8 दिसंबर, को किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में भारत बंद का आह्वान किया है। किसानों का यह आंदोलन, केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों के खिलाफ लम्बे समय से चल रहा है। पहले यह कानून एक अध्यादेश के रूप में जून 2020 में लाये गए, जिसे बाद में संसद से पारित करा कर क़ानून के रूप में लागू कर दिया। यह कानून, अनाज की मंडियों में निजी या कॉरपोरेट क्षेत्र के प्रवेश, जमाखोरी को अपराध मानने वाला कानून खत्म करने और कांट्रेक्ट फार्मिंग को वैधानिक स्वरूप देने के बारे में हैं। इसका सबसे अधिक विरोध पंजाब और हरियाणा में जहां उन्नत कृषि व्यवस्था और सरकारी मंडियों का एक सुनियोजित संजाल है, वहां से शुरू हुआ और फिर धीरे धीरे यह आंदोलन पूरे देश मे फैल गया। पंजाब में किसानों के धरने के बाद किसानों ने दिल्ली चलो का आह्वान किया और वे सरकार की तमाम बंदिशों के बाद भी दिल्ली पहुंचे पर जब उन्हें दिल्ली में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो, उन्होंने सिंघु सीमा पर धरना दे दिया। यह धरना 11 दिनों से चल रहा है और उसी के क्रम में 8 दिसंबर को भारत बंद का आयोजन किसान संघर्ष समिति की तरफ से किया गया है। शुरुआत में यह आंदोलन, पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित रहा, पर अब इसका प्रभाव, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक पहुंच गया है। साथ ही वे राज्य जो दिल्ली से दूर हैं, उनके यहां भी किसान अपनी अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलित हैं। 8 दिसंबर का बंद कितना व्यापक रहता है और इसका क्या असर सरकार पर पड़ता है इसका पता तो 9 दिसम्बर के बाद ही लग पायेगा।
कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसानों के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी है और इस वार्ता का अगला क्रम 9 दिसंबर को भी प्रस्तावित है। 3 दिसंबर को, केंद्र सरकार के साथ हुई बातचीत को लेकर 4 दिसंबर को एक बार फिर किसान संगठनों ने आपस में चर्चा की और संयुक्त किसान मोर्च की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया गया कि किसान, तीनों कानून को रद्द करे बिना, नहीं मानेंगे । हालांकि, सरकार इन कानूनों में, कुछ संशोधन करने के लिए तैयार है लेकिन किसानों ने सरकार से साफ कह दिया है कि सरकार तीनों कानून वापस ले। इन मांगों में प्रस्तावित बिजली अधिनियम 2020 को वापस लेने की भी मांग जुड़ गयी है।
तीनो कृषि कानूनो को लेकर यह आशंका उठ रही है कि यह तीनों कानून खेती किसानी की संस्कृति और परम्परागत खेती को नष्ट कर देंगे और लंबे समय से हुए भूमि सुधार के अनेक कदम प्रतिगामी हो जाएंगे। इस आंशका का आधार आखिर क्या है ? कैसे किसान विरोधी यह तीन कानून देश की कृषि व्यवस्था की कमर तोड़कर किसानों को, कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के गुलाम बनाने के लिए और आम जनता के लिये खाने पीने की चीजों को महंगा कर कॉरपोरेट की जेबें भरने के लिए लाए गए हैं ?
