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Elections & Media: चुनावी धन बल और मीडिया की भूमिका से विश्वसनीयता को धक्का

आलोक मेहता, (आज समाज), नई दिल्ली: हरियाणा में पहली बार नाक नहीं कटी है। इमरजेंसी के तत्काल बाद हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली और कई राज्यों के पुराने अखबारों की फाइल्स निकालकर देख लीजिये, कांग्रेस और इंदिरा गांधी के पक्ष में लहर की खबरें राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों के पहले पन्ने पर सबसे ऊपर लीड की तरह छपती रहीं।

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कांग्रेस के प्रचार से जुड़े एक प्रमुख रणनीतिकार मेरे पत्रकार मित्र थे, इसलिए बताते थे कि दिल्ली से चुनाव क्षेत्रों में जाने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों को यात्रा के लिए टिकट, सुविधाएं तथा हैसियत के हिसाब से कितने हजार रुपए दिए जा रहे हैं। स्वाभाविक है हेडलाइन विजय पताका की ही होंगी। पराकाष्ठा यह हुई कि पार्टी और स्वयं श्रीमती गांधी की भारी पराजय के दो सप्ताह बाद एक बड़े अखबार के ब्यूरो प्रमुख ने मेरे रणनीतिकार मित्र से फोन कर कहा कि चुनावी यात्रा में तो उसके 12 हजार रुपए अधिक खर्च हुए, वह बकाया हिसाब कर दिलवा दो।

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एक अन्य पत्रकार ने चुनावी प्रचार सामग्री तैयार करने के लिए काम के बकाया 20 हजार रुपए नहीं दिलवाने पर घर के सामने धरना देने की धमकी भरा पत्र ही भेज दिया था। मेरे मित्र ने लगभग रोते हुए कहा कि ‘बताइये मैंने तो तब भी केवल पार्टी के कोषाध्यक्ष को कुछ लोगों के नाम बताकर आवश्यक धनराशि सुविधा आदि की सलाह दी थी। अब मैं पराजित पार्टी से पैसे कहां से दिलवा हूं।

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वैसे उससे पहले 1974 के आसपास भी उत्तर प्रदेश विधानसभा के दौरान भी पार्टी की विज्ञप्ति को खबर की तरह बनाकर लिफाफे में सौ पांच सौ रुपए के साथ छपवाने की जानकारी उन्हीं मित्र से मिलती थी, लेकिन तब आज की तरह इलेक्ट्रानिक अथवा सोशल मीडिया नहीं था, इसलिए सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई।

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वर्तमान दौर में कांग्रेस की हरियाणा में बड़ी विजय के दावे करने वाले पत्रकारों, मीडिया समूह, टी वी समाचार चैनल्स, सर्वे कंपनियों और स्वतंत्र यूं ट्यूबर्स, वेबसाइट, फेस बुक के स्वंतंत्र पत्रकार लेखकों की विश्वसनीयता पर सार्वजनिक चर्चा से सबकी छवि खराब हो रही है। लेकिन यह लेने वालों और देने वाले नेताओं, पार्टियों व नेताओं के आत्म परीक्षण का ध्यान दिलाने वाला मुद्दा भी है।

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तकलीफ इस बात की है कि जो मीडिया कर्मी हरियाणा चुनाव या पहले किसी चुनाव में ऐसे सर्वे या रिपोर्ट पर असहमति व्यक्त करते थे, उन्हें पूर्वाग्रही और सत्ता का पक्षधारी इत्यादि कहकर बुरा भला सुनाया जाता है। इसमें भी कोई शक नहीं कि समाचारों या विश्लेषणों या विचारों में विभिन्न मत सही या गलत हो सकते हैं, लेकिन पेड न्यूज या प्रचार का सिलसिला बढ़ना खतरनाक ह। मीडिया के जिम्मेदार सम्पादकों और प्रेस कौंसिल जैसी संस्थाओं ने पहले भी इस समस्या को उठाकर आचार संहिता बनाई है।

