मैं आमतौर पर साल का पहला दिन गंगोत्री में मनाता हूँ। गंगोत्री मेरा प्रिय स्थान है। इसकी एक वजह तो हमारी यह मैदानी सभ्यता गंगा की ही देन है। इसलिए गंगा से माँ जैसी प्रीति मुझे है। मैं असंख्य बार गंगोत्री गया हूँ,और दो बार गोमुख भी। लेकिन दीवाली के बाद से गंगोत्री का मंदिर नीचे मुकबा में ले आया जाता है, जो हर्षिल के करीब है। और भारत-चीन सीमा का आखिरी गाँव। इसके पीछे की तरफ तिब्बत है। 1962 के पहले यहाँ तिब्बती व्यापारी आया-जाया करते थे। मुकबा दरअसल गंगोत्री मंदिर के पुरोहित सैमवाल ब्राह्मणों का गाँव है। जो कभी टिहरी के राजा ने उन्हें माफी में दिया था। इसलिए 31 दिसंबर को हम मुकबा ही पहुँच पाते हैं। कुछ साल पूर्व जब मैं नया साल मनाने के लिए गंगोत्री के लिए चला,तो मुकबा पहुँचते-पहुँचते हालत खराब हो गई। बर्फवारी के कारण हम आगे बढ़ ही नहीं पा रहे थे। इसलिए मैंने हर्षिल स्थित आर्मी के बेस कैंप में रात गुजारने की ठानी।
हम 31 की रात हर्षिल के आर्मी बेस कैंप की तिरपानी कुतिया (सुइट) में रुके। रात को ड्राइंग रूम और बेडरूम में हीटर चल रहे थे, इसलिए पारे का पता नहीं चला। लेकिन अगली सुबह हर्षिल में पारा माइनस पांच था। चारो तरफ बर्फ ही बर्फ। यूं मुझे उत्तराखंड तो लगता है अपना दूसरा घर बन गया है। गाजियाबाद स्थित अपने घर से हम दोपहर एक बजे निकले। हम यानी कि मित्र सुभाष बंसल उनके पुत्र राहुल बंसल और सार्थक बंसल। सुरेंद्र बिष्ट तथा राजेश झा। रास्ते भर हमारी फोर्ड एंडीवर गाड़ी बिष्ट जी ने चलाई। एक जमाने में बिष्ट जी ब्रिटिश हाई कमीशन में हाई कमिश्नर की गाड़ी चलाते थे। दिल्ली से निकलते ही पहला पड़ाव हरिद्वार रखा गया। वहां पर स्वामी सत्यमित्रानंद के भारत माता आश्रम, गीता आश्रम और माता आनंदमयी आश्रम में रुकने की व्यवस्था तो थी ही मित्र सुनीति मिश्र ने अपने होटल भज गोविंदम में भी इंतजाम कर रखा था। मगर रुकना कहीं संभव नहीं हो सका और सीधे ऋषिकेश होते हुए पहाड़ पर चढ़ गए। वहां नरेंद्र नगर का महाराजा पैलेस भी छोड़ा और आगराखाल, फकोट होते हुए सीधे नागनी जाकर रुके। वहां एक रेस्त्रां में चाय पी। शाम ढलने लगी थी इसलिए आम पहाडिय़ों की तरह यह रेस्त्रां भी बंद हो रहा था पर मुझे देखकर उसने तत्काल चाय बनाई और गरम चाय पीकर चले तो चंबा चढ़कर कंडीसोड पहुंचे।
इसके पूर्व जैसे ही कमान्द पार किया कि एक तेंदुआ बीच रास्ते में आ गया। उसकी फोटो लेने की तमन्ना थी मगर वह भाग निकला। फिर चिन्यालीसोड आया। तब तक रात के 11 बज चुके थे। इसके बाद शुरू हुआ धरासू के धसकते पहाड़ों का सिलसिला। रात को थक भी चुके थे सो एक बार सोचा कि ऊपर चढ़कर वन विभाग के रेस्ट हाउस में रुका जाए पर लगा कि सीधे उत्तरकाशी ही ठीक रहेगा। चल पड़े अचानक बीच सड़क पर एक औरत लालटेन लिए प्रकट हुई। थोड़ा अजीब लगा। आधी रात को यह कैसा दृश्य! पर वह औरत जिस तरह प्रकट हुई उसी तरह विलुप्त हो गई। फिर आया डुण्डा। एवरेस्ट विजेता बछेन्द्री पाल का गांव। यहां तिब्बती बसे हैं। इसके बाद मातली और फिर सीधे उत्तरकाशी रात 12 बजे पहुंचे। वहां हमारे पंडित जी श्री जितेंद्र सैमवाल मिले और हम चल पड़े वहां से आठ किमी दूर नैताला की तरफ जहां पर हमारे रुकने की व्यवस्था थी। गंगोत्री जाते समय उत्तरकाशी रुकना ही पड़ता है। मगर मुझे लगता है कि बजाय उत्तरकाशी रुकने के नैताला रुका जाए। वहां पर शुरू में ही गुजरात गेस्ट हाउस है। शांत और सुंदर।
