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Employment will not be made in this way: ऐसे नहीं बनेंगे रोजगार

भरत झुनझुनवाला
सरकार को रोजगार बनाने की दूसरी नीतियां लागू करनी चाहिए। अपने देश में बड़ी कम्पनी के लिए ‘ऊर्जा आडिट’ कराना जरूरी होता है जिससे कि शेयर धारकों को पता लगे कि उनकी कम्पनी ने ऊर्जा का कितना सही उपयोग किया। इसी प्रकार ‘श्रम आडिट’ की भी व्यवस्था की जा सकती है जिससे कि श्रम का उपयोग करने की प्रवृत्ति बने। दूसरे, सरकारी ठेकों में व्यवस्था की जा सकती है कि अमुक कार्य श्रमिकों द्वारा कराए जायेंगे न कि मशीन द्वारा। तीसरा, सभी उद्योगों को श्रम और पूंजी सघन उद्योगों में बांटा जा सकता है और पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स की दर बढ़ा कर श्रम सघन उद्योगों पर टैक्स की दर घटाई जा सकती है।
सरकार ने शीघ्र ही नया लेबर कोड लागू करने का निर्णय लिया है। सरकार के अनुसार तमाम श्रम कानूनों को चार कानूनों में एकत्रित करने से कानून का अनुपालन आसान हो जाएगा और उद्यमियों की श्रमिकों को और अधिक रोजगार उपलब्ध कराने की प्रवृत्ति बनेगी। परन्तु श्रम को रोजगार देने की मूल समस्याओं का वर्तमान लेबर कोड में हल दिखता नहीं है। लेबर कोड में कुछ प्रावधान श्रमिकों के पक्ष में है जैसे अल्पकालीन श्रमिकों को वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है जो कि स्थायी श्रमिकों को उपलब्ध हैं। दूसरी तरफ उद्योगों को बंद करने के लिए पूर्व में 100 श्रमिकों से अधिक वाले कारखानों को सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी अब इस सीमा को बढ़कर 300 श्रमिक कर दिया गया है। यानी 100 से 300 श्रमिकों वाले उद्योग अब बिना सरकार की अनुमति के कारखानों को बंद कर सकेंगे अथवा श्रमिकों की छटनी कर सकेंगे। यद्यपि ये प्रावधान श्रमिकों को सहूलियत देने में सहायक और सही दिशा में है लेकिन इनसे रोजगार उत्पन्न करने की मूल समस्या का निवारण होता नहीं दिख रहा है।
उद्यमी निवेश करता है तो उसे निर्णय लेना होता है कि किसी कार्य को करने के लिए वह मशीन का उपयोग करेगा अथवा श्रमिक का। जैसे डबलरोटी बनाने का कारखाना लगाना हो तो डबलरोटी को स्वचालित मशीन से बनाया जाए अथवा पुरानी भट्टी में? उद्यमी का उद्देश्य अपनी उत्पादन लागत को कम करना होता है। मशीन और श्रम में वह मशीन को चयन करेगा यदि मशीन सस्ती पड़ती है, और श्रमिक का उपयोग तब करेगा यदि श्रमिक सस्ता पड़ता है जैसे सब्जी मंडी में आलू का दाम कम होने पर लोग आलू ज्यादा खरीदते हैं और आलू का दाम अधिक होने पर टमाटर या अन्य सब्जी अधिक खरीदते हैं। और यदि मंडी के विक्रेता आलू के दाम को आपसी संगठन बनाकर बनाकर ऊंचा कर दें जैसे तय कर लें कि आलू को 50 रुपये प्रति किलो की दर से कम में नहीं बेचेंगे, तो खरीदार की प्रवृति बनेगी कि आलू के स्थान पर दूसरी सब्जी का उपयोग करे और आलू विक्रेता को नुकसान हो सकता है।
