किसी देश के इतिहास में ऐसे बहुत अवसर नहीं हैं जब विकास प्रक्षेप पथ को बदलने का अवसर प्राप्त होता है। भारत में यह ऐतिहासिक घटना आत्मत निर्भर भारत को महत्वप देने के साथ विकास के स्थानीयकरण पर केंद्रित है। यह भारत में आर्थिक विकास के पथ को बदलने की एक विलक्षण सोच है। स्वायत्तशासी विकास की रणनीति का मुख्य तत्व एक ऐसी आर्थिक संरचना का निर्माण है जो देश में उपलब्ध सभी संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता के लिए सबसे उपयुक्त हों। प्रधानमंत्री के इस दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में, अपने संसाधनों पर आधारित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आत्मनिर्भर विकास, सार्वजनिक और निजी उद्यमों के बीच संबंध और सहयोग और एमएसएमई और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण जैसे उपायों को रणनीति का अभिन्न अंग बनाया गया है।
यह प्रयास आर्थिक सुधारों को एक विशेष क्रम में रखने की चर्चा करता है, एक बहस जो 1991 के बाद से गहन शैक्षणिक और नीतिगत विचार-विमर्श के लिए होती रही है। भारत में विनिर्माण मूल्य वर्धित (एमवीए) वृद्धि की धीमी दर और जीडीपी में इसके हिस्से में ठहराव ने चारों तरफ बहस को आकर्षित किया है। लांस टेलर ने एक बार देखा कि आर्थिक सुधारों को एक विशेष क्रम में रखना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना स्वयं सुधारों को रखना। किसी तरह पिछले कई वर्षों में, आयात में कई गुना वृद्धि हुई है और औद्योगिक उत्पादन और शुद्ध मूल्य वर्धन में गिरावट आई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 मई को अपने तीसरे संबोधन में, आत्मनिर्भर भारत अभियान शीर्षक से 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी। कुल 20,97,053 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन राशि में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा घोषित पूर्व में किए गए 8,01,603 लाख करोड़ रुपये के उपाय और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज (पीएमजीकेपी) के अंतर्गत सरकार द्वारा घोषित 1,92,800 करोड़ रुपये शामिल हैं। राहत पैकेज का विवरण वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 13 से 17 मई तक पांच दिन में विस्तार से बताया। प्रयास यह था कि लॉकडाउन से बाहर निकलने के साथ ही अर्थव्यवस्था के सामने जो प्रमुख चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं उनके साथ-साथ उन प्रवासियों को लाभदायक रोजगार देना जो अपने शहरों में वापस नहीं जाना चाहते (रिवर्स माइग्रेशन) और आपूर्ति में व्यवधान जैसे मुद्दों में से कुछ का समाधान निकालना होगा।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई), गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और कुछ व्यक्तियों द्वारा लक्षित पहले भाग की घोषणा वित्तम मंत्री ने बुधवार को की थी। पांच प्रेस कॉन्फ्रेंसों में जिस प्रकार की प्रमुख व्याक्तिगत या सामूहिक भागीदारी की चर्चा की गई, उसमें पैकेज में शामिल मुद्दों की एक अत्यंत विस्तृत सूची है। अर्थव्यवस्था में भूमि, श्रम अथवा पूंजी का इस्तेबमाल करने वाले प्रमुख व्यमक्तियों में, राज्य सरकारें अधिक वित्तीय कौशल स्थान बनाने के लिए बहस और समर्थन कर रही हैं। व्यवसाय, वित्तीय संस्थान, आवास और कृषि और किसान बदले हुए नीति परिप्रेक्ष्य (क्या यह ठीक है?) में प्रमुख कर्ता हो सकते हैं। वर्तमान नीति में प्रवासी श्रमिकों पर प्रमुखता से प्रकाश डाला जा रहा है। सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों, स्व सहायता समूहों, डेयरी सहकारी समितियों और मछुआरों के संगठनों के जरिये सामुदायिक भागीदारी कायम करने के प्रयास भी किए गए हैं। बिजली क्षेत्र के लाभार्थियों में राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के साथ-साथ वितरण कंपनियां भी शामिल हैं। बुनियादी ढांचे में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र