30 जनवरी 1948 यानी भारतीय इतिहास का वह काला दिन जब हमने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की हत्या का दंश सहा था। महात्मा गांधी ने तमाम आरोपों-अवरोधों का सामना करते हुए भी देश में सर्वधर्म सद्भाव की स्थापना के लिए अपनी जान तक गंवा दी। आज उनकी मृत्यु के 72 साल बाद पूरे देश का वातावरण गांधी की विचार प्रक्रिया को ठेंगा दिखाता नजर आ रहा है। आज देश का राजनीतिक व सामाजिक वातावरण जिस तरह का बन गया है, वैसा भारत तो गांधी ने कभी नहीं सोचा था। आज गांधी के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले उन्हें कदम-कदम पर वैचारिक चुनौती दे रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु इस पर विराम नहीं लग पा रहा है। अहिंसा और सत्य के साथ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले महात्मा गांधी देश में धार्मिक सौहार्द के प्रणेता थे। गांधी ने हिन्दू – मुस्लिम एकता की पैरोकारी की तो एक हिन्दू ने उन पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या कर दी। गांधी ने मुस्लिमपरस्ती का आरोप भी झेला, किन्तु गांधी के ही भारत में जब एक मुस्लिम युवा असम को देश से अलग कर देश के टुकड़े – टुकड़े करने की बात कर रहा था, उस समय ‘नारा-ए-तकबीर’ जैसे धार्मिक नारे उसका तो समर्थन कर रहे थे किन्तु गांधी के विचारों की हत्या कर रहे थे। ठीक इसी तरह ‘रघुपति राघव राजा राम’ गाने वाले गांधी के देश में जब-जब राम के नाम पर राजनीति होती है, गांधी की वैचारिक हत्या होती है। ऐसे में एक गोडसे को गांधी का हत्यारा मानने वालों से बड़े हत्यारे वे लोग हैं जो दिन पर दिन प्रक्रिया में गांधी की वैचारिक हत्या कर रहे हैं। महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण के साथ हमें उन हत्यारों से भी मुक्ति का संकल्प लेना होगा, जो रोज-रोज गांधी की वैचारिक हत्या कर रहे हैं।
देश में इस समय जिस तरह से शिक्षण संस्थानों तक को ध्रुवीकरण व तुष्टीकरण के दायरे में लाया जा चुका हैए गांधी ऐसा भारत तो कभी नहीं चाहते थे। वे सर्वग्राह्य शिक्षा पद्धति के पक्षधर थे, किन्तु अब तो शिक्षण संस्थान भी धर्म के आधार पर बंटे से नजर आ रहे हैं। वहां पढ़ाई से ज्यादा धार्मिक नारों की गूंज सुनाई दे रही है। शिक्षण संस्थानों में धार्मिक नारों की गूंज से मुक्ति के बिना गांधी के सपनों वाले भारत की प्राप्ति संभव नहीं है। महात्मा गांधी हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। यंग इंडिया में 25 फरवरी 1920 को लिखे अपने लेख में उन्होंने लिखा कि यदि मुसलमानों की पूजा पद्धति व उनके तौर-तरीकों व रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगे या यदि हिन्दुओं की मूर्ति पूजा व गोभक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखाएंगे तो हम शांति से नहीं रह सकते। उनका मानना था कि एक दूसरे के धर्म की कुछ पद्धितयां नापसंद भले ही हों, किन्तु उसे सहन करने की आदत दोनों धर्मों को डालनी होगी। वे मानते थे कि हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच के सारे झगड़ों की जड़ में एक दूसरे पर विचार लादने की जिद ही मुख्य बात है। बापू के इन विचारों के सौ साल बात भी झगड़े जस के तस हैं और वैचारिक दूरियां और बढ़ सी गयी हैं। गांधी धर्म के नाम पर अराजकता व गुंडागर्दी के सख्त खिलाफ थे। यंग इंडिया में 14 सितंबर 1924 को उन्होंने लिखा था कि गुंडों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ। गांधी भले ही धर्म की रक्षा के नाम पर किसी तरह की अराजकता के पक्षधर नहीं थे किन्तु पूरे देश पिछले कुछ दिनों से जिस तरह धार्मिक नारों के साथ धर्म को खतरे में बताकर धर्म की रक्षा के लिए सड़क तक हिंसक व अराजक आंदोलन हुए हैं, वे सब गांधी के विचारों की हत्या ही कर रहे थे। गांधी देश में किभी तरह के साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ थे। उनका मानना था कि साम्प्रदायिक लोग हिंसा, आगजनी आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म इन कुकृत्यों की इजाजत नहीं देता। 6 अक्टूबर 1921 को प्रकाशित यंग इंडिया के एक लेख में उन्होंने लिखा कि हिंसा या आगजनी कोई धर्म-सम्मत काम नहीं हैं, बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग धर्म की आड़ में बेशर्मी से ऐसे काम करते हैं। पूरा देश इस समय हिन्दू-मुस्लिम विभाजन की आग में जल रहा है। आपस में विश्वास का कम होना सबसे बड़ा संकट है। महात्मा गांधी ने सौ साल पहले यानी 1920 में इस संकट को भांप कर रास्ता सुझाया था। 25 फरवरी 1920 को यंग इंडिया में प्रकाशित अपने आलेख में गांधी ने लिखा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए समान उद्देश्य व समान लक्ष्य के साथ समान सुख-दुख का भाव जरूरी है। एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करनाए एक दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना ही है। आज बापू भले ही नहीं हैंए पर उनके विचार हमारे साथ हैं। देश को संकट से बचाने के लिए बापू के विचारों को अंगीकार करना होगा, वरना देर तो हो ही चुकी है, अब बहुत देर होने से बचाना जरूरी है।
डॉ. संजीव मिश्र
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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