पिछले कुछ दिनों से देश में मची ऊहापोह बमुश्किल थम सी गई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश हिस्से समाप्त करने सहित कश्मीर को लेकर सरकार के बड़े फैसले ने कश्मीर और शेष भारत के बीच रिश्तों की बेड़ी तोड़ दी है। इस बेड़ी को लेकर पिछले सत्तर साल से तमाम सवाल उठाए जाते रहे हैं। देश का बड़ा हिस्सा अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग कर रहा था, तो दूसरा हिस्सा इसे हटाने में असमर्थता के साथ चुनौतियां भी पेश कर रहा था।
अब जब मौजूदा सरकार ने बड़ा फैसला लेकर बेड़ी तोड़ी है, तो कश्मीरियों के साथ देश का दिल जोड़ने की चुनौती भी है। अगले कुछ बरस इस चुनौती को स्वीकार कर दिल जोड़ने की हर संभव पहल करने वाले हैं। सरकार के साथ पूरे देश को इस दिशा में पहल करनी होगी और इस पहल की सफलता ही नए भारत का पथ प्रशस्त करेगी। अनुच्छेद 370 को हटाए जाने की कार्रवाई इतिहास बदलने जैसी कार्रवाई लग रही है। देश की पूरी एक पीढ़ी ऐसी है, जिसने लगातार सिर्फ यह सुना है कि 370 हटते ही कश्मीर टूट जाएगा। कश्मीर से बाहर के जो लोग कश्मीर गए हैं और घूमते समय उन्होंने कश्मीर विधानसभा परिसर में तिरंगे के साथ कश्मीर का अलग झंडा देखा है, उन्हें निश्चित रूप से यह अजीब सा लगता होगा। यही कारण है कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर राम मनोहर लोहिया तक कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 का विरोध करते थे।
माना तो यह भी जाता है कि स्वयं डॉ. अंबेडकर इस अनुच्छेद के विरोधी थे। साथ ही यह कहना भी गलत ही है कि कश्मीर के भारत में विलय की शर्त के रूप में अनुच्छेद 370 की अनिवार्यता जैसी कोई शर्त थी। दरअसल कश्मीर के विलय प्रपत्रों पर कश्मीर के राजा हरि सिंह ने 27 अक्टूबर 1947 को हस्ताक्षर किए थे और अनुच्छेद 370 इसके लगभग दो वर्ष बाद 17 अक्टूबर 1949 को अस्तित्व में आया था। इसके बाद धारा 35ए तो संसद में बिना किसी बहस के 1954 में लागू की गई थी। इन स्थितियों में सरकार ने वक्त का पन्ना पलटने की कोशिश की है। उम्मीद है कि अब भविष्य में लिखे जाने वाले नए पन्ने न सिर्फ नया इतिहास लिखेंगे, बल्कि सफलता की नई कहानी भी लिखेंगे। वैसे सरकार ने यह फैसला आनन-फानन में किया हो ऐसा नहीं है। इसके लिए पूरी तैयारी की गई है।
पिछली सरकार में राज्य सभा में कम बहुमत के कारण तीन तलाक पर कानून पारित न करा पाने वाली सरकार ने इस बार सबसे पहले राज्यसभा में मजबूती हासिल की है। तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों के राज्यसभा सदस्यों के इस्तीफे से लेकर वैचारिक धरातल पर राजनीतिक दलों के साथ सामंजस्य बिठाने जैसी रणनीति भी बनाई गई। यही कारण है कि तीन तलाक के खिलाफ बने कानून का विरोध करने वाली बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां कश्मीर से जुड़े कानून का समर्थन करती नजर आई। सरकार ने जनता दल (यूनाइटेड) जैसे अपने सहयोगी दलों के विरोध की भी परवाह नहीं की। इनके अलावा सूचना तंत्र व सुरक्षा के मोर्चे पर भी सरकार पूरी तैयारी कर चुकी नजर आ रही है। यह कानून आने से पहले सूचना के अधिकार कानून में संशोधन सुनिश्चित किया गया और साथ ही आतंकवाद पर नकेल कसने के लिए विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण संशोधन विधेयक (यूएपीए) भी लाया गया। कश्मीर में पहले से ही सेना झोंक देने जैसी तैयारियां तो स्पष्ट दिख ही रही हैं। इस फैसले से जम्मू, कश्मीर घाटी से लेकर लद्दाख तक अलग-अलग प्रभाव व प्रवाह देखने को मिल रहा है। अब सरकार के लिए भी चुनौती है कि कश्मीर के विभाजन व पूर्ण राज्य का दर्जा छिनने के बाद वहां विकास दिखाई दे। सरकार को पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने के पीछे के कारण भी कश्मीरी अवाम को समझाने होंगे।
ऐसा न करने पर अवाम का भरोसा जीतना कठिन होगा। देश में जब आतंकवाद से सीधे प्रभावित न होने वाले राज्यों में कानून व्यवस्था का बुरा हाल है, ऐसे में अब कश्मीर की कानून-व्यवस्था भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। इन स्थितियों के साथ अगर कश्मीरियों के दिल से शेष भारत के दिल जुड़े तो इतिहास गर्व के साथ इस फैसले को याद रखेगा।
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