लखनऊ जंक्शन पर ट्रेन के साथ फोटो खिंचवाती ये बालाएं, भले ही एयर होस्टेस की तरह लग रही हों, पर वास्तव में ये ट्रेन होस्टेस हैं। भारतीय रेल में इनकी यात्रा पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव की कहानी कह रही है। दरअसल ये देश की पहली कॉरपोरेट ट्रेन तेजस में यात्रियों की चिंता कुछ उसी तरह करेंगी, जैसे हवाई जहाज में एयर होस्टेस करती हैं। ट्रेन में हवाई जहाज की यह फील न सिर्फ रेलकर्मियों को, बल्कि देश के बड़े हिस्से को सरकारी क्षेत्र में व्यापक निजीकरण की फील दे रही है। हर ट्रेन होस्टेस बदलाव की कहानी सुना रही है, देश उसे कितना सुन पाता है, यह तो वक्त ही बताएगा।
पिछले कुछ महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में आए बदलाव अलग ही कहानी कह रहे हैं। देश की राजनीति से लेकर अर्थनीति तक का विश्लेषण करने वाले अर्थव्यवस्था के साथ दो खेमों में बंट से गए हैं। इस बीच लोगों को सरकारी क्षेत्र के व्यापक निजीकरण का डर सता रहा है। इस डर के बीच जब लखनऊ से दिल्ली के बीच तेजस दौड़ी तो उसमें यात्रियों को जलपान व भोजन परोसती इन ट्रेन होस्टेस ने यात्रियों को एक वैशिष्ट्य का भान तो कराया, किंतु उसी बीच लाखों रेलकर्मियों के बीच डर का वातावरण भी बना दिया। यह वातावरण बनना स्वाभाविक भी है।
आजादी के बाद देश को समझने वाली पीढ़ी ने रेलवे, रक्षा आदि क्षेत्रों को पूरी तरह सरकारी ही समझा है। इसी तरह पेट्रोलियम व संचार क्षेत्रों में निजी भागीदारी के बावजूद आम जनमानस इनमें सरकारी प्रभुत्व को स्वीकार करता चला आ रहा है। ऐसे में इन क्षेत्रों के निजीकरण की चर्चा भी लोगों को परेशान सा कर देती है। इसके बावजूद पिछले कुछ महीनों से पूरे देश में रेलवे व रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की दस्तक के साथ पेट्रोलियम व संचार क्षेत्र में निजीकरण को और बढ़ावा देने की चर्चाएं हो रही हैं। तेजस के संचालन ने इन चर्चाओं को और बढ़ाया है। तेजस के संचालन में मात्र ड्राइवर व गार्ड ही रेलवे के होंगे, शेष सुविधाओं की जिम्मेदारी आईआरसीटीसी ने संभाली है। दरअसल रेलवे इस ट्रेन के सहारे एक तरह से प्रयोग ही कर रहा है। यह प्रयोग यदि सफल हुआ तो भविष्य में ट्रेन संचालन पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले किया जा सकता है। इस ट्रेन संचालन के समानांतर ही रेलवे ऐसे रूट्स को चिह्नित कर इसे बढ़ाने पर विचार कर रहा है। बस यही डर रेलकर्मियों को खाए जा रहा है।
रेलवे में तो निजीकरण की प्रक्रिया शुरू ही हो गई है, अन्य क्षेत्र भी ऐसी संभावनाओं को लेकर परेशान हैं। इसके विरोध की शुरुआत रक्षा क्षेत्र में आंदोलनों के रूप में हो चुकी है। देश भर के रक्षा प्रतिष्ठानों के कर्मचारी निजीकरण की आहट भांप कर आंदोलित हैं। सरकार सफाई दे रही है, पर अब वे मानो भरोसा करने को तैयार ही नहीं हैं। यही हाल पेट्रोलियम सेक्टर का भी है। रिलायंस व एस्सार जैसे दिग्गज पेट्रोल-डीजल की फुटकर बिक्री के क्षेत्र में पहले ही उतर चुके थे, इसके बावजूद इंडियन आयल व भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां देश में पेट्रोलियम सेक्टर में सरकारी प्रभुत्व का संरक्षण कर रही थीं। हाल ही में भारत पेट्रोलियम के निजीकरण का रास्ता साफ होने के साथ रिलायंस द्वारा इसे खरीदे जाने की चर्चाएं भी तेज हुई हैं। ऐसे में एक-एक सरकारी प्रभुत्व वाली कंपनियों को निजी हाथों में सौंपे जाने का डर लोगों को सता रहा है। यह डर संचार क्षेत्र में भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बीएसएनएल के कर्मचारियों के दिल भी धड़का रहा है। बीएसएनएल लगातार सरकार के लिए आर्थिक मुसीबतों का कारण बनी हुई है। जिस तरह निजी क्षेत्र की संचार कंपनियों ने बीएसएनएल को चुनौती दी है, सरकारी कंपनी होने के बावजूद बीएसएनएल उस मुकाबले में खड़ी नहीं उतर पा रही है। तेजस के संचालन के बाद बीएसएनएल के कुछ कर्मचारियों ने तेजस को निजी हाथों में दिये जाने का विरोध करने वालों को लेकर तंज भी किया, कि वे लोग निजी कंपनियों का मोबाइल क्यों इस्तेमाल करते हैं। ये तंज आज भले ही महज तंज सा लगे, किंतु ये परिस्थितियां देश में निजीकरण के व्यापक विरोध की पृष्ठभूमि भी बना रही हैं। दरअसल बीएसएनएल के कर्मचारी 17 साल पहले विदेश संचार निगम लिमिटेड (वीएसएनएल) को टाटा कम्युनिकेशन के हाथों सौंपे जाने का दर्द नहीं भूले हैं। दरअसल 2002 में पहले टाटा को 45 फीसद हिस्सेदारी सौंपकर वीएसएनएल में प्रवेश का अवसर दिया गया, फिर 2008 में इसे टाटा कम्युनिकेशन ने पूरी तरह अधगृहीत कर लिया। बीएसएनएल कर्मचारियों को डर है कि इस बार भी कुछ ऐसा ही हो सकता है। इस भय व आपसी अविश्वास के वातावरण के बीच तेजस चल रही है, ट्रेन होस्टेस सेवा कर रही हैं और देश बदलाव की प्रतीक्षा कर रहा है। यह बदलाव कैसा साबित होगा, यह तो समय ही बताएगा।
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