संक्षेप में इसे देखें,
● कॉरपोरेट की पहली समस्या थी, कि, कृषि संविधान की समवर्ती सूची में है। अर्थात, इस विषय पर केंद्र और राज्य दोनों ही इससे संबंधित कानून बना सकते हैं। ऐसे में अलग अलग राज्यों में उनकी कृषि व्यवस्था के अनुसार, अलग अलग, कानून उन राज्यों ने बनाये हैं। उनके यहां फसल की खरीद, उन्ही नियम और कायदों से की जाती है। कॉरपोरेट को अलग अलग राज्यो में कृषि उत्पाद खरीदने के लिये अलग अलग नियम कायदों से रूबरू होना पड़ता है। अब कॉरपोरेट की इस समस्या का यही हल था कि, कोई एक कानून ऐसा बने जो सभी राज्यो पर समान रूप से लागू हो।
कॉरपोरेट की इस समस्या के समाधान के लिये राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण करते हुए, केंद्र सरकार ने, पूरे देश के लिए एक अलग एक्ट बना दिया। इस एक्ट में किसी को कहीं भी फसल बेचने का अधिकार दे दिया गया।
● कॉरपोरेट की दूसरी समस्या थी कि, यदि कॉरपोरेट पूरे देश के किसानों से खाद्यान्न खरीदेंगे और उसका भंडारण करेंगे, तो इसमे सबसे बड़ी बाधा, विभिन्न राज्यों द्वारा बनाये गए जमाखोरी रोकने के लिये बने कानून हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा, आवश्यक वस्तु अधिनियम, ईसी एक्ट था। यह कानून, भंडारण की सीमा तय करने और जमाखोरी को रोकने के लिये तरह तरह की बंदिशें लगाता था। इन कानूनो के कारण, कॉरपोरेट कोई भी खाद्यान्न अधिक मात्रा में लंबे समय तक अपने गोदामो में स्टोर नहीं कर सकता था। कॉरपोरेट का इरादा ही है फसल या खाद्यान्न किसानों से मनमाने दाम पर खरीद कर उसे स्टोर करना और जब बाजार में बढ़े भाव हों तो उसे बेचने के लिये बाजार में निकालना। इस प्रकार कॉरपोरेट बाजार पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहता है। पर ईसी एक्ट कॉरपोरेट के इस इरादे पर अंकुश की तरह था।
कॉरपोरेट की इस समस्या का समाधान, केंद्र सरकार नेआवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म कर और जमाखोरी को वैध बना कर, कर दिया। अब खाद्यान्न की जमाखोरी कितनी भी मात्रा तक और कितने भी समय तक करना अपराध नहीं रह गया।
● कॉरपोरेट के सामने तीसरी बड़ी समस्या थी कि, किसान तो फसल अपनी ज़रूरत मर्जी से उगाते हैं, और इस पर सरकार या किसी का कोई दबाव नहीं है।
इस समस्या के समाधान के लिये केंद्र सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का कानून बना दिया जिससे किसान को अब कॉन्ट्रेक्ट में बांध कर कॉरपोरेट ही निर्देशित करेगा की किस प्रकार की फसल किसान को उगानी है।
अक्सर यह बात कही जाती है कि, पंजाब, हरियाणा का किसान खुशहाल है। वे मेहनती भी होते हैं। वे खेती को बोझ समझ कर नही, जीवन और संस्कृति का अंग समझ कर करते हैं। खेती का तरीका भी उनका आधुनिक है। अधिकांश राज्यो में खेती का वह स्वरूप नही है जो पंजाब, हरियाणा या पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिलों में है। अब सवाल उठता है, आखिर पंजाब के किसान खुशहाल क्यों है ? इसका कारण है खेती के लिये सिंचाई, अधुनातन व्यवस्था, और सरकार द्वारा मंडियों का जाल बिछा कर कृषि उत्पाद की खरीद।
