सुप्रीम कोर्ट परिसर में 7 जनवरी 2020 को वहां के वकीलों के एक समूह ने सामूहिक रूप से संविधान की प्रस्तावना पढ़कर देश की सर्वोच्च अदालत को संविधान की याद दिलाई थी। आखिर ऐसे हालात क्यों आ गये कि अधिवक्ताओं को न्याय के सबसे बड़े तीर्थ को यह याद दिलाने की आवश्यकता पड़ी? पिछले साल ही अक्तूबर माह में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने कहा था, कि न्यायपालिका में हुए अतिक्रमणों पर लगातार नजर रखने में बेंच और बार असफल रहे हैं। खेद है कि हमारे न्यायाधीश, न्याय प्रशासन में अपनी अंतरात्मा की आवाज को भूल गए हैं। हालात यह हैं कि देश में न्याय को अमीरों और शक्तिशाली लोगों ने बंधक बना लिया है। महात्मा गांधी कहा करते थे कि कानून की अदालत से बड़ी एक और अदालत, अंतरात्मा की है। आज हम अंतरात्मा को जगाने के लिए ढिंढोरा पीटने को मजबूर हैं। हमारा संविधान “वी द पीपुल फॉर द पीपल” की भावना पर आधारित है मगर पीपुल शब्द की जगह सत्ता समूहों ने ले ली है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट को भी संविधान की प्रस्तावना याद दिलानी पड़ रही है। लोकतंत्र का एक और मजबूत स्तंभ जो जर्जर हालत में सत्ता के पास गिरवी पड़ा है, वह मीडिया है। चौथा स्तंभ होने का दम भरने वाले मीडिया में चारण और चाटुकारिता के लिए होड़ लगी है। यही कारण है कि अब सत्ता से सवाल नहीं किये जाते हैं, जिससे देश की सार्वजनिक व्यवस्थायें ध्वस्त हो रही हैं।
चंद दिनों पहले कुछ लोगों ने हमसे कहा कि महामारी के इस दौर में सिर्फ सकारात्मक बात कीजिए, क्योंकि लोग बहुत दुखी और पीड़ित हैं। हमें यह सुनकर आश्चर्य हुआ। हमने पूछा क्या अव्यवस्थाओं के चलते रोज मरते लोगों पर सत्ता को आइना न दिखाया जाये? क्या जनता जनार्दन को सच जानने का हक नहीं है? सत्ता और उसके नेताओं की झूठी वाहवाही ही सकारात्मकता है? सही तस्वीर सामने लाना सकारात्मकता नहीं है? क्या आप श्मशान में अपनों की जलती चिताओं और अंतिम संस्कार के लिए लगी लंबी कतारों में जश्न मना सकते हैं? अगर नहीं तो हमें यह क्यों सिखा रहे हैं? उनके पास कोई जवाब नहीं था। यही तो देश की समस्या है कि जब सार्वजनिक सेवायें और व्यवस्थाएं विफल होती हैं, तो एक बड़ा समूह सवाल सरकार से करने के बजाय विपक्ष से करता है। देश के एक बड़े अखबार के मालिक संपादक ने कोविड-19 के कारण बिगड़े हालात के लिए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को जिम्मेदार ठहरा दिया। कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों ने भी यही किया। जिससे सवाल करना है, उसका चारण हो रहा है और जो सवाल कर रहा है, उसे कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। इस नीति के चलते ही देश के मीडिया और न्यायपालिका पर से लोगों का भरोसा उठने लगा है।
इस वक्त हालात ये हैं, कि देश के हजारों अस्पतालों में मरीजों के लिए न पर्याप्त बेड हैं, न दवायें। न आक्सीजन है, न एंबुलेंस। न डॉक्टर हैं, न नर्सिंग स्टाफ। महामारी से लड़ने वाली दवाओं की कालाबाजारी हो रही है। आक्सीजन सिलेंडरों की लूट मची है। अपनों की जान बचाने के लिए लोग सब लुटाने में जुटे हैं। सत्तारूढ़ दल के नेताओं की सिफारिश के बिना इलाज मिलना मुश्किल हो रहा है। कई राज्यों ने इलाज व्यवस्था को इतना कठिन बना दिया है कि लोग घर से लेकर अस्पताल की चौखट तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं। लाखों लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। जिम्मेदार नेता, मंत्री और अफसर इस आपदा को अपने लिए अवसर मानकर, उसे भुनाने में जुटे हैं। सार्वजनिक धन से हमारे नायक “ऐश” कर रहे हैं जबकि उन्हें बनाने वाली जनता “ऐशट्रे” में समा रही है। देश की स्वास्थ सेवाओं से लेकर शिक्षा व्यवस्था तक सब खस्ताहाल हैं। चंद पूंजीपतियों को छोड़कर बाकी सभी उद्योग-धंधे बरबादी की राह पर चल पड़े हैं। बेरोजगारी ऐतिहासिक रूप से चरम पर है। सामाजिक सुरक्षा की कोई गारंटी सरकार की ओर से नहीं मिल रही। कुछ अपवाद छोड़कर चुने गये प्रतिनिधि अपनी सरकारी निधि से भी मदद को तैयार नहीं हैं, जबकि यही प्रतिनिधि पीएम केयर फंड में धन देने के लिए उतावले थे।
