उन्हें धरती का भगवान कहा जाता है। वे वर्षों से एक अनूठी शपथ (हिप्पोक्रेटिक ओथ) लेते हैं, जिसमें वे हर बीमार को इलाज सुनिश्चित करने का वादा स्वयं से कर रहे होते हैं। वे डॉक्टर हैं और उम्मीदों के आसमान पर रहते हैं। सामान्य स्थितियों में मरीज व उनके परिजन डॉक्टर्स की कही हर बात को ब्रह्मवाक्य मानकर आगे बढ़ते हैं। इसके बावजूद कभी वे हाथ उठाते हैं, कभी उन पर हाथ उठते हैं। दरअसल सच ये है कि कई बार उनकी उपेक्षा मरीजों को भारी पड़ती है, तो कई बार मरीजों की अपेक्षा उन्हें भारी पड़ती है। इसका परिणाम नकारात्मक रूप से सामने आ रहा है और धरती के ये भगवान अपने भक्तों से दूर होते जा रहे हैं।
एक जुलाई को पूरे देश में डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया जाता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन सहित की संगठन देशभर में ख्यातिलब्ध चिकित्सकों का सम्मान करते हैं। इधर पिछले कुछ वर्षों से डॉक्टर्स डे पर होने वाले आयोजनों में मरीजों से चिकित्सकों की बढ़ती दूरी व्याख्यानों व विमर्श का बड़ा विषय बन गई है। पिछला पूरा महीना ही चिकित्सकों से जुड़े विमर्श का रहा है। पश्चिम बंगाल में चिकित्सकों के साथ मारपीट के बाद देशव्यापी आंदोलन हुआ और मामला लोकसभा से लेकर अदालत तक पहुंचा, किन्तु स्थितियां पूरी तरह सामान्य नहीं हो सकीं। ऐन डॉक्टर्स डे की पूर्व संध्या पर दिल्ली एक अस्पताल में चिकित्सकों से मारपीट का मामला सामने आया है। इन सभी घटनाओं में चिकित्सक जहां मरीजों पर गलत व्यवहार का आरोप लगाते नजर आ रहे हैं, वहीं मरीज चिकित्सकों पर लापरवाही का आरोप साबित करते दिखाई दे रहे हैं। देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की जिम्मेदारी एक डॉक्टर के पास है, ऐसे में उनकी अपेक्षाएं सरकार से भी कुछ अधिक हो गई हैं। सरकार भी ऐसे कानून पर विचार कर रही है, जिसमें डॉक्टरों पर हमले करने वालों को कठोर सजा दिलाना सुनिश्चित किया जा सका। ऐसे कानून से सजा व कार्रवाई का पथ तो प्रशस्त हो जाएगा, किन्तु चिकित्सा पेशे के प्रति मरीजों की घटती विश्वसनीयता बहाल हो सकेगी, यह कहना मुश्किल ही लग रहा है।
दरअसल चिकित्सकों व मरीजों के बीच बढ़ती दूरी महज महीने-दो महीने की प्रक्रिया नहीं है। 21वीं सदी की दस्तक के साथ ही हर पेशे में व्यावसायिकता बढ़ी, जिसका असर चिकित्सा व्यवस्था पर भी पड़ा। शोध व उपचार की उपलब्धता के साथ नई जांचों का दौर तेजी से बढ़ा। नई जांचों के लिए करोड़ों रुपए की मशीनों की जरूरत पड़ी और इसमें धनाढ्य वर्ग का प्रवेश हुआ। तमाम पढ़े-लिखे डॉक्टर धनाढ्य वर्ग के नौकर बन कर रह गए। करोड़ों की मशीनों के लिए टर्नओवर भी लाखों रुपए का चाहिए था, तो डॉक्टर्स ने जांच से लेकर इलाज तक कमीशन पर फोकस किया। बड़े अस्पताल खुले, तो इलाज के पैकेज बनने लगे। इन स्थितियों में इलाज पर पैसा भारी हो गया। यही कारण रहा कि निजी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस व एमडी-एमएस की सीटें करोड़ों रुपए में बिकने लगी। रेडियोलॉजी में परास्नातक की पढ़ाई सबसे महंगी हो गई क्योंकि यह महंगी जांचों वाली विशेषज्ञता के रूप में सामने आई। बहुत अधिक समय नहीं हुआ है, जब निजी कॉलेजों को मान्यता देने के मामले में भारतीय चिकित्सा परिषद की गड़बड़ियां सामने आई थीं। ऐसा नहीं है कि इन सबके बीच सेवाभावी चिकित्सक नहीं बचे, वे थे, हैं और आगे भी रहेंगे। आज भी तमाम चिकित्सक ऐसे हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व चिकित्सकीय मर्यादा की रक्षा में समर्पित कर दिया। उनके लिए मरीज सर्वोपरि हैं और वे दिन-रात देखे बिना मरीजों की सेवा में लगे रहते हैं। यहां दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि सरकारों द्वारा पद्मश्री जैसे सम्मान देते समय ऐसे जमीनी चिकित्सकों के स्थान पर राजनेताओं का इलाज करने वाले दिग्गज चिकित्सकों के नाम ही चर्चा में आते हैं।
चिकित्सकों व आम जनमानस में बढ़ती इस दूरी के पीछे जनता भी कम जिम्मेदार नहीं है। चिकित्सकों से मरीजों व उनके परिजनों की अपेक्षाओं का स्तर भी लगातार बढ़ रहा है। तमाम बीमारियों के साथ जिस तरह निजी क्षेत्र का विस्तार हुआ, मरीज भी सरकारी चिकित्सा प्रणाली से निजी चिकित्सा व्यवस्था की ओर घूमे। चिकित्सक भी समाज का हिस्सा हैं और वे इलाज के लिए शुल्क देते हैं। शुल्क देते ही मरीज उनसे दुकानदार की भूमिका में बात करने लगते हैं। मरीज की मौत या अन्य स्थितियों में ये अपेक्षाएं विस्तार ले लेती हैं और फिर हंगामा, तोड़फोड़ जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप भी तेजी से चिकित्सा व्यवसाय को नुकसान पहुंचा रहा है। राजनेताओं से लेकर प्रशासनिक अफसरों तक हर कोई निजी अस्पतालों में ही इलाज कराना श्रेयस्कर समझता है। वे सरकारी अस्पतालों में जाते नहीं हैं और कई बार तो सरकारी अस्पतालों में तैनात चिकित्सकों से ही निजी अस्पताल में इलाज कराते हैं। ये स्थितियां ठीक होनी चाहिए। चिकित्सकों को उस शपथ (हिप्पोक्रेटिक ओथ) का सम्मान करना चाहिए, जिसके साथ वे डॉक्टर बनकर मरीजों के इलाज का बीड़ा उठाते हैं। वहीं सामाजिक जीवन के सभी स्तंभों को भी अपनी भूमिका का सतत निर्वहन करना चाहिए, ताकि चिकित्सकों व आम जनमानस के बीच विश्वास का रिश्ता कायम हो सके।