भारतवर्ष को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। इस कथन से प्रत्येक भारतवासी भली भांति परिचित है। परन्तु इन दिनों देश के किसानों पर क्या गुजर रही है जिनके खून पसीने व कड़ी मेहनत के दम पर विश्व में भारत की पहचान कृषि प्रधान देश के रूप में बानी हुई है? अपनी अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए इस घनी धुंध,कोहरे व शीत लहरी का सामना करते हुए लाखों की तादाद में अन्नदाता दिल्ली के चारों ओर डेरा जमाए हुए है तथा अब भी देश के तमाम राज्यों से प्रतिदिन हजारों की संख्या में किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहा है।
यह आंदोलन केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है बल्कि हरियाणा,पंजाब व चंडीगढ़ सहित अनेक इलाकों में सैकड़ों जगहों पर किसान मुख्य मार्गों पर लंगर लगाकर, लोगों के वाहनों को रुकने की विनती कर राहगीरों को अपनी मांगों से परिचित कराकर इसे किसान आंदोलन के बजाए जन आंदोलन का रूप दे रहे हैं। किसान नहीं तो भोजन नहीं ठङ्म ऋं१ेी१२-ठङ्म ऋङ्मङ्म िलिखी हुई तख़्तियां हाथों में लिए किसान व उनके शिक्षित युवा परिजन अनेक व्यस्त रेड लाइट पर नजर आ रहे हैं जो आम लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। परन्तु सरकार के पास उनकी मांगों को पूरा करने के बजाए किसानों के बारे में समय समय पर तरह तरह की परिभाषाएँ गढ़ने के सिवा और कुछ नहीं।
दूसरी ओर किसान अपने बारे में हर तरह की अपमान जनक परिभाषा सुनने के बावजूद पूरी विनम्रता व साहस का परिचय देते हुए अपनी मुख्य मांगों अर्थात कृषि अध्यादेश वापस लिए जाने की मांगों के प्रति अडिग नजर आ रहा है। इन असाधारण परिस्थितियों में दो बातें साफ तौर पर दिखाई दे रही हैं। एक तो यह कि नरेंद्र मोदी सरकार जो 2014 से ही अपने कठोर फैसलों के लिए अपनी पहचान बना चुकी है भले ही उनके परिणाम घातक या हानिकारक क्यों न रहे हों।
वह कृषक अध्यादेश, मतदान के बजाए ध्वनि मत से पारित कराने के अपने फैसले से पीछे हटकर अर्थात इन कानूनों को वापस लेकर सरकार की कमजोरी का सन्देश नहीं देना चाहती। अपने कदम पीछे हटाकर सरकार अन्य विवादित कानूनों के विरुद्ध किसी अन्य आंदोलन को न्यौता भी नहीं देना चाहती। सीधे शब्दों में अब यह अध्यादेश सरकार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। सरकार के इस रवैये से यह भी साफ नजर आता है कि उसे किसानों की शंकाओं का ठोस समाधान करने व उन्हें पूरी तरह उनकी फसल के यथोचित मूल्य व उनकी जमीनों की सुरक्षा की पूरी गारंटी देने से ज्यादा दिलचस्पी उन कॉपोर्रेट घरानों के हितों को साधने में है जो बड़े नियोजित तरीके से देश में सैकड़ों बड़े अनाज भण्डारण केंद्र बना चुके हैं।