मैंने पत्रकारिता सम्बन्धी अपनी पुस्तक ‘पावर प्रेस एन्ड पॉलिटिक्स’ के एक चैप्टर में ऐसी रिपोर्ट्स के प्रामाणिक अंशों का उल्लेख किया है। संसद, चुनाव आयोग और अदालतों ने भी कई बार इस मुद्दे को उठाया। देश के प्रसिद्ध संपादक कुलदीप नय्यर ने स्वयं एक नेता से हुई बातचीत के बारे में बताया था कि चुनाव में उन्होंने दो करोड़ रुपए मीडिया में प्रचार के लिए दिया था। पेड न्यूज का एक दुखड़ा एक अन्य नेता ने सुनाया। उसने कहा कि चुनाव के दौरान कुछ लाख रुपए देने के बाद उनकी खबर के सामने छपी विरोधी की खबर देखकर बहुत तकलीफ हुई।

राज्यों में तो कुछ मीडिया संस्थान खुले आम किसी नेता से जुड़े होने के लिए बदनाम रहते हैं। ऐसे बहुत से मामले प्रेस कौंसिल की रिपोर्ट में भी दर्ज हैं। वैसे अब बड़ी विज्ञापन एजेंसियां प्रचार का काम संभाल रही हैं, इसलिए वैधानिक रूप से पार्टी या उम्मीदवार के विज्ञापन पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। सर्वे कंपनियां भी पार्टी उम्मीदवार की स्थिति का पता लगाने के लिए काम करती हैं, लेकिन विवाद नगद भुगतान से होने वाले प्रचार, कुप्रचार, पक्षपातपूर्ण सर्वे आदि पर है। क्या इसे धोखाधड़ी जैसा अपराध नहीं कहा जाएगा।

चुनाव आयोग के पास ऐसी शिकायतें आती हैं, लेकिन जांच, सबूत आदि की प्रक्रिया में महीनों वर्षों निकल जाते हैं। सवाल यह है कि नेता खुद इस जाल में क्यों फंसते फंसाते हैं? इससे उनकी और उनके काम के प्रचार की विश्वसनीयता भी तो कम होती जा रही है। इस संदर्भ में एक विदेशी राजदूत से हुई बातचीत का उल्लेख भी जरूरी है। राजदूत ने एक अंतरंग बातचीत में बताया था कि ‘आप लोग मीडिया ग्रुप के लिए चुनावी सर्वे पर लाखों करोड़ों रुपए खर्च करते हैं। हम उनके छपने या टी वी चैनल पर आने का इंतजार नहीं करते। हम भी अधिक धनराशि देकर उस सर्वे की कॉपी पहले ही अपनी टेबल पर मंगवा लेते हंै।

वैसे मुझे तो बीस पच्चीस वर्ष पहले एक यूरोपीय देश में चुनाव के दौरान यह पता चला था कि संपन्न देश के कुछ संस्थान भारत में इस तरह के सर्वे के अभ्यास के लिए चुनिंदा भारतीय लोगों को शिक्षित प्रशिक्षित भी करते है। बाद में अच्छी फंडिंग से वे भारत में सर्वे का काम करते हैं और उन विदेशी संस्थांओं या उनकी इंटेलिजेंस एजेंसियों को अपनी रिपोर्ट देते हैं। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के चुनाव, लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रों और कुछ राजनीतिक या अन्य संगठनों द्वारा विदेशी इशारों पर काम करने की चर्चा अपने भाषणों में भी कर रहे हैं।

भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए विदेशी ताकतें मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, महिलाओं के मुद्दों पर भड़काने, आंदोलन करने, हिंसा, उपद्रव के लिए भी कथित स्वयंसेवी संस्थाओं, समाचार माध्यमों, सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं। संविधान निमार्ताओं ने दुनिया भर की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करके श्रेष्ठ भारतीय संविधान के नियम कानून अभिव्यक्ति के अधिकारों का प्रावधान किया। उन्होंने वर्तमान विश्व परिदृश्य की कल्पना नहीं की होगी अथवा वह आज होते तो अपने बनाए नियम कानून बदलकर कुछ आवश्यक नियंत्रण का प्रावधान करते।

इस समय तो राजनीति ही नहीं समाज के अन्य क्षेत्रों में किसी आचार संहिता को नहीं स्वीकारने की स्थितियां दिखने लगी हैं। इस गंभीर विषय पर संसद में सर्वानुमति से आवश्यक सुधारों, अनिवार्य आचार संहिता के निर्माण और सुप्रीम कोर्ट से भी स्वीकृति की जरूरत है। रावण की बुराइयों अथवा अंधेरे से उजाले और सामाजिक राजनीत्तिक प्रदूषण से मीडिया को भी बचाने के लिए संकल्प और प्रयासों की जरूरत है।

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Vir Singh

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