* Gita-mystery of Corona * *कोरोना का गीता-रहस्य*

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NANCHANG, Feb. 2, 2020 (Xinhua) -- Workers make protective masks at the workshop of a company in Jinxian County, east China's Jiangxi Province, Feb. 1, 2020. To help fight the outbreak of pneumonia caused by novel coronavirus, workers of many medical material companies rushed to work ahead of schedule to make protective equipment. (Xinhua/Wan Xiang/IANS)

जब मैं स्कूल में था तो तुलसी जयंती धूमधाम से मनाई जाती थी। निबंध, भाषण और कविता प्रतियोगिता होती थी। जीतने पर रामचरितमानस और श्रीमदभागवतगीता की किताबें पुरस्कार स्वरूप दी जाती थी। मैं हर साल जीत जाता था। मोटे अक्षर की बड़ी पोथी होती थी। बस्ते में अंटती नहीं थी। सहृदय सहपाठी उसे घर तक लाने में हाथ बटाते थे। परिवार में लोग बड़े ख़ुश होते।

मेरी माँ गीता को बड़े चाव से पढ़ती थी। विशेषकर वो श्लोक जिसमें श्री कृष्ण कहते हैं कि जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग नया वस्त्र धारण कर लेता है वैसे ही आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग नया शरीर धारण कर लेती है। पढ़ते समय ये बातें किताबी और किसी और पर घटित होने वाली लगती थी, लेकिन एक ऐसा भी समय आया कि वे स्वयं भी पुराना शरीर छोड़ गईं। जब तक हम जीते हैं, लगता है हमेशा इधर ही रहेंगे। मृत्यु के सत्य को नकारते रहते हैं। लेकिन जब जो होना है, हो लेता है। कोविड19 को ही लीजिए। 31 दिसंबर 2019 तक किसी को पता ही नहीं था कि इस नाम की कोई बीमारी भी होती है। दुनिया-भर में पच्चीस लाख के आसपास इसके चपेट में आ चुके हैं। डेढ़ लाख जान गवाँ चुके है। इसी को क्यों दोष दें? आँकड़ों को देखें तो अकेले भारत में रोज़ धूम्रपान-सेवन से 2740, शराब से 712 और सड़क दुर्घटनाओं से 380 लोग मरते हैं।

जब मैं हाई स्कूल में था तो पढ़ने में तेज होने का मतलब विज्ञान और गणित में अच्छे अंक लाना होता था। आर्ट्स सब्जेक्ट वालों को बिना किसी बहस के गोबर-दिमाग़ घोषित कर दिया जाता था। मतलब कि खेती-बाड़ी से बचने और पढ़ा-लिखा दिखने के लिए टाइम पास कर रहा है, इससे कुछ उखड़ना नहीं है। गीता-उन्मुख माँ ने शुरू में ही मन में बिठा दिया था कि अपना काम खुद करना चाहिए। बात-बात पर भगवान के पास दौड़ने का कोई मतलब नहीं है। वो कोई ठाले नहीं बैठे। दूसरे, मेहनत करनी और इसी की खानी चाहिए। पास में महादेव का मंदिर था। भारी भीड़ रहती थी। लोग उन्हें ओघड़दानी – जो माँगो वही देने वाले – बोलकर ठगने में लगे रहते थे। वहाँ एक छोटी कोठरी में वीणा बजाती माँ सरस्वती की मूर्ति भी थी। ख़ाली रहती थी। मैं कभी-कभार उनसे संवाद को पहुँच जाता था। माँ का ‘कोड’ किया हुआ दिमाग़ था। सो माँगना तो दूर, उल्टे ये चेता आता था कि जिस लायक़ हुँ, उतना ही देना। मेरे लिए नियम मत तोड़ना। ख़ैर उनको जो करना था, एक दिन कर बैठी। मैं कब सुधरने वाला था? इस बार कह आया कि अब जब दे ही दिया है तो आगे बुद्धि भी ठीक रखना।

