राजधानी और इसके आसपास आजकल दो ही बातों की चर्चा है। एक कि ठंड रिकार्ड-तोड़ है। ऐसी ठिठुरन कि पैसे खर्च कर मनाली-श्रीनगर जाने की कोई जरूरत नहीं है। उस लेवल की ठंड की मौसम ने एक तरह से होम डिलिवरी कर दी है। घर बैठे जितनी मर्ज़ी थरथरा लीजिए। चौदह दिसम्बर से शुरू हुआ है। 1992 का रिकार्ड टूट चुका है। मौसम विभाग वालों का कहना है कि ये उत्तर-पश्चिमी सर्द हवाओं की मार है। एकाध सप्ताह और झेलना पड़ेगा। 1901 के बाद से ये ठंड का सबसे लम्बा दौर है।
धूंध की वजह से सूरज को रोशनी भी बीच में ही उलझ कर रह जाती है। जमीन पर पड़े की तो छोड़िए, हवा में उड़ रहे लोगों को भी नहीं पता कि उनका जहाज अगर दिल्ली के लिए चला है तो वहां उतरेगा भी कि नहीं!
एक मसखरे का कहना है कि मौसम में ये अचानक बदलाव संविधान की धारा 370 को हटाने की वजह से आया है। तर्क ये है कि अगर एक बफीर्ले राज्य का आप पूर्ण विलय कर लेंगे तो बाकी देश का औसत तापमान तो नीचे जाएगा ही जाएगा! ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ का झंडा लेकर घूमने वाले झोला पार्टी सकते में हैं। लोगों को समझाना और भी मुश्किल हो गया है कि अगर वातावरण में कार्बन उड़ेलना बंद नहीं करेंगे तो धरती का तापमान बढ़ जाएगा। ग्लेशियर पिघल जाएंगे। समुंदर के पास वाले देश डूब जाएंगे। सुनने वाले कहते हैं कि पगला गए हो? ठंड से जान जा रही है और तुम धरती के गरमाने का झोल समझा रहे हो?
दूसरी बात नए साल की है। एक जनवरी की तो पूछिए ही मत। क्रिसमस के बाद लोग भूल ही गए हैं कि बीच में छब्बीस से लेकर इक्कत्तिस दिसम्बर भी है। होटल-क्लब वाले एक से एक पैकेज फेंक रहे हैं कि आओ, एक जनवरी को हमारे साथ स्टाइल से नए साल में घुसो। डीजे, गवय्यों और हीरो-हीरोईन का तो ये सीजन है। अपने-अपने औकात के हिसाब से लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं। साल के बाकी दिनों की औकात तो धेले भर की नहीं रह गई है। सारे फर्स्ट-जनवरी-फर्स्ट-जनवरी चिल्ला रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि एक जनवरी को वक्त थम जाएगा। चौबीस घंटे होते ना होते ये भी अपने सगों की तरह कैलेंडर के कूड़ेदान में पड़ा होगा। समय के आगे किसकी चली है? लेकिन कोई-कोई दिन ऐसा भी होता है कि जिसे कोई विशिष्ट आदमी अपना नाम दे देता है। वो फिर उसके नाम से जाना जाने लगता है। 12 जनवरी को ही लीजिए। सन 1863 में इस दिन स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था। समय से सदियों आगे के व्यक्तित्व थे। नहीं तो कौन कहता है कि तुम जैसा सोचते हो, तुम वही हो? उठो, चलो और तब तक लगे रहो जब तक कि अपना लक्ष्य प्राप्त ना कर लो। जो शिक्षा लोगों को कर्मठ, सहिष्णु और स्वावलंबी ना बनाए, वो किसी काम की नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदू धर्म को पूर्णर्जीवन देने वालों में थे लेकिन यथार्थवादी इतने कि यहाँ तक कह डाला कि अगर गीता और फुट्बॉल में चुनना हो तो फुट्बॉल को चुनो। जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद चरम पर था, भारत मे राष्ट्रीयता की अलख जगाई। 