हमारी सरकार उन संस्थाओं पर अथाह खर्च कर रही है, जिन पर नियंत्रित खर्च होना चाहिए, मगर उनपर खर्च करने को तैयार नहीं, जिनके जरिए उसे बनाने वाली जनता को सुरक्षित और योग्य बनाया जा सकता है। हमारा संविधान सभी को सार्वजनिक रूप से बराबरी का हक देता है, मगर अस्पताल में उसे इलाज मिलता है, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत है। गरीब, मजदूर और मध्यम वर्ग सड़क पर ही दम तोड़ने को विवश है। सड़क पर पैदल चलते मजदूर को सरकार सिर्फ मजदूर के तौर पर देखती है, नागरिक की तरह बराबरी नहीं देती। अदालतें, पुलिस और जांच एजेंसियां जिनके धन से चलते हैं, उन्हीं का शोषण भी सत्ता के इशारे पर करते हैं। इन संस्थाओं और एजेंसियों के अफसरान, जिसके धन से ऐश ओ आराम की जिंदगी जीते हैं, उन्हीं के हक में बोलने या संवेदना तक नहीं रखते हैं। पूरे देश में छोटे बड़े 23,600 अस्पताल सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। इनमें से कई में तो कोई संशाधन तक उपलब्ध नहीं है। यही हालात सार्वजनिक मेडिकल कालेजों की भी है। इन कालेजों से करीब 25 हजार डॉक्टर निकलते हैं। वहां भी सरकारों ने फीस निजी अस्पतालों की तरह बढ़ानी शुरू कर दी है। वहीं निजी मेडिकल कालेजों ने अपनी फीस में कमी की है मगर उनकी शैक्षिक गुणवत्ता मानक के अनुरूप नहीं है। निजी संस्थानों से करीब 30 हजार डॉक्टर हर साल निकलते हैं।
भारत में निजी चिकित्सा क्षेत्र का मुनाफा आठ लाख करोड़ रुपये का है। वहीं, सार्वजनिक चिकित्सा क्षेत्र के लिए विश्व स्वास्थ संगठन, विश्व बैंक, विश्व मुद्रा कोष और एशियन विकास बैंक से हजारों करोड़ रुपये की सालाना मदद मिलने के बाद भी वे बदहाल हैं। सीएसआर के तहत तमाम कंपनियां भी इस क्षेत्र को मदद देती हैं मगर सरकार स्वास्थ सेवाओं को “फॉर द पीपल” बनाने को तैयार नहीं है। सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र के हाथों में देने को ही अपना कर्तव्य मान बैठी है। सच तो यह है, कि जितने रुपये में सरकार ने सबसे बड़ी मूर्ति स्थापित की है, उतने रुपये में देश के हर मेडिकल संस्थान में आक्सीजन के प्लांट लग सकते थे। यही कारण है कि जब संकट आया तो देश की स्वास्थ सेवाएं ध्वस्त हो गईं। हजारों लोग आक्सीजन के अभाव में मौत के मुंह में चले गये। कोरोना काल में न सिर्फ स्वास्थ सेवाएं फेल हुई हैं बल्कि शिक्षा व्यवस्था भी ध्वस्त हो गई है। चूंकि साढ़े सात लाख करोड़ से अधिक का शिक्षा का धंधा है। विश्व में सबसे अधिक 50 करोड़ से अधिक बच्चे हमारे देश में प्राइमरी से पोस्टग्रेजुएट तक की शिक्षा ले रहे हैं। पिछले एक साल से उनसे फीस से लेकर तमाम खर्चे शिक्षण संस्थान वसूल रहे हैं मगर उन्हें न सही शिक्षा मिल पा रही है और न सेहत। यही हाल रहा तो विश्व गुरू बनकर खड़े होने का आधार यह भावी पीड़ी कहीं की नहीं रहेंगी।
मौजूदा वक्त में जरूरत यह है, कि सरकार गैर जरूरी परियोजनाओं को रोककर, उस धन से सभी को स्वास्थ और शिक्षा देने पर काम करे। इसके लिए कुछ हद तक, दिल्ली सरकार से भी सीखा जा सकता है। हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका और चीन से भी भारत को सीखना चाहिए, कि कैसे उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ को सार्वजनिक क्षेत्र में बेहतरीन बनाकर, अपने नागरिकों को यह सुविधा मुफ्त दी है। देश को बरबादी से बचाने का यह सबसे अच्छा मौका है। सबको जीवन, सबको शिक्षा और स्वास्थ। जब ऐसा होगा, तो रोजगार के अवसर भी स्वतः उपलब्ध हो जाएंगे। निश्चित रूप से तब हम विश्व गुरू भी बनेंगे। इसके लिए जरूरी है कि लोकतंत्र के सबसे अहम स्तंभ सुप्रीम कोर्ट और मीडिया सच देखें और दिखाएं। सत्ता से सवाल करें, जिससे सभी को बेहतर समान अवसर और जीवन मिल सके।
जय हिंद!
(लेखक प्रधान संपादक हैं।)