पंजाब और हरियाणा में सरकारी खरीद बहुत होती है। वहां उपज भी अच्छी होती है और खेती को वे केवल अपने घर परिवार के खाने भर के लिए अनाज उपजाने तक ही केन्दित नहीं रखते हैं, बल्कि उसे बेचते हैं, निर्यात भी करते हैं और इससे धन भी कमाते हैं। सरकारी मंडी, एपीएमसी और एमएसपी पर शांता कुमार की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, केवल 6% लोगों को एमएसपी की सुविधा मिलती है। यह कमेटी, सरकारी गोदामो की अकुशलता को तो उजागर करती है पर किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य कैसे मिले, इस पर कुछ नहीं कहती है। बिहार राज्य में 2006 से ही सरकारी खरीद बंद है। अब बिहार और पंजाब के किसानों की आर्थिक हालत और खुशहाली से आप एमएसपी और सरकारी मंडी के महत्व का अनुमान लगा सकते हैं। जहां जहां मंडी और सरकारी खरीद की सुविधा उत्तम है, वहां के किसान खुशहाल है। वे इस बात से निश्चिंत हैं कि, उन्हें अपनी फसल का कम से कम न्यूनतम मूल्य तो मिल रहा है। और यह खरीद सरकार कर रही है। ध्यान दीजिए, अगर यह न्यूनतम मूल्य है जो सरकार तय करती है और इससे अधिक मूल्य देकर भी कोई संस्था फसल खरीदना चाहे तो खरीद सकती है।
लेकिन जहां के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं पा रहे हैं, वे अपनी फसल बाजार और बिचौलियों द्वारा तय किये दर से बेच रहे है। क्या सरकार को उन्हें संरक्षण नहीं देना चाहिए ? 94% किसान जो शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार एमएसपी की सुविधा से वंचित है, उनके लिये सरकार को क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि जो खुशहाली पंजाब और हरियाणा के किसानों में इसी एमएसपी और सरकारी मंडियों के द्वारा आ रही है, वैसी ही खुशहाली देश के अन्य इलाक़ो के किसानों को भी मिले ? उनका भी तो जीवन खुशहाल हो। यह बात उन 94% किसानों को बताई जानी चाहिए और उन्हें सरकार के मंडी तंत्र के विस्तार के लिये सरकार पर दबाव डालना चाहिए।
पर सरकार, एफसीआई ( फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ) जो अनाज का भंडारण करता है को भी निजी क्षेत्रों में देने जा रही है। एफसीआई के सारे गोदाम, मय ज़मीनों के कॉरपोरेट के हांथो चले जायेंगे। सरकार इसे सुधार कहती है, पर असल मे यह सुधार नहीं, देश के कृषि व्यवस्था और एक प्रकार से पूरी ग्रामीण संस्कृति की बर्बादी है। यह हाराकिरी है। सरकार, अपनी सरकारी मंडियों के समानांतर निजी और कॉरपोरेट की मंडियां खड़ी करने जा रही है। अडानी ग्रुप ने अपने गोदाम, मध्यप्रदेश और पंजाब में बना भी लिये है। निश्चित ही सरकार के भंडारण गोदामो की अपेक्षा वे बड़े, आधुनिक और बेहतर गोदाम होंगे। अब तो जमाखोरी भी अपराध नहीं रही और इसकी कोई सीमा ही नहीं रखी गयी। एक प्रकार से जमाखोरी को, आवश्यक वस्तु अधिनियम ईसी एक्ट को खत्म कर के सरकार ने कॉरपोरेट को जमाखोरी करने तथा मांग पूर्ति के अनुसार, बाजार भाव बढ़ाने और घटाने का पूरा अधिकार दे दिया है। अब किसान और उपभोक्ता दोनो ही इन जमाखोरों और कॉरपोरेट के रहमो करम पर छोड़ दिये गए हैं।
सरकार ने एक और लाभ कॉरपोरेट को दिया है। वह है निजी मंडियों को करो से राहत। एक तरफ सरकार अपनी मंडियों पर तो टैक्स वसूल रही है पर कॉरपोरेट के मंडियों को सरकार ने टैक्स फ़्री कर दिया है। सरकार मंडियों पर जो टैक्स वसूलती है, उससे गांव की सड़कें तथा अन्य विकास कार्य होते है। जब मंडी सिस्टम कमज़ोर हो जाएगा तो सरकार की कर वसूली भी कम हो जाएगी। इसका सीधा असर, ग्राम और आसपास के स्थानीय विकास पर पड़ेगा। निजी क्षेत्र तो फसल खरीदेगा, जमाखोरी करेगा, और उसका तो समग्र विकास से कोई मतलब ही नहीं रहेगा। इससे ग्रामीण क्षेत्र की खुशहाली पर असर पड़ेगा और एक विपन्नता की ओर ग्रामीण समाज बढ़ने लगेगा। इसका एक परिणाम, खेती से किसान का मोहभंग होने लगेगा और जब खेती लाभ तथा खुशहाली नहीं दे पाएगी तो, खेती में कॉरपोरेट घुसेंगे और ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर व्यापक पलायन होगा। कॉरपोरेट यही चाहते हैं और सरकार यही उन्हें सुलभ करा रही है।
