यह बात कांग्रेस के शिमला सम्मेलन के बाद जुलाई 2003 में हुई उस घटना से एकदम विपरीत थी, जिसमें उन्होंने राजनीतिक दलों के नेताओं को इस महान पार्टी का आह्वान किया कि वे केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के खिलाफ सयुंक्त रणनीति तैयार करें।
नतीजा यह कि सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने सोनिया गांधी के समग्र नेतृत्व में कांग्रेस को निरंतर समर्थन दिया और उन्होंने न केवल चमकती भारत को उजागर किया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि 2004 में संसदीय चुनावों में कांग्रेस एक सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। उस वक्त कांग्रेस शक्तिशाली और मजबूत पार्टी थी, जिसमें सोनिया को अर्जुन सिंह, मखान लाल फोतेदार और प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी नेताओं की सलाह लेने का अवसर मिला था। वर्तमान परिदृश्य में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो भाजपा नेतृत्व को सत्ता से बेदखल कर सके। उन्होंने कहा कि भले ही उसे गंभीर आर्थिक संकट या मौजूदा संकट का सामना करने के लिए मुश्किल का सामना करना पड़ रहा हो।
वर्ष 2003-2004 और वर्तमान के बीच का अंतर यह है कि कांग्रेस ही भाजपा को एकमात्र विपक्षी दल बना सकती है और भगवा ब्रिगेड की उभरती आकांक्षाओं का सामना करने के लिए उसके नेताओं और कार्यकतार्ओं में से एक पार्टी थी। 2004 के बाद जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर निकलने का फैसला किया तो कांग्रेस नेतृत्व में लालू प्रसाद यादव ने बताया कि चूंकि उन्होंने चुनाव के लिए जाना था इसलिए यूपीएस को संयुक्त रूप से तय करना चाहिए कि प्रधानमंत्री कौन हो?
इस मौके पर फोतेदर ने उनको स्पष्ट कर दिया कि संप्रग का नेतृत्व पद कांग्रेस के साथ ही चलता रहेगा और सोनिया के स्थान पर सरकार का मुखिया यही विशेष अधिकार है। लालू ने अपनी प्रगति में इसे ले लिया और फैसला पूरा करने के लिए अड़ गए।
लगातार बदलते माहौल में सोनिया का अपना नेतृत्व लड़खड़ड़ाता रहता है। यह जानने वाले किसी को पता नहीं कि लड़ाई किस ओर जाएगी। उनकर पुत्र राहुल गांधी के बीच एक टकराव है जिसे वह फिर से बहाल करना चाहती है और बेटी प्रियंका अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए बार-बार बोलियों का प्रचार करती है। हाल ही में, जब प्रियंका ने उत्तर प्रदेश सरकार पर हमला किया कि वह प्रवासी मजदूरों को बसों में चलने नहीं दे रही है, तो कई हिस्सों से यह बात उठी की विचित्र बात है कि वह पार्टी प्रवासियों की बात कर रही है, जो हमेशा उसके साथ सौतेला व्यवहार किया था। वहीं यह विचित्र बात है कि राहुल गांधी ने भी उनकी रक्षा करने का कोई प्रयास नहीं किया। कांग्रेस इतनी निर्मम पार्टी है कि 19 मई को पार्टी के ट्विटर हैंडल ने पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी की एक तस्वीर का प्रदर्शन किया जिसमें उनकी कई उपलब्धियां आंध्र प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में याद की गई थीं। रेड्डी अपने आप में निपुण नेता थे पर कहानी का अर्थ यह था कि कांग्रेस के नेताओं में इतिहास का कोई भाव नहीं रह गया है। 1969 में कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गई। मूलत: एस. निजालंगप्पा, के. कामराज, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल और अतुल्य घोष के नेतृत्व में पार्टी बंट गई। डा. जाकिर हुसैन के 3 मई को असमय निधन के बाद देश की अध्यक्षता के लिए रेड्डी के नाम को अंतिम रूप दिया जिस था। चूंकि, उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना स्थान दे चुके थे और उन्होंने उप-राष्ट्रपति वी. वी. गिरि की उम्मीदवारी घोषित कर अपने कांग्रेसियों को ‘अपनी अंतरात्मा’ के नामिती के लिए वोट देने की घोषणा की थी। इस के बाद की कहानी इतिहास बन चुकी है।कांग्रेस एक विभाजित घर थी, फिर भी एक छोटी सी सीमा से, विजय के लिए घर की तरह लगी, जिससे इंदिरा गांधी प्रभावशाली सिंडिकेट के चंगुल से अपने को मुक्त कर सके और इस प्रकार बहुत से निम्नलिखित लोगों के साथ एक जननेता के रूप में अपने को अग्रणी बना सकीं। 1971 की लोकसभा चुनाव और 1972 के विधानसभा चुनाव से निश्चित हो गया कि वे अपने देशवासियों के निश्चित नेता बन गई। रेड्डी को सन् 1977 में राष्ट्रपति चुना गया था। फखरुद्दीन अली अहमद का 11 फरवरी को निधन हो जाने के बाद जनता पार्टी से उनके समर्थन में सत्ता आ गई। संक्षेप में कहा जा सकता है कि समकालीन कांग्रेस अपने पूर्व नेताओं के बारे में शिक्षित नहीं है और इसलिए सोशल मीडिया पर बहुत सी सूचनाएं और टिप्पणियां बनाई जाती है। आम तौर पर, जहां तक विपक्ष की बैठक का सवाल है, उसके महत्व को कांग्रेस के मौजूदा स्वरूप में आरक्षण मिल रहा है, जिससे वह पार्टी का नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से कर सके। शरद पवार और ममता बनर्जी अधिक स्वीकृत हैं और व्यापक विश्वास यह है कि अगर कांग्रेस को अहम और केंद्रीय भूमिका निभानी है तो इसका नेतृत्व गैर-गांधी करना होगा। इस संदर्भ में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ एक वैध विकल्प हो सकते हैं,बनस्पत भूपिंदर सिंह हुड्डा या अशोक गहलोत के। हमारे बीच यह बुनियादी तौर पर बड़े बदलाव के लिए उपयुक्त सुविधाकारक तो हो ही सकता है।
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पंकज वोहरा
(लेखक द संडे गार्डियन के प्रबंध संपादक हैंं।)
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