लगता है आजकल कोविड19 गीताज्ञान बाँटने में लगा है। मनुष्य को पुराना शरीर त्याग नया धारण करने के लिए धकिया रहा है। सरकार में काम करते अट्ठाईस साल हो गए। लोगों से उनके अपने भले का काम कराने में भी पसीने चू जाते हैं। कौतूहल हुआ कि गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ऐसा क्या कह दिया कि वो फिर लड़ने को तैयार हो गया? ईनाम में मिली गीता तो कब को पुराने पाठक को छोड़ नया पाठक धारण कर चुकी थी सो किंडल पर ई-गीता खोली। समाप्त किया तो समझ में आया की मैकॉले की अंग्रेज़ी पढ़ाई व्यवस्था सारे फ़साद की जड़ है। गीता को शब्द-बोध होते ही सबको पढ़ाया जाना चाहिए। कारगर चरित्र-निर्माण का इससे बढ़िया तरीक़ा हो ही नहीं सकता।

भाई-भतीजे के ख़िलाफ़ युद्ध के द्वन्द में उलझे अर्जुन को श्रीकृष्ण ने जीवन का रहस्य बताया। कहा कि सृष्टि ही परमात्मा है और परमात्मा ही सृष्टि। दोनो में कोई भेद नही है। स्थूल शरीर में परमात्मा जब तक आत्मा के रूप में वास करती हैं, ये जीवित रहता है। मनुष्य अपने शरीर नहीं बल्कि अपने स्वभाव, विचार और आचरण के लिए जाना जाता है। ये तमस, राजस और सत्व गुणों से निर्मित होता है। मनुष्य समाज के लिए, समाज विश्व के लिए और विश्व सृष्टि के लिए है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि अपने निष्काम कर्म से सत्व गुणों का विकास करे, तमस् और रजस का निषेध करे। ऐसा करने से उसे इस जीवन में संतोष मिलेगा और मृत्यु उपरांत वो जन्म-मरण के बंधन से छूटकर परमात्मा में स्थित होगा। अगर एक भी मनुष्य पीड़ित है तो उसकी पीड़ा सारे संसार की पीड़ा है। दंड की अनिवार्यता के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो तमस् और राजस के अधीन हैं, अधर्म के रास्ते चलते हैं, दंड ही उनके लिए करुणा है। वे नए शरीर में ही सत्व गुणों का विकास कर अपनी आत्मा को परिष्कृत कर सकते हैं, जन्म-मरण के बंधन से छूट परमात्मा में स्थित हो सकते हैं।

सामान्य भाषा में कहें तो जीना-मरना पक्का है। जो जी रहे हैं उनको चाहिए कि वे ज़िम्मेवारी से जिए। जो काम मिला है, पूरे मनोयोग से करे। लोभ, लालच, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष का त्याग कर करुणा, दया, प्रेम, संवेदना, सहयोग जैसे गुणों का विकास करें। जानबुझ कर अपना और अन्य का अहित ना करें। जिसका दिमाग़ घूम गया है उसे दंड से ठीक किया जाना चाहिए। इसी में सबकी भलाई है।

गीता मुझे कहीं से एक धर्म विशेष से जुड़ी विचारधारा नहीं लगी। ये सीधे-सीधे ज़िम्मेवारी से जीने की बात करती है।

कोविड19 जैसी त्रासदी हमें याद दिलाती है कि जब तक हम तमस् और राजस गुणों को पोषित करते रहेंगे, सृष्टि हमें दंडित करती रहेगी। इस महामारी का इलाज तो देर-सवेर निकल आएगा लेकिन नाभिकीय युद्ध, क्लाइमेट चेंज और टेक्नलाजिकल चेंज जैसी चुनौतियाँ मुँह बाये खड़ी है। ज़रूरी है कि लोग ज़िम्मेवारी से पेश आएँ और निस्संदेह गीता इसकी पैरवी बहुत अच्छे से करती है।