यह वही शातिर चाल है जब, भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) को 4G का लाइसेंस तक नहीं दिया गया, उसे निकम्मा, अकुशल और भ्रष्ट बन जाने दिया गया, ताकि मुकेश अम्बानी का जिओ अपना एकाधिकार बीएसएनएल के संसाधनों में घुसपैठ कर बना सके। और जिओ ने ऐसा एकाधिकार बनाया भी। इसी तरह, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ( एचएएल ) को राफेल सौदे से सबसे उपयुक्त होते हुए भी, केवल दिवालिया अनिल अंबानी को ठेका दिलाने के लिये बाहर कर दिया गया। सबसे दुःखद पक्ष यह है कि सरकार के इस षडयंत्र में न्यायपालिका भी शामिल रही है। रंजन गोगोई को यूं ही नही राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की गयी है। उच्चतम स्तर पर, क्विड प्रो क्वॉ यानी परस्पर हितैषी सौदेबाजी का यह एक निकृष्ट उदाहरण है। इसी प्रकार, धीरे धीरे कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और अन्य प्रशासनिक विफलता के बहाने से सरकारी मंडियां भी कम होती जाएगी। सरकार बजट का रोना भी रोयेगी। एमएसपी कागज़ पर रहेगी। पर जब सरकार के गोदाम और मंडी सिस्टम लुंज पुंज हो जायेंगे तब सरकार खरीद कैसे करेगी, अनाज रखेगी कहाँ और एमएसपी देगी कैसे ? यह भी होगा कि, कॉरपोरेट जिओ के फ्री ऑफर की तरह फसल के दाम भी कुछ समय के लिये अधिक दे दे, पर अंत मे यह सब शिकार के हांके की तरह होगा औऱ कॉरपोरेट का दैत्य पसरता जाएगा।
इसमे दो राय नही है कि सरकारी तंत्र में कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार है। पर इसका निदान तो कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार को दूर करना है न कि उस तंत्र को ही अपने चहेते पूंजीपति मित्रो को सौंप देना है। सरकार यही कर रही है। अगर यह सवाल पूछ लिया जाय कि, सरकार ने एफसीआई के भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये कितनी जांचे कराई और विगत 10 सालों में कितने अफसरों के खिलाफ कार्यवाही हुयी तो उसका उत्तर जब मिलेगा तो, इससे स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
सरकार एपीएमसी और एमएसपी के सिस्टम को जिसने पंजाब के समाज और खेती में खुशहाली लाई है, को देश के अन्य राज्यो में भी तो ले आये ? यह तो अजीब मूर्खता है कि वहां के किसान खुशहाल हैं तो उनकी भी खुशहाली छीन कर कॉरपोरेट को उनकी खुशी का हिस्सा दे दिया जाय। आज जो दिल्ली सीमा पर यह सबल आंदोलन हो रहा है, उसका कारण, पंजाब, हरियाणा, और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की खुशहाली और संपन्नता ही है। ऐसी ही खुशहाली देश के अन्य राज्यो के किसानों के जीवन मे भी तो आये। पंजाब के किसान खुशहाल है और और राज्यों के किसानों को भी तो खुशहाल जीवन जीने का हक़ है। अगर सरकार यह सोचती है कि निजी क्षेत्र औऱ कॉरपोरेट किसान का जीवन खुशहाल बनाएंगे तो यह उसका भ्रम है।
इन तीन कृषि कानूनों के संदर्भ में निम्न सवाल सरकार से पूछे जाने चाहिए,
● अगर सरकार की एमएसपी को लेकर नीयत साफ है तो वो मंडियों के बाहर होने वाली ख़रीद पर किसानों को एमएसपी की गारंटी दिलवाने से क्यों इंकार कर रही है?
