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Global warming and weather worsening: ग्लोबल वार्मिंग और मौसम का बिगड़ता मिजाज

पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 5 जून को पूरी दुनिया में ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा 16 जून 1972 को स्टॉकहोम में पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए यह दिवस मनाने की घोषणा की गई थी और पहला विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 1974 को मनाया गया था। 19 नवम्बर 1986 को भारत में ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम’ लागू किया गया। पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने तथा प्रकृति के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस के लिए प्रतिवर्ष अलग-अलग थीम निर्धारित की जाती है। इस वर्ष पर्यावरण दिवस की थीम है ‘समय और प्रकृति’ (टाइम फॉर नेचर), जिसका अर्थ है कि इस बार पृथ्वी तथा मानव विकास पर जीवन का समर्थन करने वाले आवश्यक बुनियादी ढ़ांचे पर ध्यान दिया जाएगा। वर्तमान में यह थीम इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि संभवत: दुनिया के हर व्यक्ति ने कोरोना जैसी भयानक महामारी के चलते ही सही, लॉकडाउन जैसे उपायों के चलते प्रकृति का बिल्कुल नया और साफ-सुथरा रूप पहली बार देखा है। हालांकि प्रकृति के स्वरूप में देखा गया यह बदलाव अस्थायी है क्योंकि जैसे-जैसे मानवीय गतिविधियों पहले की भांति शुरू होंगी, वैसे-वैसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू हो जाएगा और पर्यावरण की हालत पहले जैसी होते देर नहीं लगेगी। इस वर्ष गर्मी की शुरूआत से ही मौसम में काफी बदलाव देखा गया है। पहले अपेक्षाकृत काफी कम गर्मी और फिर एकाएक आसमान से बरसती आग और मई माह के आखिर में एकाएक बारिश और ओलावृष्टि से तापमान में बड़ी गिरावट, मानवीय करतूतों के कारण ये सब मौसम के बिगड़ते मिजाज के स्पष्ट संकेत हैं। अम्फान जैसा सुपरसाइक्लोन हो या बेमौसम की बारिश और ओलावृष्टि, ऐसा प्रकोप अब साल दर साल देखने को मिल रहा है। प्रकृति समय-समय पर अपना प्रकोप दिखाते हुए गंभीर संकेत देती रही है कि विकास के नाम पर हम प्रकृति से भयानक तरीके से जो खिलवाड़ कर रहे हैं, उसके परिणामस्वरूप मौसम का मिजाज कब कहां किस कदर बदल जाए, उसकी कई दिनों पहले भविष्यवाणी करना अब मुश्किल है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर में मौसम का मिजाज किस कदर बदल रहा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले साल तो उत्तरी ध्रुव के तापमान में एक-दो नहीं बल्कि करीब 30 डिग्री तक की बढ़ोतरी देखी गई थी। स्कूली दिनों में हम सभी ने पढ़ा है कि यूरोप का मौसम प्राय: ठंडा होता है किन्तु उससे आगे उत्तरी ध्रुव का तापमान तो उसके मुकाबले बेहद ठंडा रहता है, जो औसतन शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस तक कम रहता है और वहां हर मौसम में सदैव बर्फ की मोटी चादर नजर आती है लेकिन पिछले साल इन दोनों स्थानों का नजारा बिल्कुल विपरीत देखा गया था। जहां यूरोप जबरदस्त बर्फबारी और भीषण शीतलहर की चपेट में शून्य से भी कम तापमान में सिमटा रहा, वहीं उत्तरी ध्रुव के कुछ क्षेत्रों का तापमान शून्य से दो डिग्री ऊपर देखा गया। न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी और मौसम का निरन्तर बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का सबब बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं और वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अब तक ठोस कदम उठते नहीं देखे गए। वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चचार्एं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते ऐसी चचार्एं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। पर्यावरण संरक्षण को लेकर इन्हीं सब चिंताओं, तथ्यों और समाधानों की चर्चा मैंने 190 पृष्ठों की अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में विस्तारपूर्वक की है।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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