1893 के शिकागो के धर्म-संसद में उनका भाषण भारत के इतिहास के गौरवशाली क्षणों में एक है। मात्र उनचालीस साल की उम्र में 1902 में स्वर्ग सिधार गए। उनका जीवन ‘आनंद’ फिल्म में राजेश खन्ना की बात पर मुहर लगाती है। कैंसर के कारण निश्चित मृत्यु से जूझ रहे उसके किरदार ने दिल छू लेने वाली बात कही थी, ‘बाबू मोशाय, जिंदगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए।’ स्वामी विवेकानंद का जीवन बड़ा, बहुत बड़ा था।
आत्मसम्मोहित हुक्मरानों को 1984 में जाकर स्वामी विवेकानंद की याद आयी। आनन-फानन इनके जन्म दिन को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित कर दिया। किसी जाति-विशेष को ये चुनावी फायदा पहुंचा नहीं रहे था सो इस दिन को राजकीय छुट्टी घोषित करने के लिए किसी ने कोई दबाव नहीं डाला। ऐक्शन के नाम पर स्कूल-कॉलेजों को कह दिया गया कि इस दिन विवेकानंद से जुड़ा कोई कार्यक्रम कर लो। तब से ये दिन आता है और जाता है। लेकिन किसी जींस-धारी से पूछिए कि स्वामी विवेकानंद से युवावस्था में क्या प्रेरणा पाई तो बगलें झांकने लग जाएंगे। सलमान खान की बेसिरपैर की फिल्मों का देखते-देखते सैकड़ों करोड़ों का बिजनेस करानी वाली सोच से राष्ट्रनिर्माण की अपेक्षा करना आशावादिता की पराकाष्ठा है।
सरकारों में जमे लोगों को समझना चाहिए कि प्रजातंत्र की सफलता के दो मूल-मंत्र हैं – सुशासन और इफेक्टिव सिटिजेन्शिप। गुड गवर्नन्स से विकास होता है। विकास से लोगों को आवश्यक साधन, सेवा और अवसर मिलता हैं। इफेक्टिव सिटिजेन्शिप का अर्थ है कि नागरिकों को अच्छे-बुरे का बोध है। वे जागरूक हैं। विकास का शोर तो चहुंओर है। इसमें ठीका-पट्टा जो है। लेकिन इफेक्टिव सिटिजेन्शिप राम-भरोसे है। सड़क-मोटर बनाते है पर सेफ ड्राइविंग नहीं सिखाते। अस्पताल बनाते हैं लेकिन सक्रिय जीवनशैली के लिए प्रेरित नहीं करते। स्कूल-कालेज तो खोल रहे हैं लेकिन विद्यार्थियों को स्वाबलम्बी बनने की शिक्षा नहीं देते। बिजली बनाते हैं लेकिन इसका सही इस्तेमाल करने और इसका बिल भरने की आदत नहीं सिखाते। थाना-कचहरी खोलते हैं लेकिन लोगों को मिल-जुलकर रहना नहीं सिखाते। परिणामस्वरूप लोग मर रहे हैं, मार रहे हैं। सरकारों से कह रहे हैं कि हमसे कुछ नहीं होता, हमारा ठेका ले लो।
ऐसे में हरियाणा सरकार की कम्यूनिटी-बिल्डिंग की पहल गौर करने लायक है। सुशासन के साथ ये इफेक्टिव सिटिजेन्शिप को भी बढ़ावा देने में लगी है। विकास के साथ-साथ कम्यूनिटी-बिल्डिंग को प्राथमिकता दे रही है। लोगों ने इस मुहिम को हाथों-हाथ लिया है। जाति-पाती का भेद कम हुआ है। किशोर और युवा भारी संख्या में सरकार से जुड़े हैं। जिस किसी ने 2015 के हिंसक आंदोलन को देखा है, उसके लिए ये किसी चमत्कार से कम नहीं है।
ओपी सिंह
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
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