● एमएसपी से कम ख़रीद पर प्रतिबंध लगाकर, किसान को कम रेट देने वाली प्राइवेट एजेंसी पर क़ानूनी कार्रवाई की मांग को सरकार खारिज क्यों कर रही है?
● कोरोना काल के बीच इन तीन क़ानूनों को लागू करने की मांग कहां से आई? ये मांग किसने की? किसानों ने या औद्योगिक घरानों ने?
● देश-प्रदेश का किसान मांग कर रहा था कि सरकार अपने वादे के मुताबिक स्वामीनाथन आयोग के सी-2 फार्मूले के तहत एमएसपी दे, लेकिन सरकार ठीक उसके उल्ट बिना एमएसपी प्रावधान के क़ानून लाई है। आख़िर इसके लिए किसने मांग की थी?
● प्राइवेट एजेंसियों को अब किसने रोका है किसान को फसल के ऊंचे रेट देने से? फिलहाल प्राइवेट एजेंसीज मंडियों में एमएसपी से नीचे पिट रही धान, कपास, मक्का, बाजरा और दूसरी फसलों को एमएसपी या एमएसपी से ज़्यादा रेट क्यों नहीं दे रहीं ?
● उस स्टेट का नाम बताइए जहां पर हरियाणा-पंजाब का किसान अपनी धान, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, सरसों, बाजरा बेचने जाएगा, जहां उसे हरियाणा-पंजाब से भी ज्यादा रेट मिल जाएगा?
● सरकार नए क़ानूनों के ज़रिए बिचौलियों को हटाने का दावा कर रही है, लेकिन किसान की फसल ख़रीद करने या उससे कॉन्ट्रेक्ट करने वाली प्राइवेट एजेंसी, अडानी या अंबानी को सरकार किस श्रेणी में रखती है- उत्पादक, उपभोक्ता या बिचौलिया?
● जो व्यवस्था अब पूरे देश में लागू हो रही है, लगभग ऐसी व्यवस्था तो बिहार में 2006 से लागू है। तो बिहार के किसान इतना क्यों पिछड़ गए?
● बिहार या दूसरे राज्यों से हरियाणा में धान जैसा घोटाला करने के लिए सस्ते चावल मंगवाए जाते हैं। तो सरकार या कोई प्राइवेट एजेंसी हमारे किसानों को दूसरे राज्यों के मुकाबले मंहगा रेट कैसे देगी?
● टैक्स के रूप में अगर मंडी की आय बंद हो जाएगी तो मंडियां कितने दिन तक चल पाएंगी?
● क्या रेलवे, टेलीकॉम, बैंक, एयरलाइन, रोडवेज, बिजली महकमे की तरह घाटे में बोलकर मंडियों को भी निजी हाथों में नहीं सौंपा जाएगा?
● अगर ओपन मार्केट किसानों के लिए फायदेमंद है तो फिर “मेरी फसल मेरा ब्योरा” के ज़रिए क्लोज मार्केट करके दूसरे राज्यों की फसलों के लिए प्रदेश को पूरी तरह बंद करने का ड्रामा क्यों किया?
● अगर हरियाणा सरकार ने प्रदेश में 3 नए कानून लागू कर दिए हैं तो फिर मुख्यमंत्री खट्टर किस आधार पर कह रहे हैं कि वह दूसरे राज्यों से हरियाणा में मक्का और बाजरा नहीं आने देंगे?
● अगर सरकार सरकारी ख़रीद को बनाए रखने का दावा कर रही है तो उसने इस साल सरकारी एजेंसी एफसीआई की ख़रीद का बजट क्यों कम दिया? वो ये आश्वासन क्यों नहीं दे रही कि भविष्य में ये बजट और कम नहीं किया जाएगा?
