ है वह उचित नही लगता है।
दूसरा उपाय भी बहुत सरल है केवल मन की अवस्था बदलने का प्रश्न है। अध्यापक अपना कार्य पढ़ाने का न समझे परन्तु वे विद्याथीर्यों का सीखने के लिए सहायक, मार्गदर्शक या निदेशक का कार्य करें। विद्याथीर्यों में वे जिज्ञासा जगायें। उनके उत्तर खोजते हुए और जिज्ञासाएं जगें जिससे ‘विद्या प्राप्ति’ केंद्रित शिक्षा व्यवस्था स्वयं ही निर्मित हो जाएगी। तीसरा उपाय शिक्षा के प्रबंधन और वित्तीय व्यवस्था से सम्बंधित है। जो व्यक्ति विषयों के विशेषज्ञ हों वहीं शिक्षा के प्रशासन और प्रबंधन का दायित्व सम्भालें। शिक्षा गंभीर विषय है और जब हम किसी अधिकारी को जो पिछले कुछ वर्षों से मछली पालन का कार्य देख रहा था उसको बिना किसी तैयारी के शिक्षा व्यवस्था का मुख्य प्रबंधक बना देते है तो बंटाधार होना स्वभाविक है। ऐसा करना अनुचित ही नहीं है, समाजिक अपराध ही नहीं है परन्तु पाप ही माना जाना चाहिए क्योंकि हजारों-लाखों युवाओं का भविष्य प्रभावित होता है। अंतिम उपाय परीक्षा, मूल्यांकन और ग्रेड प्राप्ति से सम्बन्धित है। जिस भी विषय में हम विद्यार्थी को परांगत घोषित करते है उसका उसे पूर्ण ज्ञान होगी तभी वह समाज में पूर्णरूप से उपयोगी दायित्व ले सकेगा। तीन घंटे की परीक्षा और प्रश्नों के उत्तर देने के विकल्प और सामूहिक अज्ञात मूल्यांकन इसमें कही औचित्य या तर्क नही दिखता। विद्या की प्राप्ति का अनुमान अध्यापक को निरन्तर होता रहता है। यदि अध्यापक और विद्यार्थी में सौहार्द और श्रद्धा का सम्बन्ध बनता है तो सीखना-सिखाना शत-प्रतिशत होगा। ब्रिटिश ने हमें यह व्यवस्था बना दी हमने उसे चालू रखा परन्तु उसने अपने देश में इसको उखाड़ दिया और वैकल्पिक, अधिक प्रासांगिक व्यवस्था बना दी। मूल्यांकन की व्यवस्था को सुधारने के लिए कम्पयूट्रीकृत परणालियां उपलब्ध है जिनको सहज ही अपनाया जा सकता है। सबके संज्ञान में है कि कल के समाज की रूपरेखा आज की शिक्षा पर निर्भर करती है। सब इसको मानते है, परिवर्तन करना भी चाहते है परन्तु मौलिक परिवर्तन करने का साहस नहीं जुटा पाते। हर शिक्षाविद को, हर अध्यापक को और हर अभिभावक को इसके लिए अपना योगदान देना होगा। सामूहिकता से परिवर्तन हो जाएगा और प्रशासन को स्वीकार्य करना होगा।


प्रो. बृज किशोर कुठियाला
(लेखक हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्ष हैं। यह इनके निजी विचार हैं।

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