अगर सरकार के छह सालों के कार्यकाल के अर्थिक मुद्दों पर अध्ययन किया जाय तो, जो भी आर्थिक सूचकांक हैं उनके आधार पर 2016-17 के बाद से आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। सबसे महत्वपूर्ण और समेकित आर्थिक सूचकांक, सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी का ही उल्लेख किया जाय तो, इसकी दर वित्तीय वर्ष 2016 -17 से लगातार गिरती चली आ रही है। अब वित्तीय वर्ष, 2019 – 20 में जीडीपी गिर कर, 11 वर्षों के न्यूनतम दर पर आ गयी है। सरकार की तरफ से हो सकता है, एक स्पष्टीकरण देने की कोशिश की जाएगी कि इसका कारण कोरोना आपदा है। लेकिन यह स्पष्टीकरण हकीकत नहीं एक भ्रम फैलाने की कोशिश है। देश मे, कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को केरल में मिला था। उसके बाद 23 मार्च तक देश की सारी आर्थिक गतिविधियां सामान्य रूप से चल रही थी। यहां तक कि विदेशों से आने वालों पर भी कोई रोक नहीं थी। 12 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री कहते हैं कि कोई भी मेडिकल इमरजेंसी नहीं है। मध्यप्रदेश में सरकार बनाने और बिगाड़ने का खेल चल रहा था। अत: लॉकडाउन को इस गिरती जीडीपी के लिये दोषी इसलिए भी नही ठहराया जा सकता है, क्योंकि लॉक डाउन की अवधि मार्च में बस 7 दिन की ही रही है। अत: केवल 7 दिन की औद्योगिक और कारोबारी गतिविधियों के ठप हो जाने के कारण ही वित्तीय वर्ष, 2019-20 की जीडीपी 11 वर्षों में सबसे न्यूनतम पर नही पहुंच सकती है। यह गिरावट 2016 के नोटबंदी से शुरू हुयी है। जिसे सरकार जानती तो है पर मानती नहीं है। वर्ष, 2016 के बाद से जीडीपी के निरंतर अधोगामी होने के कारण क्या हैं, अब आइये, इस बिंदु की पड़ताल करते हैं। जीडीपी में सबसे अधिक योगदान, निजी व्यय और उपभोग का होता है। जब लोग खूब खर्च करेंगे और उपभोग करेंगे तो उससे देश की जीडीपी में स्वाभाविक रूप से बढ़ोत्तरी होगी। यह दोनो शीर्ष मिल कर जीडीपी में 87% का योगदान अर्थ व्यवस्था में करते हैं। लेकिन वर्ष 2016 के बाद देश मे मांग और बचत का क्या ट्रेंड रहा है, इस विषय पर भी विचार करना होगा। यह दोनों ही शीर्ष इस काल खंड में बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।
8 नवंबर 2016 को जब रात 8 बजे? 1000 और ? 500 के नोट चलन से बाहर कर दिये जाते हैं तो 31 मार्च 2017, यानी वित्तीय वर्ष 2016-17 के शेष होने तक सारा देश, नकदी जमा करने, बदलने और नये नोट लेने में लग जाता है। इसके साथ जो अनिश्चितता का वातावरण देश भर में बनता है, उससे बाजार, उद्योग और अन्य कारोबारी संस्थान खुले तो रहते हैं पर लोग कुछ तो नकदी की समस्या के कारण, तो कुछ अनिश्चितता के कारण, न तो खर्च करते हैं और न ही उपभोग की ओर रुचि बढ़ाते हैं। वह समय ठहरो और देखो का था। 2016 – 17 के वित्तीय वर्ष के अंत यानी 31 मार्च 2017 को जो आंकड़े जीडीपी के आये वे अधोगामी थे, जिसका कारण था मांग में अचानक कमी का आ जाना । 2015 – 16 में जीडीपी की दर 8% थी, जो गिर कर वित्तीय वर्ष 2019 – 20 में 4.2% हो गयी। 2019 – 20 में निर्यात के आंकड़ों में भी तेजी से गिरावट आयी है। इस वित्तीय वर्ष में, लोगो के निवेश और बचत में भी काफी कमी आयी है। जीडीपी में इस तेजी से आयी गिरावट का कारण यह है कि न तो बाजार में मांग है, और न ही लोगो के पास धन है कि, वे निवेश ही कर रहे हों। इससे बाजार में सुस्ती बनी हुई है।
अब सवाल उठता है कि, अचानक बाजार में मांग क्यों कम हो गयी ? लोगों ने अपने खर्चे क्यों कम कर दिये और अगर अपने खर्चे कम किये हैं तो, फिर बचे पैसे बैंकों या अन्य जगह निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? वे पैसे गए कहां ? अगर हम यह मान लें कि लोग मितव्ययी हो गए हैं तो फिर बचे पैसे कहीं न कहीं निवेश होने चाहिए थे। निवेश के तीन प्रमुख मार्ग हैं। एक तो बैंकों में जमा किये जांय, या म्युचुअल फंड में, या अधिक धन हो तो रीयल स्टेट में व्यय किया जाय या फिर कुछ हद तक सोने या चांदी की खरीद में धन व्यय हो। लेकिन बैंकों के बचत में भी कमी आयी है और रीयल स्टेट तो वैसे ही बैठ गया है। फिर इसका कारण क्या है ? इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोंगो की निजी आय कम हो गयी हो, जिससे न तो वे निवेश कर पा रहे हों, और न ही खर्च करने की हिम्मत जुटा पा रहे हों। अब अगर बैंकों के बचत अनुपात का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि, वित्तीय वर्ष 2019 – 20 में बैंकों में जो धनराशि जमा हुयी है वह पहले की तुलना में इस वर्ष में कम हुयी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि, लोगो के निजी आय में जो स्वाभाविक वृद्धि होनी चाहिए थी, वह कम हुयी है। इससे न तो लोग बाजार में कुछ खर्च करने की स्थिति में आये और न ही इतनी बचत कर पाए।
अगर निवेश के आंकड़े कम हो रहे हैं तो, इसका सीधा अर्थ है कि मांग में कमी आ रही है। लोग बाजार में कम व्यय कर रहे हैं। जब मांग कम होगी तो, न केवल व्यापारी को लाभ कम होगा, बल्कि उनका निवेश भी प्रभावित होगा। चूंकि हमारी अर्थव्यवस्था में, मांग की कमी पिछले तीन साल से बराबर देखी जा रही है । इस कारण निवेश में भी कमी आ गयी है। सरकार ने निवेश आकर्षित करने के लिये लगातार उपाय भी किये हैं लेकिन न तो निवेश में वृद्धि हुयी और न ही मांग में। वित्तीय वर्ष 2019 – 20 में सरकार ने निवेश में तेजी आये, इसलिए उक्त वित्तीय वर्ष के दूसरी तिमाही मे कॉरपोरेट टैक्स को भी कम किया। कॉरपोरेट को इसके पहले 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए का बूस्टर पैकेज भी दिया गया था। लेकिन अर्थव्यवस्था को जो गति पकड़नी थी, वह गति नहीं पकड़ पायी और न ही निवेश में ही वृद्धि हुयी। अगर निवेश की दर कम है तो, इसके असर से, औद्योगिक औ? सर्विस सेक्टर में वृद्धि की गति दर कम हो जाएगी।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)