● क्या राशन डिपो के माध्यम से जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम, ख़रीद प्रक्रिया के निजीकरण के बाद अडानी-अंबानी के स्टोर के माध्यम से प्राइवेट डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम बनने जा रहा है।
एक बात हम सबको साफ समझ लेना चाहिए कि, यह तीनों कृषिकानून, सरकारी राशन की दुकान, पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, खाद्य सुरक्षा कानून, गरीबों के लिये चलाई जाने वाली सस्ते अनाज की तमाम योजनाएं धीरे धीरे खत्म कर देंगी। किसान और खेतिहर मजदूर दोनो ही बर्बाद हो जाएंगे।
अब एक नया तर्क गढ़ा जा रहा है कि इन किसानों को भड़काया जा रहा है। यह भड़काने का काम कांग्रेस कर रही है। भाजपा को लम्बे समय तक विपक्षी दल रहने का अनुभव प्राप्त है और जब वह विपक्ष में थी तो उसने भी बढ़ती कीमतों, आतंकवाद, भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर, आंदोलन किये हैं तो क्या यह मान लिया जाय कि जब वह विपक्ष में रहती है तो वह भी जनता को सरकार के खिलाफ भड़काती रहती थी। अगर यह तर्क सही है तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि जो भी दल जब भी विपक्ष में रहेगा, वह जनता को सरकार के विरोध हेतु भड़काता रहेगा ? फिर तो हर वह आंदोलन जो सरकार की नीतियों के खिलाफ कभी भी हुआ है या आगे होगा, वह नेताओ द्वारा भड़काया ही गया होगा ? चाहे वह 1975 का जेपी आंदोलन रहा हो, या 2013 का अन्ना आंदोलन।
इस आंदोलन के पीछे अनेक किसान संगठनों की एकजुटता और भूमिका है। विपक्ष के नेताओ को और किसान कानूनो के जानकारों को इस समय आगे आ कर इन किसान कानूनों के बारे में जनता और किसानों को जाग्रत करना चाहिए। जनता को सरकार की नीतियों के बारे में बताना, उसकी कमियों और खूबियों पर चर्चा करना, क्या परिणाम और क्या दुष्परिणाम होंगे इस पर लोगो को संतुष्ट और आश्वस्त करना, भड़काना नही होता है बल्कि यह एक प्रकार का जनजागरण है। सरकार भी अपने द्वारा बनाये कानून के बारे में लोगो को समझा सकती है और जनता को यह आश्वस्त कर सकती है कि, बनाये गए तीनो कृषिकानून, किसानों के व्यापक हित मे हैं और इससे उनकी आय बढ़ेगी।
देश का सरकार सनर्थक तबका, जिंसमे पढ़े लिखे मिडिल क्लास के लोग भी हैं आज जिस मोहनिद्रा में लीन है, वह न केवल अपने लिये बल्कि आने वाली अपनी पीढ़ियों के लिये भी अनायास ही एक ऐसी राह छोड़ जाएंगे, जो प्रतिगामी है और लंबे दौर में उनका यह दृष्टिकोण, देश, समाज और आने वाली पीढ़ी के लिये घातक होगा। किसानों ने, एक मौलिक सवाल सरकार से पूछा है कि,
● यह तीन कृषिकानून किन किसानों के हित के लिये लाये गए है ?
● किस किसान संगठन ने इन्हें लाने के लिये सरकार से मांग की थी ?
● इनसे किसानों का हित कैसे होगा ?