शामिल हैं। इस बात पर भी गौर करना दिलचस्प है कि कार्यक्रम में शामिल करने के लिए पांच अलग-अलग तौर-तरीके प्रस्तावित हैं। सबसे पहले अग्रिम पंक्ति को सामाजिक सुरक्षा का समर्थन करना, दूसरा, ऋण सुविधाएं और नकदी सहायता, तीसरा, बुनियादी ढांचे के विकास के लिए वित्तीय सहायता, चौथा, शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी-संचालित सुधार, और पांचवा, श्रम बाजार और कोयला, रक्षा, खनिज, नागरिक उड्डयन, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा, मत्स्य, रियल एस्टेरट सहित विशिष्ट क्षेत्रों में नीतिगत सुधार शामिल हैं। वैश्विक स्तर पर, हम पाते हैं कि अनेक मायनों में भारत की प्रतिक्रिया अन्य देशों के साथ मेल खाती है। यद्यपि देश के विशिष्ट पैकेजों का आकार, दायरा और आर्थिक सुधारों को विशेष क्रम में रखना भिन्न होता है, मजबूत नीतियों के लिए शामिल किए गए क्षेत्र कमोबेश समान हैं। देश के पैकेजों में शामिल राजकोषीय, मौद्रिक और वृहद आर्थिक मजबूत नीतियां दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने, उपकरण और स्वास्य्द बुनियादी ढांचे, टीका विकसित करने, बेरोजगार को राहत देने, कमजोर और बीमार व्यक्तियों को राहत, आवश्यक आपूर्ति सुनिश्चित करने, खाद्य सुरक्षा और रक्षा, कर में राहत, छोटे और मध्यम व्यवसायों के लिए ऋण प्रवाह, ऋण अदायगी में देरी, नीतिगत दरों में कमी, और सबसे महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था में नकदी का पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करने और रेपो रेट में बदलाव के जरिये बैंकिंग प्रणाली में पूंजी के संरक्षण, परिसंपत्ति की खरीद और आरक्षित आवश्यकताओं को कम करने के इरादे से बनाई गई हैं। अन्ये देशों के अलावा कुछ देशों जैसे जापान (21.1 प्रतिशत), बेल्जियम (13.5 प्रतिशत), ईरान (13.7 प्रतिशत), सिंगापुर (91.3 प्रतिशत, अमेरिका (11प्रतिशत), हांगकांग (10)के लिए वित्तीीय प्रोत्साहन पैकेजों का आकार बहुत अधिक है। विकसित देशों और उभरते बाजारों के लिए, वित्तीआय प्रोत्साहन का आकार 3प्रतिशत से 8 प्रतिशत तक है, जबकि कुछ अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह काफी कम है। भारत के लिए संयुक्त वित्तीरय प्रोत्साहन पैकेज जीडीपी का 11%से अधिक है, जो भारत को एक उभरते हुए देश के रूप में ध्यासन में रखकर समुचित रूप से अधिक है। मौजूदा स्थिति में इसे इसकी मूल भावना में तेजी के साथ लागू करना सबसे जरूरी है। संबंधित मंत्रालयों और एजेंसियों को अति सक्रिय रूप से काम करने के लिए प्रेरित करना होगा, सामूहिक रूप से आगे बढ़ने के लिए सभी साझेदारों को एक साथ लाना होगा। नौकरशाही को व्यावहारिकता और परिणाम प्रधान दृष्टिकोण के लिए प्रेरित करना होगा। इसके अलावा दो अन्य महत्वपूर्ण कारक भी हैं। सबसे पहला ये कि भारत को ऊंची पूंजी वाली दीर्घकालिक परियोजनाओं के वित्तपोषण के एक संस्थागत तंत्र की जरूरत है। आईडीबीआई और आईसीआईसीआई के निजीकरण के बाद से भारत ने बहुत हद तक औद्योगिक विकास के वित्तपोषण को खो दिया है। जो व्यवस्थाएं सामने आई हैं, वो जोखिम समर्थन देने और पुनर्वित्त में विफल रही हैं। भारत में विनिर्माण उत्पादन के लिए अनौपचारिक क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है। हालांकि अक्सर, खास कर बड़े आकार और तकनीकी उन्नयन वाली अर्थव्यवस्थाओं को भुनाने में, गतिशीलता उन बड़ी कंपनियों के प्रदर्शन पर निर्भर करती है जो पूंजी संग्रह की धीमी वृद्धि का सामना कर रहे हैं। दूसरा कारक ये कि आरबीआई को औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए गहन चिंतन करने हेतु सरकारी बैंकों (पीएसबी) के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पीएसबी के लिए सरकारी सहायता को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
प्रोफेसर सचिन चतुवेर्दी
(लेखक अनुसंधान एवं सूचना प्रणाली (आरआईएस) के महानिदेशक हैं। ये इनके निजी विचार हैं।)