अंबाला। 1977 और 1980 के बीच का काल भारतीय लोकतंत्र में एक बड़े रिसर्च का विषय रहा। आपातकाल के खत्म होने के बाद 1977 में इंदिरा गांधी को देश की जनता ने जिस नफरत के साथ सत्ता से बेदखल कर दिया था, आखिर उसी इंदिरा को जनता ने कैसे दोगुने उत्साह के साथ 1980 में सत्ता सौंप दी। दरअसल यह कोई एक दिन का परिवर्तन नहीं था। यह सत्ता संघर्ष के ऐसे यादगार दिन रहे जिसने भारतीय लोकतंत्र को सशक्त और दृढ़ बनाया। देश की जनता ने बता दिया था कि उसके पास कितनी बड़ी ताकत है।
- -दरअसल 1977 में आई जनता पार्टी की सरकार का प्रयोग पूरी तरह असफल हो गया। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी ही थी कि जगजीवन राम ने उन्हें प्रधानमंत्री मानने से इनकार कर दिया।
- -देश में पहली बार एक प्रधानमंत्री के साथ दो-दो उपप्रधानमंत्री बनाया गया।
- -जगजीवन राम और चरण सिंह दोनों को उपप्रधानमंत्री बनाकर सुलह का नया फॉर्मुला बनाया गया।
- -तमाम झंझावतों को झेलते हुए मोरारजी देसाई सिर्फ 28 महीने तक ही सरकार चला सके और जुलाई 1979 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
- -जनता पार्टी का विभाजन हो गया और कांग्रेस के समर्थन से टूटी हुई पार्टी के नेता चरण सिंह प्रधानमंत्री बने।
- -हालांकि यह गठबंधन भी ज्यादा दिन नहीं चल सका। कांग्रेस ने मात्र 24 दिन बाद ही समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह जनवरी 1980 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री रह गए।
कांग्रेस में भी बड़ा बदलाव
इस दौरान कांग्रेस में भी बड़ा घटनाक्रम हुआ। 1977 की हार के लिए कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं ने इंदिरा गांधी को जिम्मेदार ठहराया और उन्हें पार्टी में पीछे धकेलना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी ने अपने वफादार नेताओं को लेकर फिर से पार्टी का विभाजन कर दिया। 1980 में हुए आम चुनावों में इंदिरा गांधी ने 492 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए और 353 सीटें जीतकर सभी को हैरान कर दिया। वह फिर से प्रधानमंत्री बनीं। इन चुनावों से दो बातें साबित हुई-पहली तो यह कि जनता पार्टी की खिचड़ी जनता को नहीं भाई और दूसरी यह कि जनता ने इंदिरा गांधी की पार्टी को ही असली कांग्रेस के रूप में स्वीकार किया।
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