आज तक खुद को जागरूक, अधुनातन और नयी रोशनी में जीने वाले द ग्रेट मिडिल क्लास का कुछ तबका ऐसे ही सवाल, नोटबन्दी, जीएसटी, लॉक डाउन, घटती जीडीपी, आरबीआई से लिये गए कर्ज, बैंकों के बढ़ते एनपीए आदि आदि आर्थिक मुद्दों पर सरकार से पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका। और तो और 20 सैनिकों की दुःखद शहादत के बाद भी प्रधानमंत्री के चीनी घुसपैठ के जुड़े इस निर्लज्ज बयान कि, न तो कोई घुसा था, और न कोई घुसा है, पर भी कुछ को कोई कुलबुलाहट नहीं हुयी वे अफीम की पिनक में ही रहे। और जो सवाल पूछ रहे हैं, वे या तो देशद्रोही हैं, या आईएसआई एजेंट, अलगाववादी, अब तो खालिस्तानी भी हो गए, वामपंथी, तो वे घोषित ही है। यदि हल्का सा भी हैंगओवर उतरे तो मिडिल क्लास को आत्ममंथन करना चाहिए कि वह इस समय खामोश क्यों है।
मुझे लगता है, आज थोड़ा बहुत भी द ग्रेट मिडिल क्लास के पास खोने के लिये, जो शेष है, वही उसके पांवों में बेडियां बनकर जकड़े हुए है। जब खोने के लिये वह भी शेष नहीं रहेगा तब वह भी जगेंगे और इस पंक से कीचड़ झाड़ते हुए उठेंगे, पर उठेंगे ज़रूर। पर तब तक बहुत कुछ खो चुका होगा। बहुत पीछे हम जा चुके होंगे। इस मिडिल क्लास में, फ़ैज़ के शब्दों में कहूँ तो, ‘मैं भी हूँ औऱ तू भी है’ जो इस द मिडिल क्लास की विशालकाय अट्टालिका में एक साथ रहते हुए भी अलग अलग कंपार्टमेंट जैसे अपार्टमेंट में खुद को महफूज समझने के भ्रम में मुब्तिला हैं। जनता, सरकार विरोधी हो सकती है, उसे सरकार विरोधी होना भी चाहिए, क्योंकि उसने सरकार को, उसके वादों के आधार पर ही चुना है और जब सरकार वह वादे पूरा न करने लगे तो जनता का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि, वह सरकार के संवैधानिक दायित्व को याद दिलाये।सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं है बल्कि इतिहास में ऐसे क्षण भी आये हैं, जब सरकार ने खुद ही अपने लोगों के स्वार्थ में वशीभूत हो कर संविधान के विरुद्ध आचरण किया है।
तब जनता का यह दायित्व और कर्त्तव्य है कि वह सरकार को संवैधानिक पटरी पर लाने के लिये सरकार का विरोध, सवैधानिक तरह से करे। सविधान के समस्त मौलिक अधिकार, इसी लिये जनता को शक्ति सम्पन्न भी करते हैं।
लेकिन सरकार जनविरोधी नहीं हो सकती है। क्योंकि वह जनता द्वारा ही अस्तित्व में लायी गयी है। संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करता है, व्यक्तिगत अस्मिता की बात है, हर व्यक्ति को अपनी बात कहने और सरकार से निदान पाने का अधिकार है।
पंजाब ही नहीं भारत मे किसान आंदोलनों का एक समृद्ध इतिहास रहा है। पंजाब के किसान प्रतिरोध का इतिहास तो, 1906 – 07 से शुरू होता है, जब शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह ने पगड़ी सम्भाल जट्टा नाम से एक किसान आंदोलन की शुरूआत की थी। आज के इस आंदोलन के समर्थन में, कनाडा, यूरोप, अमेरिका, इंग्लैंड, हर जगह लोग प्रदर्शन औऱ एकजुटता प्रदर्शित कर रहे है। हालांकि भारत सरकार ने कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो के बयान पर अपने आंतरिक मामलों में दखल बताया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया है। 9 दिसंबर की सरकार और किसानों की बातचीत में यह आशा की जानी चाहिए कि किसानों की मांग सरकार स्वीकार कर लेगी और अगर सरकार के पास कोई अन्य कृषि सुधार का एजेंडा है तो, सरकार उसे भी किसान संगठनों से बातचीत कर के आगे बढ़ेगी।
( विजय शंकर सिंह )