यहाँ तक कि कई भण्डारण केंद्रों में वे अपनी निजी रेल लाइन तक पहुंचा चुके हैं।उधर दूसरी तरफ किसान भी सरकार व कॉपोर्रेट घरानोंकी इस मिली भगत को भांप चुके हैं तभी वे इन नए कृषि अध्यादेशों को वापस लेने से कम में किसी बात पर राजी नहीं हैं और संशोधन आदि का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में चिंता का विषय यह कि वह मोदी सरकार जिसने अपने शासन के छ: वर्षों तक निजीकरण को भरपूर बढ़ावा दिया है अनेक बंदरगाह, एयरपोर्ट, संचार, रेल, पेट्रोलियम, रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों को कारपोरेट्स के हवाले कर दिया है क्या सरकार वही स्थिति कृषि क्षेत्र की भी करना चाह रही है? आखिर ऐसी शंकाएं किसानों में इसीलिए तो पैदा हो रही हैं क्योंकि वह पिछले छ: वर्षों से देख रही है कि किस तरह मोदी सरकार उद्योगपतियों के हित साधने में लगी है। पिछले पूरे वर्ष के दौरान खास तौर पर कोरोना काल में जब भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के उद्योग धंधे व्यवसाय आदि सब ठप पड़े थे भारत के सैकड़ों उद्योग बंद हो गए। उस दौरान भी भारत के सरकार के कृपा पात्र दो उद्योग पतियों ने अपनी कमाई में कई गुना इजाफा किया।
मजे की बात तो यह है कि उन्हीं दिनों में जब बेरोजगार होकर करोड़ों मायूस लोग पैदल अपने अपने घरों की सैकड़ों-हजारों किलोमीटर की यात्रा तय कर रहे थे उस वक़्त भी चतुर बुद्धि उद्योगपति व राजनीति के शातिर खिलाड़ी आपदा में अवसर तलाश रहे थे। परन्तु उस दौर में भी यही अन्नदाता देश में जगह जगह लंगर लगा कर इन बेघर व बेसहारा श्रमिकों को भोजन व अन्य सुविधाएँ मुहैया कराकर भारत के कृषि प्रधानदेश होने के भरम की लाज रख रहा था।
आज वही अन्नदाता जो कि देश की आधी आबादी से भी अधिक है,स्वयं अपने अस्तित्व के लिए चिंतित नजर आ रहा है। तो दूसरी ओर हिंदुत्व के नाम पर देश के लोगों को गुमराह कर धर्म के नाम पर लोकप्रियता हासिल कर कर न केवल किसानों की अनदेखी की जा रही है व उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है बल्कि जिस बहुसंख्य समाज को गर्व की झूठी अनुभूति कराई जा रही है उन्हें भी बेरोजगारी व मंहगाई के मुंह में निरंतर धकेला जा रहा है। देश मात्र 70 वर्षों की आजादी के बाद यदि आत्म निर्भर बना है तो इसका पूरा श्रेय हरित क्रांति के इन्हीं अन्नदाता रुपी नायकों को ही जाता है न कि किसी एक दो कारपोरेट घरानों को।
आज भी देश जिन रीढ़ की हड्डियों पर टिका है वे हैं भारत के किसान, मजदूर, कामगार, मध्य व निम्न मध्य वर्ग के लोग। इनकी अवहेलना, अनदेखी वास्तव में देश की अनदेखी करना है। आश्चर्य की बात है कि स्वयं को लोक हितैषी बताने वाली सरकार संसद में किसानों व कामगारों के हितों में फैसले लेने के बजाए कारपोरेट जगत के हित में निर्णय ले रही है ? क्या इन्हीं कारपोरेट के हितों को साधने वाले कामों के लिए संसद को लोकतंत्र के मंदिर का नाम दिया गया है?
इन हालात में जबकि देश का कृषक परेशान हो यह कैसे माना जाए कि भारत कृषि प्रधान देश है? आज देश नव वर्ष की खुशियाँ तो जरूर मना रहा है परन्तु इस भयंकर शीत ऋतु में जिस तरह आए दिन धरने पर बैठा कोई न कोई किसान अपनी जानें गंवा रहा है कोई भी सच्चा भारतीय ऐसे दु:खद वातावरण में नव वर्ष के जश्न की कल्पना भी कैसे कर सकता है? देश के लिए जश्न का अवसर तो उस समय होगा जबकि देश का प्रत्येक व्यक्ति संविधान में निहित अपने अधिकारों को हासिल कर रहा हो और स्वयं को सुरक्षित महसूस करे।
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