इस प्रकार कृत्रिम रूप से किसी भी वस्तु के दाम को ऊंचा करने से उसकी मांग कम हो जाती है। यही बात श्रम बाजार पर लागू होती है। यदि कानून के माध्यम से श्रम के मूल्य को अधिक कर दिया जाए जैसा कि न्यूनतम कानून वेतन के अंतर्गत किया जाता है तो श्रम का दाम बढ़ जाता है और उद्यमी की प्रवृत्ति होती है कि श्रम के स्थान पर मशीन का उपयोग अधिक करे। वर्तमान लेबर कोड में न्यूनतम वेतन कानून को संशोधित नहीं किया गया है इसलिए रोजगार उत्पन्न होने में यह व्यवधान जारी रहेगा। श्रम का दाम कम हो तो भी उद्यमी द्वारा श्रम का उपयोग करना अनिवार्य नहीं है। कम दाम पर भी उद्यमी को तय करना पड़ता है कि वह मशीन का उपयोग करेगा या श्रम का? यदि श्रमिक कुशल है और निर्धारित समय में अधिक उत्पादन करता है तो उद्यमी की रुचि श्रमिक को रोजगार देने की होगी। अपने देश में समस्या यह है कि श्रमिकों को बिना कारण बताए बर्खास्त करने की उद्यमी को छूट नहीं है। यदि कोई श्रमिक अकुशल है अथवा काम कम करता है तो उससे काम लेना उद्यमी के लिए लोहे के चने चबाने जैसा हो जाता है।
श्रमिकों को अकसर बर्खास्त किये जाने का भय नहीं होता है। किसी उद्यमी ने मुझे बताया कि जब वह अपने किसी अकुशल श्रमिक को कहता था कि यदि आपने काम कि रफ़्तार नहीं बढ़ाई तो आपको बर्खास्त करना होगा तो श्रमिक का उत्तर था कि ‘हां, आप हमें बर्खास्त कर दीजिए, हम घर में रहकर अपना काम करेंगे और लेबर कोर्ट में वाद दायर करेंगे, यदि हम जीत गये तो ठीक है वरना घर पर तो काम कर ही रहे थे।’ इस प्रकार श्रमिकों से काम लेना बहुत कठिन हो जाता है। यदि श्रमिक संगठित और आक्रामक हो जाते हैं तो उनसे काम लेना और अधिक कठिन हो जाता है। जैसे आज से 30 वर्ष पूर्व मुंबई में तमाम कपड़ा मिलें थीं। दत्ता सामंत के नेतृत्व में अनेक आन्दोलन हुए जिसका परिणाम हुआ कि ये सभी मिलें आज महाराष्ट्र से हटकर गुजरात में स्थापित हो गईं। कारण कि मुंबई में  श्रमिकों से कार्य लेना अति दुष्कर हो गया था। कमोबेश यह बात पूरे देश पर लागू होती है। स्टेट बैंक के एक अध्ययन के अनुसार भारत में एक श्रमिक औसतन 6414 अमरीकी डालर प्रति वर्ष का उत्पादन करता है जबकि चीन में 16698 डालर का। उत्पादकता में इस अंतर का एक कारण तो मशीन है जैसे यदि श्रमिक स्वचालित मशीन पर काम करता है तो वह 1 दिन में अधिक उत्पादन करता है।
चीन में बड़ी फैक्ट्रियों में बड़ी मशीनों से उत्पादन किया जाता है इसलिए श्रम की उत्पादकता अधिक है। लेकिन साथ-साथ श्रम की कुशलता का भी प्रभाव होता है। यदि श्रमिक कुशल है तो वह उत्पादन अधिक करेगा और उद्यमी की उसको रोजगार देने की रुचि अधिक बनती है। वर्तमान लेबर कोड में न तो वेतन निर्धारित करने का उद्यमी को अवसर दिया गया है और न ही श्रमिक को बर्खास्त करने का। इसलिए श्रम का उपयोग अधिक करने की जो मूल जरूरतें थीं उनकी वर्तमान लेबर कोड में अनदेखी की गई है। मेरा अनुमान है कि आने वाले समय में उद्योगों में श्रम का उपयोग कम होता ही जाएगा। इस दुरूह परिस्थिति में सरकार को रोजगार बनाने की दूसरी नीतियां लागू करनी चाहिए। अपने देश में बड़ी कम्पनी के लिए ‘ऊर्जा आडिट’ कराना जरूरी होता है जिससे कि शेयर धारकों को पता लगे कि उनकी कम्पनी ने ऊर्जा का कितना सही उपयोग किया।
(लेखक स्तंभकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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