भोजन भी लाजवाब और रुकने की व्यवस्था उत्तम। किसी भी स्टार होटल से कम नहीं पर टैरिफ निम्र मध्यवित्त वर्ग के सैलानियों की हैसियत के भीतर। नीचे बहती गंगा और ऊपर चौरस जगह पर नैताला एक छोटा-सा सुंदर गांव। नीचे गंगा तट पर शिवानंद योग केंद्र भी है तथा अन्य तमाम आश्रम भी। मगर मैं गुजरात गेस्ट हाउस में ही रुकना पसंद करता हूं। फिर वहां रुककर आप गंगोत्री अथवा हर्षिल के लिए निकल सकते हैं। वाया मनेरी, भटवारी, गंगनानी व सुक्की टॉप होते हुए सीधे हर्षिल। शांत और सुंदर आर्मी बेस कैंप तथा तिब्बती जाड़ा लोगों का गांव। यहां पर विल्सन ने सेबों के बाग लगाए थे। विल्सन नामक यह अंग्रेज एक फौजी भगोड़ा था जो मेरठ छावनी में एक मर्डर कर अंग्रेज पुलिस की नजर से बच कर भागा या हो सकता है कि अंग्रेज पुलिस ने उसे भगा दिया हो। यहां टिहरी नरेश ने उसे शरण दी बदले में विल्सन ने टिहरी नरेश के जंगलों को काट-काट कर लकड़ी विलायत भिजवाया करता और वहां से जो रेवेन्यू आता वह राजा को देता। विल्सन ने ही गंगोत्री से कलकत्ता तक गंगा का परिवहन रूट तय किया और हाथियों को लकड़ी निकालने के काम में लगाकर उनका व्यावसायिक इस्तेमाल करना टिहरी के राजा को सिखाया। इसीलिए लोग विल्सन को राजा कहने लगे थे। यह हर्षिल गांव ऊपर बसे भारत के अंतिम गांव मुकबा का ही रकबा है।
मुकबा में गंगोत्री के पुरोहित सैमवाल लोग आबाद हैं और वे हर साल दीवाली में गंगोत्री से गंगा का कलेवर यहां मुकबा ले आते हैं। मुकबा में रात काटना बहुत मुश्किल होता है। सांय-सांय करते बफीर्ले तूफान चलते हैं जिनसे बदन पलट जाने का खतरा बना रहता है और हिम तेंदुआ कभी भी आपको दबोच सकता है। मगर मैं 31 दिसंबर को मुकबा पहुंच ही गया पर पिछले साल के विपरीत इस साल मैं हर्षिल में आर्मी के गेस्ट हाउस तिरपानी काटेज में रुका। वहां हर तरह की सुविधा थी। अटैच्ड बाथरूम, उम्दा भोजन और पेय तथा टीवी व निर्बाध बिजली। मगर एक गड़बड़ हो गई। रात को मैं गीजर की टोटी खोलना भूल गया और सुबह उठा तो गीजर को जोड?े वाली पाइप लाइन जाम हो चुकी थी। और मैं नहाने के लिए सिर पर शैंपू लगा चुका था।
अब न तो बटमैन से गरम पानी मंगाया जा सकता था न तौलिया से बदन पोंछ कर बाहर आया जा सकता था इसीलिए उस माइनस पांच में गंगा जल के शीतल जल से ही स्नान करना पड़ा। तीन जनवरी की रात दस बजे दिल्ली वापस। बेहद रोमांचक यात्रा रही गंगोत्री की। भारी बारिश के चलते बर्फवारी भी हुई और रास्ता बीच में ब्लाक भी हुआ। पर अच्छा लगा कि नया साल बेहद आध्यात्मिक वातावरण के बीच मुकबा के गंगा मंदिर में मनाया और रात उन फौजियों के बीच काटी जिन बेचारों को बेहद उबाऊ और थकाऊ अंदाज में हर्षिल की भयानक शीत में रहना पड़ता है। कोई गुजरात का तो कोई राजस्थान और कोई महाराष्ट्र का। कुछेक पंजाब, हरियाणा व जम्मू के भी थे। मजे की बात कि उनमें से कई अपने कनपुरिया भाई भी मिले। सर्दी में मेरी गाड़ी जाम हो गई और उसे धक्का देकर भी स्टार्ट नहीं किया जा सका तो गरम-गरम पानी इंजन में डाला गया जिससे इंजन तो चालू हो गया पर पानी जहां गिरा वहां बर्फ जमती चली गई। सुस्ताते हुए जब हम तापने लगे तो एक सूबेदार बोला- सर गए साल इस ठंड में हमारी खैरख्वाह लेने एनडीटीवी की टीम आई थी इस बार आप आए तो हमें लगा कि हमारा परिवार आ गया। पता नहीं कब तक यहां का निर्वासन रहेगा।
शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)